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आंकड़े झूठ नहीं बोलते, गंभीर है नौकरियों का संकट

सरकार का दावा है कि रोजगार को लेकर पर्याप्त ‘अच्छे’ आंकड़े नहीं हैं, हालिया उपलब्ध रोजगार के आंकड़ों में सभी नौकरियों को शामिल किया गया है, जबकि सरकार का दावा इसके उलट है
रोजगार संकट

सरकारी दावों के उलट मैं कुछ महीनों से लिख रहा हूं कि ऐसे बहुत से आंकड़े उपलब्ध हैं, जो बताते हैं कि बेरोजगारी बहुत अधिक है और यह बढ़ती ही जा रही है। शिक्षित बेरोजगारी की स्थिति भयावह हो गई है, क्योंकि युवाओं को बेहतर शिक्षा मिल रही है और वे कृषि की जगह उद्योगों और सेवा क्षेत्र में नौकरी करना चाहते हैं। मैंने यह आकलन देश के परिवारों के सर्वेक्षणों (वार्षिक सर्वे, लेबर ब्यूरो 2015-16, भारत सरकार) के अपने विश्लेषण के आधार पर किया है। इसका सैंपल साइज नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) के पंचवर्षीय रोजगार-बेरोजगार सर्वे के बराबर या उससे अधिक है। मैं सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) के आंकड़ों का भी इस्तेमाल कर रहा था, जो 2016 से उपलब्ध हैं। सीएमआइई का सैंपल साइज लेबर ब्यूरो के वार्षिक सर्वे और एनएसएसओ सर्वे से अधिक है।

मैंने जिन दोनों सर्वे का इस्तेमाल किया है, उसमें ग्रामीण और शहरी, संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के रोजगार शामिल हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो इसमें ईपीएफओ/एनपीएस (संगठित) के साथ-साथ ऐसे रोजगार भी हैं, जो मुद्रा लोन या ओला-उबर वगैरह से पैदा हो सकते हैं। बाद के दोनों स्रोत ठीक वही हैं, जिसे लेकर सरकार का ठीक-ठीक यही दावा है कि रोजगार के जो आंकड़े हैं, उसमें इन दोनों को शामिल नहीं किया गया है। सरकार का दावा है कि रोजगार को लेकर पर्याप्त ‘अच्छे’ आंकड़े नहीं हैं। मैंने बार-बार कहा है कि सरकार के इस दावे को बिलकुल नहीं माना जा सकता है। इसकी वजह पहले ही बताई जा चुकी है कि हालिया उपलब्ध रोजगार के आंकड़ों में सभी नौकरियों को शामिल किया गया है, जबकि सरकार का दावा है कि इन्हें शामिल नहीं किया गया था।

एनएसएसओ के ताजा लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस 2017-18) के हालिया लीक आंकड़ों (बिजनेस स्टैंडर्ड, 31 जनवरी 2019) में रोजगार/बेरोजगारी की वही प्रश्नावली और परिभाषा का उपयोग किया गया है, जो किसी भी सरकार के दावों को पुख्ता करने के लिए एनएसएसओ के पहले के सर्वे में होते थे। एनएसएसओ के 2017-18 के आंकड़ों से साफ है कि वास्तव में रोजगार की स्थिति और भी विकट है। मैंने पहले भी कहा था कि 2011-12 के बाद ओपन अनएम्प्लॉयमेंट (ऐसी स्थिति जब लोगों के पास करने के लिए कोई काम न हो) की दर बढ़ी है। हालिया लीक आंकड़ों से भी यह साबित होता है।

लीक आंकड़ों से पता चलता है कि 1977-78 और 2011-12 के बीच ओपन अनएम्प्लॉयमंट दर कभी भी 2.6 फीसदी से अधिक नहीं थी। 2017-18 में यह बढ़कर 6.1 फीसदी हो गई। इसमें कोई हैरानी नहीं कि पिछले 10-12 वर्षों में अधिक युवा शिक्षित हुए हैं। इस दौरान उच्च शिक्षा में नामांकन दर (18-23 वर्ष के लिए) 2006 की 11 फीसदी से बढ़कर 2016 में 26 फीसदी हो गई। 15 से 16 वर्ष के बच्चों की सकल माध्यमिक (9-10 कक्षा के लिए) नामांकन दर 2010 में 58 फीसदी से बढ़कर 2016 में 90 फीसदी हो गई। ऐसे युवा खेती के बजाय किसी उद्योग या सेवा क्षेत्र में नौकरी की उम्मीद करते हैं। उनके पास इस स्तर तक की शिक्षा हासिल करने के वित्तीय साधन हैं, तो वे बेरोजगार रहने का ‘जोखिम’ भी उठा सकते हैं। गरीब लोग जो बहुत कम पढ़े-लिखे हैं, उनके पास ओपन अनएम्प्लॉयमेंट को झेलने की क्षमता और कम होती है। यही वजह है कि ओपन अनएम्प्लॉयमेंट की दर कम है।

