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युद्ध और अलगाव के घने बादल

पुलवामा हमले में खुफिया से लेकर कई तरह की सुरक्षा चूक, मगर भावनाओं के उबाल से युद्ध की आशंका
कार्रवाईः पिंगलाना इलाके में मुठभेड़, जिसमें कथित तौर पर हमले का मास्टरमाइंड गाजी मारा गया

चालीस वर्षीय आयशा बेगम उस वक्त अपने दो मंजिला घर की छत पर थीं, जब 14 फरवरी को उन्होंने तेज धमाका सुना। धमाका इतना तेज था कि उनका घर थर्रा उठा। वे बच्चों को आवाज लगाती हुईं तेजी से नीचे की ओर भागीं और उन्हें बाहर ले गईं। वे कहती हैं कि उन्होंने पहले कभी ऐसा धमाका नहीं सुना था। आइईडी धमाके के बाद फायरिंग भी हुई, जिसमें 40 से अधिक केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान शहीद हो गए। आयशा बेगम को पहले लगा कि लेठपुरा में श्रीनगर-अनंतनाग राजमार्ग पर सुरक्षा बलों और आतंकवादियों के बीच मुठभेड़ चल रही है। वे कहती हैं, “जब मैंने फायरिंग सुनी, तो मुझे लगा कि यह एक मुठभेड़ है। हम दक्षिण कश्मीर में राजमार्ग के पास ही रहते हैं और हम इसके आदी हैं।”

14 फरवरी को कार-बम धमाका 1989 के बाद से सबसे घातक आतंकवादी हमला है। 1989 के बाद ही कश्मीर में बड़े पैमाने पर सशस्‍त्र विद्रोह शुरू हुआ और पूरे राज्य में फैल गया। यह हमला ऐसे समय में हुआ है, जब देश आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमले के लिए पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने का वादा किया है। दोनों परमाणुशक्ति संपन्न देशों के बीच युद्ध की आशंका है, ऐसे में कश्मीर घाटी में लोगों का यह कहना चौंकाता है कि जंग हो जाने दो। लेठपुरा के टेंग मोहल्ला इलाके के युवाओं के एक समूह का कहना है, “यहां कोई भी दिन गोलीबारी, मुठभेड़ और जनाजों के बिना नहीं गुजरता। जंग हो जाने दो और एक बार में सभी का हल निकाल लो।” वे कहते हैं कि उन्होंने इन वर्षों में इतने सारे जनाजे देखे हैं कि मौत का खौफ ही खत्म हो गया है। एक और नौजवान कहता है, “मैं चाहता हूं कि अब एक जंग हो ही जाए।” पुलवामा के गंधीबाग गांव से ताल्लुक रखने वाले 19 वर्षीय जैश फिदायीन आदिल अहमद डार के पिता गुलाम हसन डार का कहना है कि उनके बेटे ने मार्च 2018 में घर छोड़ दिया था और तब से उसने सिर्फ एक बार परिवार से संपर्क किया। डार इस खतरनाक प्रवृति पर चिंता जताते हैं कि परिवारों को भी पता नहीं चलता कि उनके बच्चे क्या कर रहे हैं? वे कहते हैं, “मैं बस यह कह रहा हूं कि उसने कभी भी आतंकवाद से जुड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।” उसके कुछ दोस्तों का कहना है कि वह भारतीय क्रिकेट टीम का प्रशंसक था। हसन डार यह भी कहते हैं कि भारत और पाकिस्तान क्यों नहीं बातचीत से मुद्दे को सुलझा लेते हैं।

हाइवे का हवाला

लेठपुरा में एक युवक ने सीआरपीएफ की 185वीं बटालियन के कैंप की तरफ इशारा किया, जो हाइवे से महज डेढ़ किमी दूर वास्तुवन नाम के एक पहाड़ की तलहटी में है। 1 जनवरी 2018 की सुबह 16 वर्षीय जैश आतंकी और त्राल के एक पुलिस हेड कांस्टेबल का बेटा फरदीन खांडे सीआरपीएफ के शिविर में घुस गया और हमले को अंजाम दिया। इस हमले में सीआरपीएफ के पांच जवान शहीद हो गए। खांडे अक्टूबर 2017 में जैश में शामिल हुआ था। फरदीन ने हमले से पहले एक वीडियो में दावा किया था कि बेरोजगारी की वजह से आतंकवाद नहीं है, बल्कि यह “भारत द्वारा कश्मीर के अवैध कब्जे का जवाब है।” इसके अलावा, उसने कश्मीरी युवाओं और पूरे देश के मुसलमानों से भारत के खिलाफ लड़ाई में शामिल होने की अपील की। उसने मसूद अजहर और अफजल गुरु की तारीफ की थी।

