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चूक, नाकामियां और सबक

पुलवामा हमले से उभरीं नई सुरक्षा चुनौतियां, सीमा पार व्यापक कार्रवाई सहित कई विकल्प खुले
सख्त उपायों की जरूरतः श्रीनगर में वाहनों की जांच करते जवान

जम्मू-श्रीनगर हाइवे पर चौदह फरवरी को विस्फोटकों से लदे वाहन के जरिए किए गए कायराना हमले के हमारी सीमा सुरक्षा की बाबत दूरगामी परिणाम होंगे। इस भयानक हमले ने सीआरपीएफ के 40 से अधिक बहादुर जवानों की जान ले ली, जो एक बस में सवार थे और ढाई हजार सुरक्षाकर्मियों के काफिले का हिस्सा थे।

लेकिन इस बेहद त्रासद घटना के बरक्स, ढांढस बंधाने वाली बात यह है कि इसने पूरे देश को एकता के एक सशक्त सूत्र में बांध दिया है। पूरा राष्ट्र, दलगत सीमाओं से ऊपर उठकर, शहीदों और उनके परिवारों के पीछे खड़ा है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि आज पूरा राष्ट्र बेचैन है और पाकिस्तान के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की मांग तेज हो गई है, ताकि पुलवामा की मौतों का सार्थक बदला लिया जा सके और जब-तब होने वाली आतंकी घटनाओं पर विराम लग सके। पिछले करीब तीन साल में दुश्मनों ने उड़ी, पठानकोट समेत कई आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया है।

जैसा कि अब पता चल रहा है, पाकिस्तान में अड्डा जमाए कुख्यात आतंकी संगठन जैश-ए-मुहम्मद को पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आइएसआइ की सीधी सरपरस्ती हासिल है, यहां तक कि चीन की हिमायत भी। लिहाजा, यह अहम हो जाता है कि हम चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देखें। समस्या का निदान करें, देखें कि क्या गलत हुआ और आगे क्या हो सकता है? वे कौन-से उपाय हो सकते हैं जो बाहरी ताकतों के हमलों से संपूर्ण सुरक्षा के लिए आश्वस्त कर सकें।

मौजूदा संदर्भ में एक बात बहुत प्रासंगिक मालूम पड़ती है और वह बार-बार सतह पर आती रही है, वह यह कि ढाई हजार जवानों के काफिले का सड़क-मार्ग से लंबा सफर करने का क्या तुक है? क्या यह अच्छा नहीं होता कि उन्हें विमान से ले जाया जाता? अगर इस सवाल का जवाब हां में है, तो वैसा क्यों न किया गया? हवाई यात्रा महंगी है, पर व्यापक सुरक्षा के तकाजे से ऐसा करना बुद्धिमानी-भरा कदम होगा। इसके क्रियान्वयन की राह में लागत का प्रश्न कभी भी आड़े नहीं आना चाहिए। सरकार के हवाई यात्रा का विकल्प चुनने से, सुरक्षाबलों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के दरम्यान, खतरा कम से कम रहेगा और उनका कीमती समय भी बचेगा। दूसरे, जैसा कि गृहमंत्री ने भी हाल में कहा है, जब इतना लंबा काफिला चल रहा होता है, तो उसी समय उसी सड़क पर गाड़ियों से नागरिक आवाजाही होने देने का कोई औचित्य नहीं है। पर अफसोस, कि ऐसा होने दिया गया।

एक और अहम मसला, जिस पर बात हो रही है, हमारी खुफिया एजेंसियों की नाकामी का है, कि वे खतरे को रोकने के लिए, कार्रवाई-योग्य जानकारी जुटाने और उसे साझा करने में नाकाम रहीं। घटना के फौरन बाद, खुद जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने खुफिया नाकामी की बात सीधे-सीधे स्वीकार की। उन्होंने इस पर दुख जताया कि हमले को विफल करने के लिए सटीक सूचनाएं नहीं थीं। पर लगता है यह बयान देने में कुछ जल्दबाजी की गई, अगर गर्द-गुबार के बैठने का इंतजार किया जाता, तो शायद अच्छा होता। 

लंबे समय तक खुफिया बिरादरी का सदस्य रह चुकने के बाद, मैं यह कह सकता हूं कि पक्की सूचनाएं इकट्ठा करना और उन्हें संबंधित महकमों को मुहैया कराना, जिनसे वे ठीक-ठीक और ठोस अर्थ निकाल सकें, हमेशा व्यावहारिक नहीं होता। ताजा मामले में, खुफिया जानकारी थी कि जैश-ए-मुहम्मद की एक गहन सर्वेक्षण टीम ने कश्मीर की यात्रा की, इस बात के भी संकेत मिले थे कि पिछले गणतंत्र दिवस के आसपास जैश ने भयानक हमलों की योजना बनाई थी। कौन जानता है कि एक बड़ी त्रासदी खुफिया संगठनों की मुस्तैदी के चलते टल गई!

