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आंकड़ों से डर लगे, साहेब!

एनएसएसओ और मुद्रा योजना में रोजगार के आंकड़े छुपा कर चुनावी नैया पार लगाना चाहती है सरकार
कहां है रोजगारः मुद्रा योजना लॉन्च करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

सत्ता में आने के लिए 2014 में नरेंद्र मोदी हर साल बड़े पैमाने पर रोजगार देने का वादा कर रहे थे, अब 2019 में राहुल गांधी बेरोजगारी की ऐतिहासिक दर पर मोदी सरकार को घेर रहे हैं। आखिर इन पांच साल में रोजगार के मुद्दे पर हुआ क्या है? हालात सुधरने की जगह कितने गंभीर हो गए हैं, इसका अंदाजा दो घटनाक्रम ही दे देते हैं। सरकार ने पहले नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएसओ) के 2017-18 के रोजगार आंकड़ों को जारी होने से रोका और अब श्रम ब्यूरो के मुद्रा योजना के तहत पैदा हुए रोजगार के आंकड़े भी जारी करने में देर कर रही है, जबकि प्रधानमंत्री तक इसी के हवाले से बड़े पैमाने पर रोजगार दिलाने का दावा करते रहे हैं। साफ है कि सरकार के दावों में खोट है इसलिए वह रोजगार के आंकड़े जारी करने से बच रही है।

आखिर इन आंकड़ों में ऐसा क्या है, जिससे सरकार को डर लग रहा है। इस डर को समझने के लिए आपको मोनिका शर्मा, विवेक सिंह और नितिन श्रीवास्तव का दर्द समझना होगा। लखनऊ के एक प्रतिष्ठित कॉलेज से 2016 में एमबीए कर चुकी मोनिका शर्मा पिछले तीन साल से एक अदद नौकरी का इंतजार कर रही हैं। लेकिन कुछ छोटे-मोटे ऑफर को छोड़ दें तो नौकरी मिल नहीं पाई है। ऐसा ही हाल चंडीगढ़ से 2013 में इंजीनियरिंग और 2016 में लखनऊ से एमबीए करने वाले विवेक सिंह का है, जो अपनी योग्यता के अनुसार अभी भी अच्छी नौकरी का इंतजार कर रहे हैं। मोनिका और विवेक की तरह देवरिया के रहने वाले नितिन श्रीवास्तव के पास प्रोफेशनल डिग्री तो नहीं है, लेकिन वह भी टैली और कंम्प्यूटर का डिप्लोमा कर नौकरी की तलाश में हैं।

दरअसल, आंकड़े भी बेरोजगारी का यही सच उद्‍घाटित करते हैं, भले सरकार उससे आंख चुराए। एनएसएसओ की जनवरी 2019 में लीक रिपोर्ट के मुताबिक देश में नोटबंदी के बाद बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई थी। जो 45 साल के सबसे उच्चतम स्तर पर थी। इसकी तस्‍दीक सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) की जनवरी और मार्च में आई रिपोर्ट भी करती है। अकेले 2018 में एक करोड़ लोगों ने नौकरियां गंवाई हैं। साल 2019 में भी यह सिलसिला थमा नहीं है। जनवरी में जहां बेरोजगारी दर 7.1 फीसदी थी, वह फरवरी में बढ़कर 7.2 फीसदी के स्तर पहुंच गई है। ऐसी ही गंभीर स्थिति अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2018 की रिपोर्ट भी बयां करती है। उसके अनुसार, अर्थव्यवस्था एक नई चुनौती का सामना कर रही है। बेरोजगारी दर पांच फीसदी के स्तर पर है। जबकि उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों में यह 16 फीसदी तक पहुंच गई है।

