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स्लोगन में चुनावी इबारत

नारे सिर्फ एजेंडे और राजनैतिक जोड़तोड़ का ही बयान नहीं करते, बल्कि इनमें लोगों को प्रभावित करने और जनमत तैयार करने का माद्दा भी होता है। कल और आज के नारों में बदलती सियासी तस्वीर भी दिखती है
पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू

उदात्त, मानवी उष्मा, इंद्रधनुषी रंगों, विविध रीति-रिवाजों, भाव-भंगिमाओं की इस उत्सवधर्मी प्राचीन भूमि में सात दशक पहले एक नए विशाल उत्सव की नींव रखी गई। अपनी व्यापकता, संभावनाओं और सत्ता के दावों-प्रतिदावों के चलते चुनाव हमारे सबसे बड़े त्योहार बन गए। सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित इस उत्सव में हर भारतीय समान रूप से शिरकत करता है, जिसमें जाति, शिक्षा, विचारधारा, भाषा, धर्म और धन का फर्क आड़े नहीं आता। लिहाजा, 1952 में पहले आम चुनावों में मतदाताओं की संख्या 10 गुना बढ़ गई। सो, इस उत्सव को आकार देने के लिए चुनाव आयोग ने 68 चरणों में मतदान की व्यवस्‍था की, जो अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 तक चली, ताकि हर कोई मताधिकार के इस्तेमाल के इस जश्न में शामिल हो सके।

इसने लोगों में अपने अधिकारों का गजब का दमखम भर दिया, जिसकी झलक फौरन 1952 में दिल्ली के सफदरजंग निर्वाचन क्षेत्र के कांग्रेस उम्मीदवार दलजीत सिंह के चुनावी पोस्टरों में दिखी। चुनाव दिल्ली राज्य का था। उन्होंने ऐलान किया, “लोगों की इच्छा ही राज्य का कानून होगा।” उसी चुनाव में चावड़ी बाजार के कांग्रेस उम्मीदवार नूरउद्दीन अहमद ने नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस के स्थिर, गैर-सांप्रदायिक और प्रगतिशील राष्ट्र को अपना नारा बनाया। उनकी टैगलाइन थी, अपना कीमती वोट देकर राष्ट्र प्रेम का परिचय दें। नेहरू ने जादुई शब्दों के साथ संक्षिप्त नारा दिया आत्मनिर्भर भारत बनाएंगे। जवाब में, कांग्रेस के विरोध में उतरीं नवगठित पार्टियों- जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी ने नारा दिया हम सब एक हैं, ताकि सांप्रदायिक विभाजन की कोशिशों की काट की जा सके। अंत में, कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा में 39, जनसंघ ने पांच और सोशलिस्टों ने दो सीटें जीतीं।

अगले दशक में जब नेहरू की नीतियां कमजोर पड़ने लगीं, तभी जनसंघ पंडित जवाहरलाल नेहरू की आलोचना में कुछ रचनात्मक पहल सामने ले आ पाई। 1962 की शुरुआत में तीसरे आम चुनाव में उसने नारा दिया, वाह रे नेहरू तेरी मौज, घर में हमला बाहर फौज। यह नेहरू के चीन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने का मखौल उड़ाया गया था जबकि चीन तिब्बत पर कब्जा कर चुका था और भारत के कुछ हिस्सों पर अपना दावा पेश कर चुका था। हालांकि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा। नेहरू का करिश्मा बरकरार रहा। चुनावों में 55 फीसदी से कुछ अधिक वोट पड़े और कांग्रेस के 361 की तुलना में जनसंघ के 14 सांसद ही जीत सके। कुछ महीने बाद अक्टूबर 1962 में चीन-भारत के बीच युद्ध शुरू हुआ और चीन के साथ ही मशहूर शांतिवादी लेखक-दा‌र्शनिक बर्टेंड रसेल ने भी दावा किया कि युद्ध की शुरुआत नेहरू ने की।

