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बादल अभी छंटे नहीं

पाकिस्तानी सीमा के अंदर हवाई हमले से 'नजरिए में बड़ा बदलाव', कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान घिरा
सुरक्षा पर मंथनः राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर अपने आवास पर उच्च-स्तरीय बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

ऐसा लगता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच पिछले महीने शुरू हुआ सशस्‍त्र टकराव का पहला दौर खत्म हो गया है। लेकिन इसे पाकिस्तान के अंदर आतंक पर नरेंद्र मोदी की लड़ाई का अंत नहीं माना जाना चाहिए। अगला दौर कब और कैसे शुरू होगा और यह कैसा होगा, इसे लेकर दिल्ली और बाकी राजधानियों के राजनैतिक और कूटनीतिक हलकों में चर्चाओं का बाजार गरम है। हालांकि, दो परमाणु संपन्न पड़ोसियों के बीच पूर्ण युद्ध की मजबूत संभावना बनी हुई है। यह न सिर्फ इस क्षेत्र, बल्कि अस्थिर दक्षिण एशिया के बाहर भी लोगों के लिए चिंता का गंभीर सबब बना हुआ है। पिछले महीने जो कुछ हुआ, उसका भारतीय रणनीतिकारों ने ‘परिप्रेक्ष्य में बदलाव’ के रूप में जिक्र किया है। 26 फरवरी की अल सुबह 12 मिराज 2000 लड़ाकू जेट विमानों और अवाक्स सहित भारतीय वायु सेना के अन्य विमानों ने पाकिस्तानी सीमा के अंदर उड़ान भरी और खैबर पख्तूनख्वा के बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के ठिकाने और प्रशिक्षण शिविर पर बमबारी की। यह निश्चित रूप से भारत के रणनीतिक सिद्धांत में विशेष तौर पर भविष्य में सीमा पार के आतंकी हमलों से निपटने के लिहाज से मूलभूत बदलाव था।

हवाई हमला पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर जैश-ए-मोहम्मद के फिदायीन हमले के 15 दिनों के भीतर किया गया था। अभी तक भारत अपने इलाके से ही पाकिस्तान के खिलाफ अभियान चलाता रहा है। लेकिन बालाकोट में आतंकवादियों के खिलाफ हवाई हमले के बाद भारत अपनी रक्षात्मक मानसिकता से बाहर निकला है। साथ ही, जंग आगे न बढ़े यह आश्वस्त करने के लिए भारतीय विदेश सचिव ने बड़ी सावधानी से बताया कि भारतीय वायु सेना का ऑपरेशन ‘असैन्य’ और ‘एहतियाती अभियान’ था।

कई पर्यवेक्षकों ने माना कि भारतीय ऑपरेशन का महत्व इस लिहाज से भी है कि यह आतंकी ढांचे को लक्ष्य बनाने के लिए नियंत्रण रेखा से 80 किलोमीटर दूर पाकिस्तानी क्षेत्र में घुसकर उसके ‘परमाणु हमले की ब्लैकमेलिंग’ को चुनौती देने में कामयाब रहा। लेकिन भारतीय कार्रवाई के 24 घंटे के भीतर पाकिस्तानी प्रतिक्रिया से पता चलता है कि वह इस तर्क को मानने के लिए तैयार नहीं था कि ऑपरेशन ‘असैन्य’ था। इसने यह संकेत भी दिया कि भविष्य में दोनों देशों के बीच सशस्‍त्र संघर्ष और अधिक गंभीर हो सकता है। भारतीय सीमा में घुसपैठ करने वाले पाकिस्तानी जेट को मार भगाने की कोशिश में भारतीय वायु सेना के पायलट अभिनंदन वर्धमान दुश्मन देश जा गिरे, क्योंकि उनका लड़ाकू विमान इस झड़प के दौरान क्षतिग्रस्त हो गया था। हालांकि, दावे और प्रति-दावे के बीच नियंत्रण रेखा से सटे भारतीय क्षेत्र में पाकिस्तानी प्रतिक्रिया के दौरान हुई क्षति का आकलन करना मुश्किल है। हालांकि, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारतीय वायु सेना के पायलट भारत को सौंपने को ‘शांति की पहल’ के रूप में बेचने की कोशिश की। लेकिन, भारतीय नेतृत्व इसके लिए तैयार नहीं था। कहा गया कि विंग कमांडर वर्धमान की वापसी युद्धरत दो देशों के बीच एक स्वीकृत मानदंड का हिस्सा थी और पाकिस्तान सौदेबाजी के रूप में भारत के खिलाफ इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता है। अब जबकि वर्धमान भारत में सुरक्षित वापस आ चुके हैं, तो दक्षिण एशिया के घटनाक्रमों पर नजर रखने वाले इंतजार कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में भारत और पाकिस्तान के बीच हालात क्या करवट लेते हैं।