खुफिया नाकामी को रेखांकित करने वाला राज्यपाल का अतिरंजित बयान कश्मीर के मोर्चे पर खुफिया संगठनों के, और खासकर जम्मू-कश्मीर पुलिस के खुफिया महकमे के मनोबल और उत्साह को कम कर सकता है। पिछले साल सितंबर में, राज्य के वरिष्ठ खुफिया अफसरों से पेशेवर और विस्तृत बातचीत में मैंने पाया कि खुफिया सूचनाएं इकट्ठा करने और साझा करने में वे जी-जान से जुटे हुए हैं। उम्मीद है कि वे जल्दबाजी में लगाए गए लांछन के बावजूद अपने काम पर ध्यान देते रहेंगे। राज्यपाल महोदय की बात करें, तो वे अपनी जवाबदेही से पल्ला नहीं झाड़ सकते, कि उनका खुफिया संगठन सुचारु रूप से काम नहीं कर रहा है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वह कारगर ढंग से काम करे, खासकर तब, जब राज्य में सीधे राज्यपाल का शासन है।

इस बीच, कार्रवाई के मद्देनजर होने वाली सीआरपीएफ की आवाजाही को पूरी तरह निरापद बनाने के सख्त उपायों पर विचार शुरू हो चुका है। इसमें विलंब नहीं होना चाहिए। खुफिया नाकामी को किनारे करते हुए, यह जानना प्रासंगिक है कि जांच एजेंसियां यह पता लगाने का गंभीरता से प्रयास कर रही हैं कि एसयूवी से ले जाए गए विस्फोटक की मात्रा कितनी थी, जिससे इतना घातक विस्फोट हुआ। विस्फोटक कहां से आया और हमले को अंजाम देने में क्या स्थानीय आतंकवादियों की भी मिलीभगत थी? इन प्रश्नों के जवाब तथ्यों पर प्रचुर प्रकाश डालेंगे।

इस बीच भारत ने पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए अपने कूटनीतिक हमले तेज कर दिए हैं। इस दिशा में पहला कदम है मोस्ट फेवर्ड नेशन यानी सर्वाधिक तरजीह-प्राप्त राष्ट्र का पाकिस्तान का दर्जा समाप्त कर देना। इससे पाकिस्तान को अलग-थलग और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से बाहर करने में मदद मिलेगी।

भारत जो दूसरा कदम पाकिस्तान को सबक सिखाने और उसे दुनिया की नजरों में गिराने के लिए उठा सकता है वह यह कि ‘फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ)’ की ‘ग्रे लिस्ट’ से पाकिस्तान को हटाने की पहल करना, जिसकी बैठक अगले हफ्ते पेरिस में होने वाली है। एफएटीएफ को चार अहम मामलों में प्रगति की समीक्षा करनी हैः आतंकवाद को मिलने वाली वित्तीय मदद और इसके खतरों का आकलन, सीमाशुल्क विभागों की रिपोर्ट, नगदी मुहैया कराए जाने के बारे में जानकारी और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों पर अमल। फौरी कदम के तौर पर, भारत ने पाकिस्तान से आने वाले माल पर सीमाशुल्क पहले ही बढ़ा दिए हैं। इस तरह का कदम पाकिस्तान को अलग-थलग करने में मददगार साबित होगा।    

 एक और सकारात्मक तथा हौसला बढ़ाने वाली बात यह है कि 16 फरवरी को अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन ने दो बार भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को फोन करके कहा कि वे आत्म-रक्षा के भारत के अधिकार का मजबूती से समर्थन करते हैं। यह बहुत ही आश्वस्तकारी संदेश है और यह भारत के उस रुख की पुष्टि है जिसके तहत पाकिस्तान की सीमा पर सटीक सर्जिकल कार्रवाई करने, बहावलपुर में मौजूद जैश-ए-मुहम्मद के आतंकी ढांचे को नष्ट करने तथा उसके सरगना मसूद अजहर का वजूद मिटाने के बारे में सोचा जा रहा है।

 इसमें कोई शक नहीं कि मसूद अजहर को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ और वहां की पूरी सरकार की सरपरस्ती हासिल है। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को धता बताते हुए अजहर को बचाने का चीन का निहायत बेतुका रुख भी चिंता का विषय है, जिस पर प्राथमिकता से विचार किया जाना चाहिए।