1999 में जन्मे और पुलवामा के गंधीबाग गांव के रहने वाले आदिल अहमद डार ने अपनी इको गाड़ी से सीआरपीएफ की बस में टक्कर मारी थी। पुलिस सूत्रों का कहना है कि डार की गाड़ी अमोनियम नाइट्रेट से भरी थी और जिस बस में उसने टक्कर मारी वह सीआरपीएफ काफिले का हिस्सा थी। इस धमाके में 40 से अधिक जवान शहीद हो गए। पुलिस के मुताबिक, जैश आतंकवादी अनंतनाग-श्रीनगर राजमार्ग पर अवंतीपोरा में बाईं तरफ के बाईपास से घुसा और सीआरपीएफ के काफिले में शामिल हो गया। इस काफिले में 78 गाड़ियां थीं, जिसमें 2,547 जवान सवार थे। काफिला तड़के तीन बजे के आसपास जम्मू से रवाना हुआ था। लेठपुरा में आतंकवादी ने सीआरपीएफ की एक बस को ओवरटेक किया, जो काफिले में पांचवीं बस थी। उसने उस बस को उड़ा दिया, जबकि तेज धमाके की वजह से छठी बस क्षतिग्रस्त हो गई। इस धमाके में आरओपी के एक जवान की भी मौत हो गई। राजमार्ग के चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा बल तैनात हैं और लेठपुरा में जहां यह घटना घटी, वहां सीआरपीएफ की 10वीं बटालियन राजमार्ग से लगभग 100 मीटर दूर है। सेना का 50आरआर शिविर घटनास्थल से सिर्फ 400 मीटर की दूरी पर है। हाल के वर्षों में राजमार्ग पर सेना और अर्द्धसैनिक बलों की भारी तैनाती के बावजूद कई आतंकवादी हमले हुए हैं।

जून 2016 में लश्कर के आतंकवादियों ने सीआरपीएफ के काफिले पर हमला किया था। पंपोर के फ्रिसल गांव में छह वाहनों पर हमला किया गया था, जिसमें सीआरपीएफ के आठ जवान शहीद हो गए और 20 अन्य घायल हो गए। भीड़भाड़ वाले पंपोर का इलाका अब राजमार्ग का हिस्सा नहीं है। आतंकवादियों ने जुलाई 2017 में राजमार्ग पर अनंतनाग में बोटेंगो क्षेत्र में अमरनाथ यात्रियों को ले जा रही एक बस पर फायरिंग की, जिसमें सात यात्री मारे गए और 19 जख्मी हो गए थे। नया राजमार्ग बोटेंगो क्षेत्र को भी अलग कर रहा है।

पुलिस का कहना है कि आइईडी हमले के बारे में इनपुट थे, लेकिन “इस कदर होंगे” इसका अंदाजा नहीं था। पुलिस का कहना है कि खुफिया जानाकारी 10 से 20 किलोग्राम आइईडी के बारे में थी, लेकिन सूचना स्पष्ट नहीं थी। साथ ही, वह जानकारी कार बम वाले आत्मघाती हमले के बारे में नहीं थी। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है, “इस तरह का एक और हमला कश्मीर के लिए हालात बदलने वाला साबित हो सकता है। अगर यह अपनी तरह की पहली घटना होती है, तो ज्यादा कुछ नहीं बदलेगा।”