1962 की जंग से नेहरूवादी समाजवादी यूटोपिया का अफसाना काफी फीका पड़ गया। उस अफसाने को फिर धार दी अगले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्‍त्री ने। उनका नारा जय जवान जय किसान आज भी याद किया जाता है। लेकिन इससे भी कांग्रेस नेतृत्व की लोगों में पुरानी साख बहाल नहीं हो सकी। ऐसा लगता था कि कांग्रेस अपने आप में भी भरोसा खो चुकी है। लग रहा था कि उसका एकमात्र मकसद दोबारा सत्ता हासिल करना ही रह गया है।

1966 में शास्‍त्री की असामयिक मृत्यु के बाद पार्टी के पुराने दिग्गजों ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठा दिया। के. कामराज और मोरारजी देसाई जैसे दिग्गजों ने इंदिरा को कमजोर और दब्बू मान लिया था। सो, 1967 के आम चुनावों में वे इंदिरा की तस्वीर के साथ प्रगति कांग्रेस के साथ का ही नारा दे सके। कांग्रेस किसी तरह बहुमत हासिल कर पाई। लेकिन लोकसभा में उसकी सीटों की संख्या 361 से घटकर 283 रह गई। उसे छह राज्य विधानसभाओं में भी मुंह की खानी पड़ी थी।

1966 के बजट सत्र के दौरान इंदिरा के बेदम जवाबों ने दिग्‍गज सोशलिस्ट नेता राम मनोहर लोहिया को उन्हें गूंगी गुड़िया कहने का मौका दिया। प्रकाश करात ने भी 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के दौरान ममता बनर्जी को गूंगी गुड़िया कहा। लेकिन कुछ वर्षों के भीतर इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके समाजवादी अफसाने को हथिया लिया। इन सभी बैंकों में 85 फीसदी जमा राशि थी। अपने कार्यकाल की समाप्ति से पहले उन्होंने सभी विरोधियों को हाशिए पर ढकेल दिया, जिसमें स्वतंत्र बांग्लादेश के निर्माण और गरीबी हटाओ जैसे नारों ने अहम भूमिका निभाई। ममता ने भी चुनाव जीतकर करारा जवाब दिया और बंगाल में कम्युनिस्टों को अप्रासंगिक बना दिया।

1967 में प्रमुख विपक्षी पार्टियों में एक बनकर उभरी जनसंघ के पास तो विचारों का ऐसा टोटा था कि उसने नारा दिया, जनसंघ को वोट दो, बीड़ी पीना छोड दो, बीड़ी में तंबाकू है, कांग्रेस वाला डाकू है। 1971 के चुनावों में तो जनसंघ के शब्दों का दायरा और सिकुड़ गया। वह इंदिरा हटाओ जैसा बेमजा नारा ही दे सका, जो लोगों में कोई उत्साह नहीं जगा पाया।

कुछ वर्षों बाद इंदिरा के शासन का बुलबुला फूटने लगा। लोग रोजमर्रा के भ्रष्टाचार और सरकार की निष्क्रियता से तंग आ चुके थे। निराश छात्रों ने संपूर्ण क्रांति के नारे के साथ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन किया। इंदिरा ने इसका जवाब इमरजेंसी लगाकर दिया।

1977 के वसंत में इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में चंद्रशेखर, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव सुर्खियों में चढ़े। अब इंदिरा हटाओ के साथ नया नारा देश बचाओ जुड़ गया था। नवगठित जनता पार्टी ने कांग्रेस को नए स्लोगन के साथ ललकारा कि सिंहासन छोड़ो, कि जनता आती है।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद संभालने के साथ कांग्रेस की आम लोगों पर पकड़ कमजोर होती दिखने लगी। इस मौके पर, राजीव ने चुनावों पर विज्ञापन पेशेवरों की सलाह का सहारा लिया। राजीव के 1989 के चुनाव प्रचार में सांप-बिच्छुओं की तस्वीर उकेरी गई। यह उनके पूर्व विश्वासपात्र वी.पी. सिंह के लिए था। जवाब में बोफोर्स तोप सौदा घोटाला उछला, जिसमें कथित तौर पर 64 करोड़ रुपये रिश्वत ली गई थी। जगह-जगह लकड़ी के बोफोर्स के नमूने बनाए गए और उसके साथ नारा उछाला गया : वी.पी. सिंह का एक सवाल, पैसा खाया कौन दलाल? फिर तो यह नारा हर गली-नुक्कड़ पर गूंजने लगा। राजीव को लेकर एक और नारा गढ़ा गया, गालों में जो लाली है, तोपों की दलाली है। इसके विपरीत एक छोटी रियासत से संबंधित और बेहद चतुर नेता वी.पी. सिंह के लिए नारा दिया गया, राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।

