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बाजारवादी नीतियों पर चुप्पी का राज

आर्थिक उदारीकरण और सुधारों की वकालत है गुम, बीच बहस में अब आया आम आदमी
विकास की बदलती बहस का मुकम्मल संदेश

बागबाहरा एक छोटा-सा कस्बा है जो ओडिशा की सीमा से करीब 20 किलोमीटर पहले छत्तीसगढ़ के महासमुन्द जिले में आता है। यहां खम्मानगुड़ा गांव के अधेड़ आदिवासी लाखनलाल धुरू से मुलाकात होती है। लोकसभा चुनाव के लिए मतदान होने में कुछ ही दिन बचे हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों के दफ्तर सूने पड़े हैं, दफ्तर का खयाल रखने वाले एकाध आदमी ही वहां दिखते हैं जो कार्यकर्ताओं और नेताओं के ग्रामीण इलाकों में प्रचार में जाने की बात कहते हैं। भाजपा के कार्यालय में लाउडस्पीकर पर देशभक्ति के नारे और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सुरक्षित और वैश्विक स्तर पर मजबूत हो रहे भारत की बात कहता टेप चल रहा है। कांग्रेस के दफ्तर में लगभग सन्नाटा है लेकिन वह भाजपा के दफ्तर से ज्यादा व्यवस्थित है। यह कस्बा खिल्लारी विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है और यहां का विधायक कांग्रेस का है।

चुनाव के मुद्दे पर आते ही धुरू कहते हैं कि हमें 35 किलो चावल मिलने लगा है। धान का समर्थन मूल्य 2,500 रुपये मिल रहा है। अधिकांश किसानों का कर्ज माफ हो गया है। सरकारी बैंकों का कर्ज माफ होने की बात हो रही है। यानी सरकार गरीब लोगों का ध्यान रख रही है। आगे भी ध्यान रखने के वादे हो रहे हैं। 'न्याय' योजना के तहत गरीबों को 72 हजार रुपये सालाना मिलेंगे।

बागबाहरा के रहने वाले नरेंद्र चंद्राकर कहते हैं कि मोदी ने गरीबों को आवास दिया, शौचालय दिया, सौभाग्य योजना के तहत बिजली कनेक्शन दिया, उज्ज्वला योजना के तहत फ्री में गैस कनेक्शन दिया। आयुष्मान योजना के तहत मुफ्त इलाज की सुविधा दी। आगे ये सुविधाएं और अधिक बढ़ेंगी, गरीबों का जीवन बदलेगा।

देश की राजधानी दिल्ली से लेकर सुदूर ग्रामीण इलाकों में चले जाइए। सभी जगह गरीबों के लिए राजनैतिक दलों की घोषणाएं और केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अमल में लाई जा रही योजनाएं ही चर्चा के केंद्र में हैं। असल में गरीब, किसान और ग्रामीण आबादी के बड़े वोट बैंक के सहारे 2019 के चुनाव जीतने की उम्मीद कर रहीं राजनैतिक पार्टियां आर्थिक उदारीकरण और सुधारों की वकालत कहीं करती नजर नहीं आती हैं। या यूं कहें कि राजनैतिक दलों को समझ आ गया है कि ऊंची विकास दर के आंकड़े और अरबों डॉलर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की बातें बेमानी हो रही हैं। वैसे भी दुनिया भर में मार्केट और सुधारवादी नीतियों के बारे में प्रतिकूल माहौल बन रहा है। तमाम अर्थविद और पॉलिसी समीक्षक यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि देश के आम आदमी का जीवन बेहतर करने में आर्थिक सुधारवादी नीतियां नाकाम हो रही हैं। नए सिरे से ही कुछ सोचना होगा और उसके केंद्र में समाज के कमजोर वर्ग को ऊपर ले जाने के उपाय होने चाहिए। इसलिए सीधे कैश ट्रांसफर की योजनाओं के लिए समर्थन बढ़ रहा है। संपन्नता के ऊपर से नीचे जाने की थ्योरी नाकाम होती दिख रही है। दुनिया की सबसे तेज बढ़ती इकोनॉमी का तमगा दिखाकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को सत्ता में वापसी की उम्मीद नहीं दिख रही है। यही वजह है कि पार्टी ने कांग्रेस की न्याय योजना की काट के लिए अपने चुनाव घोषणा-पत्र में लोगों के खाते में सीधे पैसा डालने की योजनाओं का विस्तार करने की बात कही, जिसमें सालाना छह हजार रुपये की सीधी मदद के लिए सभी किसानों को पात्र बनाने का वादा है। पांच साल तक बिना ब्याज का कर्ज किसानों को देने की बात है। छोटे दुकानदारों को पेंशन, तो मुद्रा योजना में बिना गारंटी का कर्ज बढ़ाने की बात है। बजट में सरकार करोड़ों श्रमिकों को पेंशन योजना की घोषणा कर ही चुकी है। यह बात अलग है कि पांच साल सत्ता में रहते हुए सरकार किसानों के बीच अपनी साख लगभग खो चुकी है। लेकिन उसे खुद को गरीबों की हितैषी दिखाने की पूरी कोशिश करनी पड़ रही है।