लेठपुरा में घटना के बाद पुलिस की चौकसी और चुस्ती

क्या है मानक प्रक्रिया

हमले के चार दिन बाद जब सुरक्षा बलों के काफिले चल रहे थे, तो सीआरपीएफ और सेना ने निजी वाहनों को राजमार्ग पर आने से रोक दिया। नोवागाम बाईपास पर ट्रैफिक का संचालन कर रहे सीआरपीएफ के एक जवान का कहना है कि हमले के बाद उन्हें निजी वाहनों को काफिले से दूर रखने के लिए लंबी लाठियां दी गई हैं। दूसरे जवान का कहना है, “हमें सिर्फ लाठियां दे दी गईं और कुछ भी नहीं बदला है।”

यहां तक कि सेना के जवान निजी और अन्य वाहनों को एक कतार में चलने के लिए लंबी लाठियों से इशारा कर रहे थे, क्योंकि श्रीनगर-अनंतनाग और श्रीनगर-बारामूला राजमार्ग पर भारी जाम और संभावित विरोध प्रदर्शन की संभावना थी। लोगों ने शिकायत की कि सेना के जवानों ने नरबल में उनके साथ बदसलूकी की।

सड़कों पर आइईडी का पता लगाने के लिए सुबह के समय तीन चक्रीय सुरक्षा एसओपी रोड ओपनिंग पार्टी (आरओपी) के साथ शुरू होती है। आरओपी दिन में किसी को भी काफिले के पास नहीं आने देता। दूसरा चक्र कॉरिडोर सुरक्षा का है, जहां सेना राजमार्ग के दोनों ओर लगभग 15 गज की दूरी तक जाकर पता लगाती है कि कहीं कोई आतंकी हरकत तो नहीं है। तीसरा सुरक्षा बलों की गहरी तैनाती का है, जिसमें सीआरपीएफ और सेना को आसपास के गांवों की जांच के लिए रखा गया है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व डीजीपी के. राजेंद्र के मुताबिक, 2000 में जब काफिला चलता था, तो दूसरे वाहनों को रोक दिया जाता था और रात में काफिला नहीं चलता था। वे कहते हैं कि 2,002 के बाद सड़कों पर पाबंदी हटा दी गई और रात में भी यातायात को मंजूरी दी गई, क्योंकि स्थिति में सुधार शुरू हो गया था। एक समय ऐसा भी आया, जब राज्य में आतंकवादियों की संख्या बहुत कम हो गई। वे कहते हैं, “अगर हम सभी निजी वाहनों की आवाजाही को रोकना शुरू करते हैं, तो लोगों को बहुत असुविधा होगी।”

पुलिस का कहना है कि एसओपी का पालन करने के बावजूद हमलों को रोकना मुश्किल है। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है कि आतंकवादियों को एक बार सफल होने की जरूरत पड़ती है, जबकि सुरक्षा बलों को हर दिन सफल होना पड़ता है। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि सुरक्षा बलों की आवाजाही के लिए बनिहाल से बारामूला तक विशेष चार्टर्ड ट्रेनों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “वे तेज गति से और जल्दी पहुंच सकेंगे और काफिलों की तुलना में ज्यादा सुरक्षित रहेंगे।” इस तरह राजमार्ग का इस्तेमाल आम लोग कर सकेंगे।

अफजल गुरु दस्ते पर संदेह

पुलवामा हमला अफजल गुरु की फांसी वाले दिन के आसपास हुआ है, इसलिए पुलिस का मानना है कि यह जैश-ए-मोहम्मद के अफजल गुरु दस्ते का काम हो सकता है। संसद हमले के दोषी अफजल गुरु को फरवरी 2013 में तिहाड़ जेल में फांसी देने के एक साल बाद जनवरी 2014 में कथित तौर पर अफजल गुरु दस्ते का गठन किया गया था। पुलिस का मानना है कि लेठपुरा हमले की योजना जैश के कमांडर राशिद गाजी ने बनाई थी, जो आइईडी धमाके में माहिर है। पुलिस सूत्रों के मुताबिक, अफगानिस्तान में प्रशिक्षित गाजी पिछले साल दिसंबर के मध्य में कश्मीर आया था। वह विशेष रूप से आतंकवादियों को प्रशिक्षित करने के लिए आया था। वे कहते हैं कि गाजी ने ही आदिल को कार बम धमाके को अंजाम देने के लिए प्रशिक्षित किया था। गाजी 18 फरवरी को पिंगलाना इलाके में एक अन्य आतंकवादी के साथ मुठभेड़ में मारा गया। मुठभेड़ में सेना का एक मेजर और चार सैनिक भी शहीद हो गए।