असल में यह स्थिति इसलिए खड़ी हुई, क्योंकि सरकार ने मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, मुद्रा योजना या फिर स्किल इंडिया जैसे जो कार्यक्रम चलाए, उसमें ठोस प्लानिंग और विजन का अभाव था। इसकी वजह से उम्मीद के अनुसार परिणाम अभी तक नहीं दे पाए हैं। नीति आयोग के स्ट्रेटेजी ऑफ न्यू इंडिया@75 विजन के अनुसार 2022 तक देश में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी जीडीपी में 25 फीसदी करनी है। लेकिन 2014-15 से लेकर 2017-18 की तुलना करें, तो मोदी सरकार के कार्यकाल में स्थिति में खास सुधार नहीं हुआ है। 2014-15 में जहां 16 फीसदी मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी थी, वह बढ़कर 2017-18 में केवल 16.6 फीसदी के स्तर पर पहुंची है। जबकि सरकार का लक्ष्य 2022 तक मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से 10 करोड़ नए लोगों को रोजगार देना है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नहीं के बराबर ग्रोथ से साफ है कि मेक इन इंडिया जैसी पॉलिसी ग्रोथ को सपोर्ट नहीं कर रहीं हैं, जिससे हर साल 80-90 लाख नए रोजगार सृजन करने की जरूरत पूरी नहीं हो पा रही है।

मोदी सरकार के लिए हाल ही में आए आइआइपी (इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन) और निर्यात के आंकड़े भी एक नई परेशानी खड़ी कर सकते हैं। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जनवरी 2019 में आइआइपी केवल 1.7 फीसदी की दर से बढ़ा है। जो इसी अवधि में साल 2018 के 7.5 फीसदी की तुलना में बेहद कम है। इसी तरह फरवरी 2019 में निर्यात में 2.44 फीसदी की ग्रोथ दर्ज की गई है। मोदी सरकार के पांच साल के कार्यकाल में औसत कृषि विकास दर केवल 2.6 फीसदी रही है। इन सबका असर ग्रोथ रेट पर सीधे तौर पर दिख रहा है। मोदी सरकार जब 2014-15 में सत्ता में आई थी तो जीडीपी ग्रोथ रेट 7.4 फीसदी के स्तर पर थी। जो 2016-17 में 8.2 फीसदी (विवादित) और 2018-19 में 7.0 फीसदी पर आने का अनुमान है, जो मोदी सरकार के कार्यकाल का किसी वित्त वर्ष में सबसे निचला स्तर होगा। ग्रोथ रेट पर पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम का कहना है, “तिमाही आंकड़ों ने सरकार की हवा निकाल दी है। ग्रोथ रेट पहली तिमाही के आठ फीसदी से गिरकर तीसरी तिमाही तक 6.6 फीसदी पर आ गई है। बेरोजगारी दर लगातार बढ़ रही है। श्रम भागीदारी लगातार घट रही है। यह स्थिति भाजपा सरकार की मानव निर्मित तबाही से हुई है।” आरबीआइ के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी ग्रोथ गिरने की बड़ी वजह नोटबंदी और जीएसटी जैसे झटकों को बताया था।

बेरोजगारी का मुद्दा मोदी सरकार की चुनावी संभावनाओं को ब्रेक लगा सकता है, इस मौके को विपक्ष ने भी भांप लिया है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी लगातार इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। चाहे संसद हो या फिर चुनाव रैलियों में वह हर जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हर साल दो करोड़ नौकरियां देने के वादे और नोटबंदी-जीएसटी से गई नौकरियों की याद दिलाते रहते हैं।