असल में यह बात सही है कि 1991 में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के करीब 28 साल बाद देश में विकास का मूल मंत्र समझी जाने वाली इस धारणा को झटका लगा है। भले ही कितने दावे किए जाएं और आंकड़े रखे जाएं लेकिन यह सच है कि अभी भी देश में बड़े पैमाने पर लोग गरीब हैं। संपत्ति अर्जन के मामले में देश में बड़े पैमाने पर असमानता बढ़ी है। थोड़े से लोगों की संपत्ति में बेतहाशा इजाफा हुआ है। इनके सहारे चुनाव नहीं जीते जाते हैं। ये लोग पार्टियों को करोड़ों रुपये का चंदा दे सकते हैं लेकिन साथ ही अपनी जरूरत के हिसाब से नीतियों में बदलाव भी करवाते रहे हैं। सरकार और कॉरपोरेट का यह घालमेल अब सामने भी आने लगा है। बहस तेज हो रही है कि जब कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए बैंकों से मिले लाखों करोड़ रुपये के कर्ज माफ किए जा सकते हैं, रेवेन्यू फोरगोन में लाखों करोड़ रुपये का फायदा कॉरपोरेट को दिया जा सकता है, तो गरीब लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए कुछ लाख करोड़ रुपये क्यों खर्च नहीं किए जा सकते हैं। इस लेखक के साथ बातचीत में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कहते हैं कि कांग्रेस की ‘न्याय’ योजना पर जीडीपी का छह फीसदी खर्च हो जाता है, तो कौन सी बड़ी बात है। हम देश के गरीबों के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं।

असल में इस बार लड़ाई बहुत तीखी है और उसके केंद्र में गरीब और कमजोर वर्ग है। दिलचस्प है कि ज्यादा मुखर दिखने वाला शहरी मध्य वर्ग पार्टियों के एजेंडा में बहुत ऊपर नहीं है। कांग्रेस रोजगार की बात करती है, तो भाजपा राष्ट्रीय सुरक्षा, मजबूत नेतृत्व और विश्व में मजबूत भारत की छवि को आगे कर रही है।

इसमें दो राय नहीं है कि नीतियों का केंद्र बिंदु पार्टियों के चुनाव घोषणा-पत्रों में ही सही, लेकिन बदल रहा है। इसे समाजवादी नीतियों का आगमन तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन लोक कल्याणकारी राज्य की छवि इसमें दिख रही है।

वैसे देश में जिस तरह का राजनैतिक माहौल है, उसमें किसे बहुमत मिलेगा, यह सवाल पेचीदा होता जा रहा है। भले ही भाजपा दावा करे कि वह जीत रही है लेकिन सच्‍चाई यह है कि यह चुनाव सीट दर सीट और राज्य दर राज्य अलग है। इसमें राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र में कोई एक मुद्दा या नेता नहीं है। राज्य और क्षेत्र बदलते ही मुद्दे और नेता बदल रहे हैं। इसलिए अकेले कोई बड़ी पार्टी बहुमत पा जाएगी, यह संभव नहीं लग रहा है। इसी तरह एनडीए या यूपीए में से किसी को बहुमत मिल जाएगा, यह कहना भी जल्दबाजी है। कांग्रेस पार्टी तो वैसे भी खुद 120 से 130 सीट पाने के लिए लड़ रही है। कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के एक वरिष्ठ नेता, जो केंद्रीय नेतृत्व के काफी करीब हैं, इस लेखक के साथ बातचीत में कहते हैं कि हम 120 सीट के करीब पाने के लिए लड़ रहे हैं। इस बार गैर एनडीए और गैर यूपीए दलों के पास काफी सीटें होंगी। भाजपा की कोशिश है कि यूपीए में हमारे सहयोगी दलों से बाहर रहने वाली पार्टियों की सीटें ज्यादा आएं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि पहले चरण के रुझान के बाद उत्तर प्रदेश में सीटों की स्थिति साफ होती जा रही है और यहां भाजपा की सीटें काफी घटेंगी। सभी तरफ चुनाव बाद की रणनीति पर भी काम चल रहा है। इसलिए जोर अधिक वोट जुगाड़ने के लिए कमजोर वर्ग को खुश करने पर है।

लेकिन इसके साथ ही सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या नीतिगत स्तर पर यह बदलाव केवल चुनावों में मतदान तक ही तो सीमित नहीं रह जाएगा। हालांकि ऐसा लगता नहीं है क्योंकि जिस तरह के नतीजे यह चुनाव देने जा रहा है, उसमें कोई गरीबों की हालत सुधारने और लोक कल्याण वाले देश की धारणा को बदलने की कोशिश नहीं करेगा। इसलिए 23 मई को नतीजे आने के बाद जो सरकार बनेगी, उसे रायसीना हिल के साउथ ब्लॉक और नार्थ ब्लॉक के दफ्तरों में नीतियों को बदलने की कोशिश करते ही दिखना होगा।

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