चीन की बाबत विस्तार से विचार करते हुए और खासकर जैश को उसके खुले समर्थन के मद्देनजर यह जरूरी लगने लगा है कि भारतीय़ खुफिया एजेंसियां चीन के उइगरों से संपर्क साधने और वहां उन पर ढाए जा रहे जुल्मों के खिलाफ उनकी लड़ाई में गुप्त कार्रवाई से उन्हें जोड़ने की सुचिंतित रणनीति तैयार करें। चीन के शिक्यांग प्रांत में उइगरों की आजादी और उनके मानवाधिकारों का दमन आम है, जहां मुस्लिम उइगर अलग और स्वतंत्र ‘पूर्वी तुर्किस्तान’ राज्य की मांग कर रहे हैं। अभी यह खयाली पुलाव लग सकता है, पर इसे अंजाम देना संभव है। यह जानना दिलचस्प होगा कि उइगरों के नेताओं ने पचास और साठ के दशक में भारत के राजनीतिक नेतृत्व से करीबी बना रखी थी, यहां तक कि वे तब के प्रधानमंत्री नेहरू और अन्य शीर्ष नेताओं के भी संपर्क में थे। कश्मीर में भी उइगरों की पैठ थी। एक बार उइगरों के हाथ खुल जाएं, फिर चीन को पता चलेगा कि आतंकवाद की चोट क्या होती है और मसूद अजहर के भयावह आतंकी कारनामे का क्या मतलब है।

पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए मित्र-शक्तियों से समर्थन पाने की भारत सरकार की कोशिशों के क्रम में जहां अमेरिका का सकारात्मक जवाब बोल्टन के फोन-कॉल के रूप में आया, वहीं इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने हरसंभव मदद की पेशकश की। बेंजामिन को अपने देश के लिए खतरा पैदा करने वालों से निपटने का काफी अनुभव है। फिर, इजरायल के साथ हमारे कामकाजी और खुफिया सहयोग के संबंध बहुत अच्छे हैं। जैश और मसूद अजहर को नेस्तनाबूद करने के लिए पाकिस्तान से निपटने की खुली और साझा कार्रवाई संभव है। रूसी नेता पुतिन ने भी सहयोग का भरोसा दिलाया है। ऐसे सभी संकेतों को पुलवामा का बदला लेने के लिए एक बड़े कदम की तरफ ले जाया जाए, ताकि इस तरह की आतंकी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके।

इसी तरह का एक और कूटनीतिक अवसर सामने दिख रहा है। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान पाकिस्तान के बहुत अहम दौरे पर आए थे। उनकी इस यात्रा का मकसद पाकिस्तान को आर्थिक दिवालियेपन से बचाना था। उनके अगले गंतव्य भारत को लेकर पहले से ही काफी सरगरमी है। पाकिस्तान कश्मीर में जैश के जरिए आतंक फैलाने से बाज आए, इसमें सऊदी क्राउन प्रिंस उपयोगी साबित हो सकते हैं और यह बात उनके गले उतारने में भारत को अपने कूटनीतिक प्रयासों में कोई कसर नहीं रखनी चाहिए। भारत के प्रति अपनी दोस्ती को साबित करने की मुहम्मद बिन सलमान के लिए यह सही कसौटी होगी। पाकिस्तान से उनके और उनके देश की चाहे जितनी पक्की दोस्ती हो, वे भारत के करीब आने की कोशिश कर रहे हैं। भारत की शिया आबादी सऊदी हुकूमत के खिलाफ है, क्योंकि वह वहाबीवाद को और यमन में हाउती विद्रोहियों पर होने वाले जुल्मों को बढ़ावा दे रही है, जिनमें बहुत-से बेगुनाह लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। इस मामले को उठाकर भी सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस पर दबाव बनाया जा सकता है।

इस बीच, कई सुरक्षा विश्लेषकों ने संकेत दिए हैं कि व्यापक रूप से सीमापार कार्रवाई संभव है। पूर्व एअर चीफ एसीएम फली मेजर, पूर्व सेना प्रमुख जनरल विक्रम सिंह, पूर्व उत्तरी सेना कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल हुड्डा और कई अन्य ने दुश्मन के ठिकानों पर मार करने तथा लक्ष्य को अंजाम देने (मिशन एकंप्लीश्ड) के लिए अनेक विकल्प सुझाए हैं। देश ऐसे सुनहरे पल का बेसब्री से इंतजार कर रहा है।

 (लेखक सेवानिवृत्त आइपीएस अधिकारी, सुरक्षा विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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