मोदी सरकार की सबसे प्रमुख योजनाओं में से एक मुद्रा योजना को अप्रैल 2015 में बड़े जोर-शोर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लांच किया था। इसका मकसद था छोटे कारोबारियों को बिना गारंटी के आसानी से कर्ज दिलाना। लेकिन अगर इसकी संकल्पना में जाएं तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2015-16 के बजट भाषण में मुद्रा बैंक लॉन्च करने का ऐलान किया था। पर, यह बाद में योजना के रूप में ही सामने आई। योजना के तहत मार्च 2018 तक 10 करोड़ से ज्यादा खाते खोले गए हैं। इनके जरिए करीब 4.72 लाख करोड़ रुपये के कर्ज दिए गए हैं। दस करोड़ खाते में से नौ करोड़ खाते 50 हजार रुपये तक के कर्ज लेने वालों के हैं। मोदी सरकार के लिए समस्या यहीं से शुरू होती है। ज्यादातर कर्ज बहुत छोटी राशि के हैं, ऐसे में रोजगार के अवसर खड़े होने की गुंजाइश कम है। साथ ही बढ़ती गैर निष्पादित संपत्तियां (एनपीए) एक नई परेशानी खड़ी कर रही हैं। साल 2016-17 में जहां मुद्रा लोन में एनपीए 3,790 करोड़ रुपये था, वह 2017-18 में बढ़कर 7,277 करोड़ रुपये हो गया है। यही नहीं बढ़ते एनपीए पर आरबीआइ ने चिंता जताई है। उसके अनुसार, मुद्रा लोन का एनपीए 11,000 करोड़ रुपये पहुंच सकता है। बैंकर जी.एस.बिंद्रा के अनुसार, “मुद्रा योजना में बिना कोलैट्रल (कर्ज के लिए गारंटी नहीं देनी पड़ती है) के कर्ज मिलता है। साथ ही सस्ते दर पर भी मिलता है। इसकी वजह से बहुत तेजी से कर्ज की रफ्तार बढ़ी है। लेकिन इसमें एक और पेच है। मुद्रा योजना के तहत दिए गए 90 फीसदी कर्ज 50 हजार से कम वाले हैं, ऐसे में बैंकों के लिए उन्हें ट्रैक करना आसान नही है।” अब योजना से रोजगार के अवसर पैदा होने की बात करें, तो यहां तस्वीर और साफ होती है। योजना के तहत अधिकतम 10 लाख रुपये तक का कर्ज लिया जा सकता है। छोटे कर्ज से रोजगार सृजन की संभावना बहुत कम है। पांच से 10 लाख रुपये (तरुण कैटेगरी) का कर्ज लेने वाले ही ज्यादा रोजगार सृजन कर सकते हैं। इस कैटेगरी में केवल 13.80 लाख लोगों ने कर्ज लिया है, जिसका कुल मुद्रा लोन प्रोफाइल में केवल 1.4 फीसदी हिस्सा है।

छोटे और मझोले उद्योग देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्र हैं। फेडरेशन ऑफ इंडियन माइक्रो ऐंड स्मॉल ऐंड मीडियम इंटरप्राइजेज के महासचिव अनिल भारद्वाज का कहना है, “नोटबंदी के बाद जो झटका लगा था, उससे अभी तक छोटे कारोबारी उबरे नहीं हैं। उस दौरान बड़ी संख्या में असंगठित क्षेत्र में लोगों की रोजी गई थी। उस दौरान जिनकी नौकरियां गईं, उनमें से ज्यादातर लोगों को दोबारा नौकरी नहीं मिली है।” यह स्थिति कितनी गंभीर बन चुकी है, इसे सीएमआइई के आंकड़ों से समझा जा सकता है। उसके अनुसार, देश में श्रम बाजार में आने वाले लोगों की संख्या लगातर घट रही है। फरवरी 2019 में यह आंकड़ा 42.7 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया है, जो कि जनवरी 2019 में 43.8 फीसदी के स्तर पर था। घटते आंकड़े पर सीएमआइई के मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ महेश व्यास का कहना है, “श्रमिकों की भागीदारी घटने का सीधा मतलब है कि जो लोग नौकरी पाने की उम्र में पहुंच गए हैं, वह नौकरियां नहीं ढूंढ़ रहे हैं। यह एक गंभीर मसला है। अगर कोई व्यक्ति नौकरी करने की उम्र में पहुंचकर नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर रहा है, तो इसका मतलब है कि लोगों को लग रहा है कि उन्हें अब नौकरी ढूंढ़ने पर नहीं मिलेगी।” (देखें महेश व्यास का इंटरव्यू)