जैसे-जैसे चुनाव में गरमी बढ़ती गए, देश में राजनैतिक बहस में नारे भी तीखे होते गए। फिर दिसंबर 2002 में आम तौर पर नरम बोली बोलने वाले लालकृष्‍ण आडवाणी नरेंद्र मोदी को काबू में रखने का कोई असर नहीं दिखा पाए। तब वे गुजरात के कार्यवाहक मुख्यमंत्री थे। उस समय मोदी बार-बार मियां मुशर्रफ का हांका लगाते रहे, जिसका इस्तेमाल पाकिस्तान के राष्ट्रपति के लिए अपमानजनक संदर्भ में था। साल भर पहले सांप्रदायिक दंगों पर काबू नहीं पाने पर पाकिस्तानी राष्ट्रपति की तरफ से फटकार के जवाब के रूप में मुशर्रफ पर तंज किया गया। यह पहला मौका था जब मोदी ने कांग्रेस पर भारतीयों के बजाय पाकिस्तान की आवाज बनने का आरोप लगाया। 2002 के चुनावों के दौरान सार्वजनिक रैलियां भी पहला संकेत थीं, जब मतदाताओं ने आडवाणी या यहां तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तुलना में नरेंद्र मोदी को अधिक पसंद किया।

कांग्रेस ने 2007 के गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान इसका जवाब दिया। तब सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर कहा था। भाजपा उस चुनाव में 117 और कांग्रेस ने 59 सीटों पर जीत दर्ज की। एक तरह से इसके जवाब में भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया और इसी नारे पर सवार होकर भाजपा ने 2014 के चुनाव में अद्भुत बुलंदी हासिल कर ली।

प्रमुख दलों के विपरीत छोटे दलों की राजनैतिक नारेबाजी और भी अधिक आक्रामक और तल्खी भरी थी। महाराष्ट्र में 1967 के चुनावों के दौरान शिवसेना के बालासाहेब ठाकरे ने मुंबई में दक्षिण भारतीयों को नीचा दिखाने के लिए नारा दिया, बजाओ पुंगी, हटाओ लुंगी। इससे पहले, बंबई के औपनिवेशिक प्रांत से बाहर महाराष्ट्र को एक स्वतंत्र राज्य बनाने के आंदोलन के दौरान गुजराती विरोधी नारे कुछ इस तरह लगे, सु छे, सरु छे, डंडा ले के मारू छे (कैसे हो, अच्छा हूं, डंडा लेकर मार रहा हूं)। 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के लिए जमीन तैयार करने के खातिर कांशीराम ने नारा दिया, तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।

हाल के दिनों में, नरेंद्र मोदी जैसे नेता लगातार जुबान पर चढ़ने वाले मुहावरे और नारे गढ़ रहे हैं। लेकिन लंबे-चौड़े वादे करने और फिर उन्हें जमीन पर उतारने का श्रेय तो दक्षिण के नेताओं को जाता है। 1960 के दशक में सी.एन. अन्नादुरै एक रुपये में तीन पड़ी चावल देने का वादा करते थे। मूल्यों की बढ़ती संवेदनशीलता को देखते हुए नारा फिर से लिखा गया कि एक पड़ी है पक्का, तीन पड़ी हमारा उद्देश्य। 1960 के दशक की भारत की अस्थिर अर्थव्यवस्था भी इस वादे को पर्याप्त रूप से पूरा करने की अनुमति नहीं देती थी। इस सबके बावजूद हालांकि, इस नारे ने लोगों को लुभाया। फिर कुछ दशकों बाद, तमिलनाडु लोगों को कम कीमत वाले अनाज मुहैया करने वाला भारत का पहला राज्य बन गया।