30 अगस्त 2003 को श्रीनगर के नूरबाग इलाके में जैश का चीफ ऑपरेशनल कमांडर गाजी बाबा मार दिया गया था। उसके बाद से जैश की गतिविधियां 14 साल तक ठंडी रही, लेकिन एक बार फिर वह कश्मीर में छा गया है। गाजी बाबा पहले हरकत-उल-मुजाहिदीन के साथ था और उसे जैश का मुख्य रणनीतिकार माना जाता था। 13 दिसंबर 2001 के संसद हमले के पीछे भी उसी का हाथ माना जाता है। हरकत-उल-मुजाहिदीन को “बड़े हमलों” को अंजाम देने के लिए 1990 के दशक में बनाया गया था। हरकत के आतंकवादियों ने दिसंबर 1999 में इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट 814 को हाइजैक कर लिया और उसे कंधार ले गए। इस घटना की वजह से मौलाना अजहर मसूद को रिहा करना पड़ा। अजहर को नए संगठन जैश-ए-मोहम्मद का प्रमुख चुना गया। आदिल अहमद डार ने अपने अंतिम संदेश में संसद पर हमले और आइसी-814 के हाइजैक का जिक्र किया।

जैश-ए-मोहम्मद ने अक्टूबर 2001 में श्रीनगर में जम्मू-कश्मीर के विधानसभा परिसर पर हमला किया। इसमें जैश के हमले का खास तरीका देखा गया। पहले विस्फोटकों से भरा टाटा सूमो मुख्य द्वार में घुसा और फिर जोर का धमाका हुआ। बाद में तीन आतंकवादियों ने इमारत में प्रवेश किया। हमले में तीन आतंकवादियों सहित 38 लोग मारे गए। गाजी बाबा की हत्या के बाद जैश कश्मीर के परिदृश्य से लगभग गायब हो गया। अब यह फिर से जिंदा हो गया है।

2017 में जैश-ए-मोहम्मद के 85 आतंकवादी मारे गए हैं, जिसमें उसके शीर्ष कमांडर मुफ्ती वकास, महमूद भाई, तल्हा रशीद, नूर मुहम्मद तांत्रे और उस्मान हैदर शामिल है। तल्हा रशीद की पहचान मसूद अजहर के भतीजे के रूप में की गई। उनमें से पांच नियंत्रण रेखा के पास मारे गए थे। 2018 में जैश के 49 आतंकवादी मारे गए। इनमें उस्मान हैदर सहित 46 विदेशी आतंकी थे। हैदर भी मसूद अजहर का ही भतीजा था।

राजिंद्र का कहना है कि तालिबान अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी को लेकर बातचीत कर रहा है। इसका सीधा असर कश्मीर में आतंकवादियों पर पड़ रहा है। उनका तर्क है कि कई आतंकवादी संगठन सोच रहे होंगे कि अगर तालिबान ने “शक्तिशाली अमेरिका को अफगानिस्तान से बाहर निकालने के लिए मजबूर किया, तो वह कश्मीर में क्यों नहीं हो सकता है।” हालांकि, उनका तर्क है कि तालिबान या आइएसआइएस की तरह जम्मू-कश्मीर में भूमि पर कब्जा नहीं हो सकता। लेकिन खतरा यह है कि कश्मीर में पाकिस्तान से वैचारिक-लॉजिस्टिक समर्थन लेने वाले कई लोग हैं। वे कहते हैं, “एक आइईडी” धमाके को व्यवस्था की संपूर्ण विफलता नहीं माना जा सकता है।