यह भी स्पष्ट नहीं है, जैसा भारतीय सशस्‍त्र बलों का दावा है कि पाकिस्तान के खिलाफ यह अभियान कब तक चलेगा। पाकिस्तान से भी लगातार खबरें आ रही हैं कि उसने भारत की किसी भी चुनौती से निपटने के लिए अपने सशस्‍त्र बलों को पूरी सतर्कता पर रखा है। दिलचस्प है कि आधुनिक युद्ध में शायद ही कभी ‘युद्ध की घोषणा’ की जाती है। इसके कोई मायने नहीं हैं कि किस तरह के हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है और यह कितना लंबा खिंचता है। ऐसे में दो दुश्मन पड़ोसियों के बीच सशस्‍त्र टकराव को शायद ही ‘युद्ध’ का आधिकारिक टैग मिलता है। 1945 के बाद से अधिकांश देश आधिकारिक रूप से युद्ध की घोषणा से बचते रहे हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि जबसे औपचारिक घोषणा को युद्ध के लिए एक जरूरी कानूनी शर्त समझा जाने लगा और इसे राजनयिक और वाणिज्यिक संबंधों तथा अधिकांश संधियों को खत्म करने का आधार माना जाने लगा, तो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ऐसी घोषणाओं में कमी आई है। दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका में भी वाशिंगटन से लेकर मौजूदा सरकार तक, कांग्रेस और राष्ट्रपति ने पांच अलग-अलग युद्धों में विदेशी राष्ट्रों के खिलाफ केवल 11 औपचारिक घोषणाएं की हैं। लेकिन हेग और जिनेवा सम्मेलनों जैसे युद्ध के कानून सशस्‍त्र संघर्ष की परिस्थितियों पर लागू होते हैं। भले ही युद्ध की औपचारिक या आधिकारिक घोषणा की गई हो या नहीं। इसलिए, पाकिस्तान इन दोनों सम्मेलनों का हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते भारतीय वायु सेना के पायलट अभिनंदन वर्धमान को सौंपने के लिए मजबूर था।

भारतीय राजनयिक बताते हैं कि युद्ध की औपचारिक घोषणा के व्यापक मायने हैं और इसलिए अधिकांश देश इससे बचते हैं। इसका मतलब यह है कि एक बार युद्ध की औपचारिक घोषणा के बाद उसे ‘पूर्ण युद्ध’ के रूप में देखा जाता है, जिसमें किसी देश की थल, जल और वायु तीनों सेना शामिल होती हैं। इससे भी अहम है कि यह सभी जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति बंद करके आर्थिक नाकेबंदी और वाणिज्यिक संबंधों को खत्म कर दुश्मन देश की पूरी तबाही को अपना लक्ष्य बनाता है। भारत और पाकिस्तान ने 1947 के बाद से तीन लड़ाइयां लड़ी हैं। अधिकांश जम्मू-कश्मीर को लेकर। हालांकि, भारत तकनीकी रूप से 1971 के बाद से युद्ध में शामिल नहीं रहा है। पाकिस्तान की तरफ से करगिल में 1999 में सशस्‍त्र घुसपैठ के बाद का संकट 60 दिनों तक चला, जिसे ‘सशस्‍त्र संघर्ष’ का नाम दिया गया। वह युद्ध नहीं था। हालांकि, भारत और पाकिस्तान की तरफ से भारी गोलीबारी और वायुसेना का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन भारत द्वारा पाकिस्तानी घुसपैठियों से अपने इलाके को मुक्त कराने के बाद संघर्ष खत्म हो गया।