जब एम.जी. रामचंद्रन ने अभियान चलाया, तो उन्हें अय्यरतिल ओरुवन यानी ‘हजारों में एक’ के रूप में वर्णित किया गया। 1965 में इसी नाम की एक फिल्म बनाई गई थी, जिसमें पहली बार जयललिता और एमजीआर की जोड़ी आई। यह ऐतिहासिक हिट फिल्म बनी थी, जिसमें अन्याय पर कठोर प्रहार किया गया था और एक सच्चे नेता का चित्रण था, जो लोगों को न्याय दिलाने में मदद कर सकता है।

इसे 2014 में फिर से प्रदर्शित किया गया, ताकि जयललिता की चुनावी संभावनाओं को बढ़त मिल सके। वह तब तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बन चुकी थीं। एमजीआर ने अब तक ईदया देवम (हमारे दिलों का स्वामी) के रूप में सम्मानीय दर्जा हासिल कर लिया था और जयललिता को पुरैची तैलिवर (क्रांतिकारी नेता) के रूप में पेश किया गया। 2014 में एक दावा किया गया, “कोई मुख्यमंत्री अच्छी चीजें कर सकता है, लेकिन केवल अम्मा ही ईश्वरीय कार्य कर सकती हैं।”

देश में अधिक जोखिम और काफी कुछ दांव पर रखने वाली राजनीति के कारोबार में सब कुछ तभी तक विधिसम्मत है, जब तक कि लोग इसे पसंद करते हैं। लेकिन, अधिकांश हिस्सों के लिए नारे और चुनावी भाषण मनोरंजन और एक तरह का हास-परिहास पैदा करते हैं। शायद ही कोई उन्हें गंभीरता से लेता है और जरूरी नहीं कि उससे वोटिंग रुझान बदलता हो।

लोग नेता को उनके वादों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराते। हालांकि नारे उसकी एक झलक दिखाते हैं कि नारों के जरिए नेता का दिमाग काम से कितना जुड़ा है। यदि कोई नारा प्रचलित होता है, तो विश्लेषक इसे चुनावी माहौल का सूचक मानते हैं। क्या राजनैतिक नारे वोटिंग पैटर्न को प्रभावित करते हैं? क्या चुटीली बुद्धि के सहारे उनके कुटिल व्यंग्य मतदाताओं को समझाने में सक्षम हो सकते हैं? या वे सिर्फ मतदान के मौसम को सजाने वाले खिलौने हैं? केवल मतदाताओं की सकारात्मक स्वीकारोक्ति को ही सच माना जा सकता है।

(लेखक पंजाब विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं)

 

नारे, जो जुबां पर चढ़ गए 

आत्मनिर्भर भारत बनाएंगे (1952)

 वाह रे नेहरू तेरी मौज, घर में हमलाबाहर फौज (1962)

 

- वो कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ (1971)

 - जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू (90 के शुरुआती दशक में)

 - जनसंघ को वोट दो, बीड़ी पीना छोड़ दो, बीड़ी में तंबाकू है, कांग्रेस वाला डाकू है (1967)

 - इंदिरा हटाओ देश बचाओ (1977)

 - बजाओ पुंगी, हटाओ लुंगी (1960s)

 - वीपी सिंह का एक सवाल, पैसा खाया कौन दलाल (1980s)

 - एक शेरनी, सौ लंगूर, चिकमगलूर, भाई चिकमगलूर (1978)

 -गूंगी गुड़िया (1965)

 -कोडू गुड्डा नीडू! (भोजन, कपड़ा, मकान) 1980s

 - हिंदी ओझिगा, तमिल वाझगा!

(हिंदी भगाओ/तमिल जिंदाबाद) 1960s

 - तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार (1990)

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