सरकारी नाकामी और चूक

2018 में लगभग 150 कश्मीरी आतंकवादियों सहित 256 से अधिक आतंकी मारे गए। पिछले दो दशकों में इस क्षेत्र में मारे गए आतंकियों की यह सबसे अधिक संख्या है। सेना ने इसे उल्लेखनीय साल के रूप में जिक्र किया है। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सबसे पहले मारे गए आतंकवादियों की संख्या पर सवाल उठाया। उमर कहते हैं कि उत्कृष्ट साल वह होगा, जब कोई भी युवक आतंक से नाता नहीं जोड़ेगा, कोई आतंकवादी नहीं मारा जाएगा और कोई सुरक्षाकर्मी मुठभेड़ों में अपनी जान नहीं गंवाएगा। उनका कहना है कि आतंकियों को मारने की मजबूरी को जश्न का मौका नहीं माना जाना चाहिए। कई जानकार उमर के विचारों से सहमत हैं। वे कहते हैं कि अगर पिछले साल 150 कश्मीरी आतंकवादी मारे गए, तो 190 ने आतंकवाद का दामन भी तो थामा और 300 अभी भी सक्रिय हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, “ये आतंकवादी अच्छी तरह से प्रशिक्षित नहीं हैं। उनमें से कुछ को यह भी पता नहीं है कि कैसे हथियार उठाया जाता है और वे चंद दिनों में ही मारे जाते हैं।” वे कहते हैं, “उनमें से कुछ ने आतंकवादी बनने के लिए हथियार छीने। अब वे जानते हैं कि कार या ट्रक भी हथियार है। इसलिए आपको बयानों में सावधान रहने की जरूरत है।”

हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ नेता मीरवाइज उमर फारूक का कहना है कि बातचीत ही एकमात्र समाधान है। उनका कहना है कि जब नरेंद्र मोदी सरकार बनी थी, तो वे उम्मीद कर रहे थे कि वह वाजपेयी के रास्ते पर चलेगी और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरू करेगी। मीरवाइज कहते हैं, “लेकिन, मौजूदा सरकार ने पूरी तरह से यू-टर्न ले लिया और सख्त नीति का सहारा लिया। सरकार ने कश्मीर में सैन्य शक्ति का इस्तेमाल किया। इसने हुर्रियत कॉन्फ्रेंस को दरकिनार कर दिया। आंदोलन शांतिपूर्ण और राजनीतिक था। लेकिन उससे निबटने के लिए बल प्रयोग किया गया। 2016 में सैकड़ों नौजवानों की हत्या की गई और सैकड़ों लोगों को अंधा कर दिया गया। इससे युवा बंदूक थामने पर मजबूर हुए। यह हमारे लिए दर्दनाक स्थिति है, क्योंकि हर दिन हमें इन युवकों के मृत शरीर मिलते हैं, जो मिलिटेंट नहीं हैं।” वे आगे कहते हैं, “सरकार के आंकड़ों के अनुसार, पिछले साल ही लगभग 260 आतंकवादी मारे गए। लगभग 100 आम लोग भी मारे गए और यह दुखद था कि 2018 का कुछ लोगों ने “महान वर्ष” के रूप में जिक्र किया। वह हमारे लिए जनाजों का साल था।” कई दूसरे जानकारों का भी मानना है कि बातचीत से ही समाधान निकलेगा।

 अंधे मोड़ पर पहुंचे हालात

पुलवामा हमले के बाद भारतीय सेना जब जैश आतंकियों पर एनकाउंटर की कार्रवाई कर रही थी। उस दौरान कई ऐसी घटनाएं घटीं, जो सोचने पर मजबूर करती हैं। मुठभेड़ में जहां जैश का आतंकी गाजी रशीद अपने दूसरे साथियों के साथ मारा गया। वहीं इस कार्रवाई में भारतीय सेना का एक मेजर, तीन सिपाही और जम्मू-कश्मीर पुलिस का एक जवान शहीद भी हो गया। लेकिन इस दौरान सेना की इस भीषण कार्रवाई को रोकने के लिए पत्थरबाज भी एनकाउंटर वाली जगह पर लगातार कार्रवाई में अवरोध डालने की कोशिश करते रहे। उनके इस कदम से साफ है कि कैसे स्थानीय लोगों का सेना से अलगाव है।