अतीत के इन घटनाक्रमों को ध्यान में रखते हुए, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भारत और पाकिस्तान के बीच सशस्‍त्र कटुता कब तक बनी रहेगी। हालांकि, अपनी-अपनी सेना के जरिए दबाव बनाने के साथ दोनों देश मौजूदा हालात से निपटने के लिए अन्य प्रयास भी कर रहे हैं। इसका एक दिलचस्प पहलू जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अजहर की मौत की अफवाह थी। अपुष्ट रिपोर्ट के मुताबिक, उसके कुछ वरिष्ठ कमांडर बालाकोट में भारतीय हवाई हमले में मारे गए। पाकिस्तान की रिपोर्टों में उसकी मौत से इनकार किया गया है, लेकिन उसके विदेश मंत्री महमूद कुरैशी ने सीएनएन को दिए हालिया साक्षात्कार में गंभीर रूप से बीमार अजहर के पाकिस्तान में होने की पुष्टि की है।  भारत ने लगातार अपनी यह स्थिति बनाए रखी है कि इस्लामाबाद के प्रति वह नरमी तभी बरतेगा जब वह अपनी सरजमीं से आतंकी ढांचे को खत्म कर दे।

ऐसी भी रिपोर्ट हैं कि पाकिस्तान ने कई आतंकी संगठनों और उनके ढांचे के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी है। पाकिस्तान में 5 मार्च को दहशतगर्द संगठनों से जुड़े मसूद अजहर के भाई अब्दुर्र रउफ सहित 44 लोगों को गिरफ्तार किया गया। अब्दुर्र रउफ कंधार अपहरण में शामिल था और जैश के बहावलपुर मदरसे का भी इंचार्ज है।

इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 18 मार्च को मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के लिए प्रस्ताव आएगा। यह प्रस्ताव फ्रांस ला रहा है। मुमकिन है कि प्रस्ताव पर मुहर भी लग जाए। इसे निश्चित रूप से भारत की जीत और पाकिस्तान तथा जैश-ए-मोहम्मद पर उसके अथक कूटनीतिक दबाव के नतीजे के रूप में देखा जा सकता है।

लेकिन क्या इससे अपनी सरजमीं से आतंकवादियों से निपटने में पाकिस्तानी नजरिए में कोई बदलाव आएगा, भारत और कई अन्य देशों के लिए यह एक बड़ा सवाल है। यही सवाल इस आशंका को खुला रखता है कि आगे भी कुछ हो सकता है।

बदला-बदला सा रवैया

लगता है कि कूटनीतिक घटनाओं ने अपना चक्र पूरा कर लिया है। मुस्लिम जगत की संयुक्त आवाज होने का दावा करने वाले 57 सदस्य देशों के ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (ओआइसी) ने भारत के बारे में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। अबूधाबी में पिछले सप्ताह आयोजित मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को सम्मानित अतिथि के तौर पर आमंत्रित करके उसने बड़ा कदम उठाया। इससे पता चलता है कि ओआइसी 50 साल पहले भारत के साथ हुए घोर अन्याय को सुधारना चाहता है। उसके इस फैसले से यह भी पता चलता है कि बदले वैश्विक परिदृश्य में इस्लामिक जगत में भारत और पाक को कैसे देखा जाता है। इसके बाद यह तथ्य और महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारतीय विदेश मंत्री को आमंत्रित किए जाने पर पाकिस्तान के विरोध को ओआइसी में किसी से भी समर्थन नहीं मिला। इससे स्पष्ट है कि कश्मीर पर अपने पारंपरिक नजरिए को एक तरफ रखकर ओआइसी के सदस्य देश भारत को पाकिस्तान के चश्मे से देखने को तैयार नहीं हैं।

ओआइसी का बदला रुख 1969 की स्थितियों के एकदम विपरीत है, जब मोरक्को की राजधानी रब्बात में पहला इस्लामिक सम्मेलन आयोजित हुआ था। वह सम्मेलन येरुसलम की पवित्र अल-अकसा मस्जिद पर हमले के तुरंत बाद हुआ था। उस समय ऑस्ट्रेलिया के एक कट्टरपंथी यहूदी नेता की अगुआई में मस्जिद को आग लगाने का भी प्रयास किया गया था। इस घटना के बाद मुस्लिम जगत के नेताओं ने पहले सम्मेलन का आयोजन किया। उस समय दुनिया के उन देशों को आमंत्रित किया गया था, जिनमें अधिकांश आबादी मुस्लिमों की थी या उनका राष्ट्राध्यक्ष कोई मुस्लिम था। उस समय कुल 54 करोड़ की आबादी में से छह करोड़ मुस्लिमों वाले भारत को सऊदी अरब के तत्कालीन किंग फैसल के सुझाव पर आमंत्रित किया गया था। उस समय सभी सदस्यों ने इस सुझाव का समर्थन किया। पाकिस्तान ने भी शुरू में इसका समर्थन किया।