बेरोजगारी की एक और बानगी देश में इंजीनियरिंग करने वाले छात्रों के प्लेसमेंट आंकड़ों से देख सकते हैं। ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन के अनुसार साल 2017-18 में करीब 19 लाख छात्र-छात्राओं का एनरोलमेंट था। इसमें से केवल 35 फीसदी यानी 6.72 लाख छात्र-छात्राओं को ही नौकरियां मिल पाईं। ऐसा हाल 2016-17 और 2015-16 में भी था। 2016-17 में 19.5 लाख में से 7.19 लाख छात्र और छात्राओं को नौकरियां मिलीं। इसी तरह 2015-16 में 21 लाख में से सात लाख को ही नौकरियां मिल पाईं। यानी मोदी सरकार के आने के बाद कमोबेश नौकरियों की स्थिति जस की तस है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आने के बाद से लगातार यह कहते रहे हैं कि हमारी सरकार नौकरी ढूंढ़ने वालों की जगह नौकरी देने वालों की फौज तैयार करेगी। इसी के मद्देनजर 16 जनवरी 2016 को स्टार्टअप इंडिया कार्यक्रम की शुरुआत की गई। योजना का उद्देश्य था कि नई सोच रखने वाले युवाओं को बिजनेस शुरू करने में सहूलियत दी जाए। इसमें कर्ज आसानी से मिलने से लेकर इंस्पेक्टर राज से मुक्ति और टैक्स छूट पाने का मौका शामिल था। लेकिन अगर तीन साल बाद की स्थिति देखें, तो जैसे दावे किए गए थे, वैसा हो नहीं पाया है। उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार की रिपोर्ट के अनुसार नवंबर 2018 तक देश में 14,036 स्टार्टअप आवेदनों को स्वीकृति देकर उन्हें स्टार्टअप का दर्जा दिया गया है। लेकिन उसमें से केवल 91 स्टार्टअप ही टैक्स बेनिफिट का फायदा ले पाए हैं। यही नहीं, स्टार्टअप के आवेदन की समीक्षा करने वाले अंतरमंत्रालयीय मीटिंग भी अब रेग्युलर नहीं हो रही है। अलवांस ग्लोबल सॉल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड के सीईओ मनन शाह का कहना है, “जैसे वादे किए गए थे, उससे जमीनी हकीकत अलग है। करीब 90 फीसदी स्टार्टअप फेल हो रहे हैं। दावा था कि इंस्पेक्टर राज से मुक्ति मिलेगी, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। कागजी कार्रवाई काफी ज्यादा है। कर्ज लेना आसान नहीं है।”

मोदी सरकार ने एक और योजना स्किल इंडिया को जुलाई 2015 में लॉन्च किया। इसके तहत 2022 तक 40 करोड़ लोगों को स्किल करने का लक्ष्य है। नेशनल स्किल डेवलपमेंट काउंसिल की रिपोर्ट के अनुसार फरवरी 2019 तक योजना के तहत लघु अवधि के पाठ्यक्रम के लिए 28 लाख लोग एनरोल किए गए। इसमें से 10.88 लाख लोगों को ही प्लेसमेंट मिल पाई है। यानी सक्सेज रेट 50 फीसदी से भी कम है। माना जाता है कि खराब परफॉर्मेंस की वजह से तत्कालीन मंत्री राजीव प्रताप रूड़ी को सितंबर 2017 में स्किल डेवलपमेंट ऐंड आंत्रप्रेन्योरशिप मंत्रालय से इस्तीफा तक देना पड़ा। साफ है कि रोजगार के मामले में सरकार का रिपोर्ट कार्ड अच्छा नहीं है। शायद चुनावी नैया आंकड़े छुपाकर पार करने पर सरकार भरोसा कर रही है।

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