लोगों के इस रुख पर विशेषज्ञों का कहना है कि कश्मीरियों के इस विरोध की वजह केंद्र सरकार की नीतियां हैं। कश्मीर में बड़े पैमाने पर लोगों का मानना है कि पिछले पांच साल में भारतीय जनता पार्टी ने देश के दूसरे हिस्सों में अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए उनका इस्तेमाल किया है। हुर्रियत नेता मीरवाइज उमर फारूक कहते हैं, “इस समय कश्मीर में ऐसे हालात हैं कि आप राजनैतिक स्तर पर अपनी बात नहीं बोल सकते हैं। अगर कोई ऐसा करता है, उसके खिलाफ पब्लिक सेफ्टी कानून के तहत कार्रवाई कर दी जाती है या फिर उसे एनआइए तिहाड़ जेल पहुंचा देती है। माहौल ऐसा हो गया है कि अगर कोई कम उम्र का नौसिखिया आतंकवादी भी मारा जाता है तो उसे बहुत बड़ी उपलब्धि बताया जाता है।” एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया, “सच्चाई यह है कि भाजपा ने उदारवादी और चरमपंथी अलगाववादियों को एक होने का मौका दिया है। इन परिस्थितियों का ही परिणाम है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी एक पाले में दिखते हैं और उन्हें पूरा देश शक की नजर से देखता है।”

हालांकि भाजपा के नेता कश्मीर को कानून-व्यवस्‍था की सामान्य समस्या के रूप में देखते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि कश्मीर के एक बड़े तबके के दिमाग में यह बात फिर से बैठ गई है कि अब उनके अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठन न केवल अनुच्छेद 370 और 35ए खत्म करने की बात करते हैं, बल्कि वे इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुके हैं। ऐसे में कश्मीर के लोगों को खास तौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों के लोगों को इस बात का डर है कि दोनों अनुच्छेद खत्म कर दिए जाएंगे, जिससे उन्हें विशेष दर्जा मिलता है। उन्हें लगता है कि विशेष दर्जा खत्म होने के बाद वे अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन जाएंगे। अनुच्छेद 35ए जम्मू-कश्मीर विधायिका को यह अधिकार देता है कि वह स्थायी निवासी की परिभाषा तय करे। इस अधिकार के विरोध में गैर-सरकारी संगठन ‘वी द सिटिजंस’ ने साल 2014 में याचिका दायर की कि अनुच्छेद 35ए असंवैधानिक है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह अनुच्छेद संसद की मंजूरी लिए बिना राष्ट्रपति द्वारा अलग से जारी किए गए आदेश पर लागू किया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस गैर-सरकारी संगठन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन है।

इसी तरह 2015 में पश्चिमी पाकिस्तान (जब बंग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान कहलाता था) से आए शरणार्थियों ने भी अनुच्छेद 35ए के विरोध में एक याचिका दायर कर दी। इसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 35ए की वजह से पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को पाक अधिकृत कश्मीर में रहने वाले शरणार्थियों की तरह मतदान का अधिकार नहीं मिलता है। बाद में दो महिलाओं डॉ. चारु वली खन्ना और सीमा राजदान ने भी अनुच्छेद के खिलाफ याचिका दायर कर दी। याचिका के अनुसार अनुच्छेद लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देता है। उनका कहना है कि उनके पास साक्ष्य है कि उनके पूर्वजों ने अफगान युद्ध (1752 -1819) के दौरान कश्मीर छोड़ दिया था। ऐसे में उनका भी हक राज्य के निवासी के रूप में बनता है। इन सबसे पिछले कुछ दिनों में राज्य में जो माहौल बना है, उससे कश्मीरियों में एक डर पैदा हो गया है। हालात इस हद तक बुरे हो गए हैं कि वे सरकार के खिलाफ हथियार लेकर खड़े हो गए हैं। पिछले पांच साल में भाजपा की तरफ से कश्मीर के लोगों को संदेश गया है कि आपको पूरी तरह से हमारे अनुसार रहना होगा। यहां तक कि पैलेट गन से जो पीढ़ी अंधी हो गई है वह भी कार्रवाई उचित थी। ऐसे माहौल में कश्मीरी खुद को ऐसे मोड़ पर खड़ा पाता है जो आगे जाकर बंद है। ऐसे अलगाव की वजह से ही यह संकट भयावह होता जा रहा है।

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