भारत के तत्कालीन उद्योग विकास मंत्री (बाद में देश के राष्ट्रपति बने) फखरुद्दीन अली अहमद की अगुआई में राजनीतिक प्रतिनिधिमंडल के आने का इंतजार कर रहे मोरक्को में भारतीय राजदूत गुरबचन सिंह ने तब भारतीय दल के प्रमुख के तौर पर सम्मेलन में हिस्सा लिया। लेकिन भारत के राजनीतिक प्रतिनिधिमंडल के नई दिल्ली से रब्बात पहुंचने के बाद भारत और पाकिस्तान में तेजी से घटनाक्रम बदला। इससे आयोजकों का विचार बदल गया। सम्मेलन में भारत की हिस्सेदारी से पाकिस्तान में संभावित राजनीतिक भूचाल के बारे में वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति याहया खान को उनके अधिकारियों ने अवगत कराया। उसी समय अहमदाबाद में सांप्रदायिक दंगे भड़कने से भारत को सम्मेलन से बाहर रखने के लिए पाकिस्तान को दबाव डालने का बहाना भी मिल गया। आयोजकों पर दबाव डालने के लिए याहया खान ने रब्बात में अपने विला से बाहर आने से इनकार कर दिया। इसके बाद ईरान, तुर्की और जॉर्डन भी उसके समर्थन में आ गए।

पहले इस्लामिक सम्मेलन में ही इसके बिखरने की आशंका पैदा होने लगी, क्योंकि कई देश इसका बहिष्कार कर सकते थे। ऐसे में भारत से स्वतः ही हटने या सम्मेलन की आगे की कार्यवाही में अनुपस्थित होने का अनुरोध किया गया। जब फखरुद्दीन ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और तर्क दिया कि वह औपचारिक निमंत्रण मिलने पर ही सम्मेलन में शरीक होने आए हैं। इस पर सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे मोरक्को ने अनुरोध किया कि अगर भारत अपने रुख से पीछे नहीं हटेगा तो इससे इस्लामिक जगत के लिए बड़ी उलझन पैदा हो जाएगी। अंततः भारत को इससे अलग कर दिया गया और प्रस्ताव पारित करके दावा किया गया कि भारत का प्रतिनिधित्व उसके मुस्लिम समुदाय द्वारा किया गया, न कि सरकारी प्रतिनिधिमंडल द्वारा। मोरक्को के किंग हसन द्वितीय ने फिलस्तीन और भारत के मुस्लिमों के उत्पीड़न का भी उल्लेख किया। जैसी आशंका थी, इसके बाद भारत और ओआइसी के कई प्रमुख देशों के रिश्ते तनावपूर्ण रहे। मुख्य तौर पर कश्मीर मसले पर भारत के साथ उलझे पाकिस्तान का प्रभाव बढ़ने के कारण संगठन में भारत को किसी भी भूमिका से रोक दिया गया। इस मामले में भारत का हमेशा मानना रहा है कि ओआइसी का कश्मीर प्रस्ताव उचित नहीं है।

पिछले सप्ताह अबू धाबी में सम्मेलन को संबोधित करते हुए सुषमा स्वराज ने भारत में धार्मिक विविधता और अलग-अलग विचारों को सम्मान देने की परंपरा पर जोर दिया तो उनके पाकिस्तानी समकक्ष शाह महमूद कुरैशी भारत को सम्मेलन से अलग रखने की अपनी मांग को लेकर इस्लामाबाद में ही नाराज बैठे रहे, जबकि आयोजकों ने उनकी इस मांग को नजरंदाज कर दिया। लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खाड़ी देशों के साथ लगातार संपर्क बनाए रखा और अन्य इस्लामिक जगत के प्रमुख देशों ने इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में भारत के रिश्तों को मजबूती दिलाने में मदद की। आने वाले समय में इस्लामिक जगत के अपने सदस्य देशों की भारत पर और करीबी नजर रहेगी। भारत की विविधता और विकास की धारा में सभी धर्मों और मतों के लोगों को शामिल करने की खासियत का पहले के मुकाबले ज्यादा निगरानी होगी। ओआइसी के सम्मेलन में सुषमा के हिस्सा लेने पर कांग्रेस के विरोध को आगामी आम चुनाव के संदर्भ में समझा जा सकता है। जबकि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का जो कहना है, वही रुख कांग्रेस की पिछली सरकारों का रहा है।

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