लीक आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि जैसे-जैसे ओपन अनएम्प्लॉयमेंट दर में वृद्धि होती है, तो लेबर फोर्स से बाहर होने पर लोगों में हताशा बढ़ती जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे काम की तलाश बंद कर देते हैं। भले ही उनकी उम्र (15 साल से अधिक) काम करने की होती है। नतीजतन, सभी उम्र के लोगों की लेबर फोर्स की भागीदारी दर 2004-05 में 43 फीसदी से घटकर 2011-12 में 39.5 फीसदी और 2017-18 में 36.9 फीसदी हो गई। यह उन युवाओं की बढ़ती संख्या को दिखाता है, जो न शिक्षा और न ही रोजगार या प्रशिक्षण हासिल कर रहे हैं। यह हमारी आबादी का लाभांश है, लेकिन जैसा लग रहा है कि जनसांख्यिकी त्रासदी भी है। सरकार के अर्थशास्त्रियों की ओर से कहा जाता है कि रोजगार को लेकर कोई संकट नहीं है। हाल तक प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रहे सुरजीत भल्ला अपने रोजगार आकलन के आधार (जैसे 5 जनवरी 2019 को) पर दोहराते रहे कि रोजगार की धीमी वृद्धि के बारे में चिंता की जरूरत नहीं है। हालांकि, मुख्य और सहायक दोनों स्थितियां निम्नलिखित बातें बताती हैं। (देखें तालिका)

समग्र श्रमशक्ति 1.2 करोड़ प्रति वर्ष के हिसाब से नहीं बढ़ रही है। भारतीय इतिहास में श्रमशक्ति (1980 के दशक की शुरुआत में बेबी बूम के कारण 1999-2000 से 2004-05 को छोड़कर) 1.2 करोड़ की दर से कभी नहीं बढ़ी। यह 2004-05 और 2011-12 के दौरान 21 लाख प्रति वर्ष और 2011-12 के बाद की अवधि के दौरान लगभग 24 लाख प्रति वर्ष हो गया था। 2004 के बाद रोजगार में तेज गिरावट की वास्तविक वजह स्कूल नामांकन में तेजी से वृद्धि है। इसका कारण है कि 15 साल से अधिक उम्र के बच्चे श्रमबल में गिने जा सकते हैं, यदि वह स्कूल में दाखिल न हों तो। वर्ष 2011-12 तक ओपन अनएम्प्लॉयमेंट लगभग एक करोड़ था, लेकिन 2015-16 तक यह 1.65 करोड़ हो गया। 2011-12 के बाद ओपन अनएम्प्लॉयमेंट में वृद्धि से पता चलता है कि इस अवधि से पहले जो लोग स्कूली शिक्षा हासिल कर रहे हैं, वे गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार की तलाश करेंगे, लेकिन रोजगार नहीं मिलेगा। हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि 2017-18 तक यह स्थिति और बदतर हो गई। इससे शिक्षितों की बेरोजगारी दर में तेज वृद्धि (वार्षिक सर्वे, श्रम ब्यूरो के हमारे अनुमानों के आधार पर) का पता चलता है। माध्यमिक शिक्षा हासिल करने वालों की बेरोजगारी दर 2011-12 में 0.6 फीसदी से बढ़कर 2016 में 2.4 फीसदी हो गई। इसी अवधि में 10वीं की शिक्षा हासिल करने वालों की बेरोजगारी दर 1.3 फीसदी से 3.2 फीसदी, 12वीं पास की दो फीसदी से 4.4 फीसदी, स्नातकों की 4.1 फीसदी से बढ़कर 8.4 फीसदी और स्नातकोत्तर की बेरोजगारी दर 5.3 फीसदी से बढ़कर 8.5 फीसदी हो गई। इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि तकनीकी शिक्षा हासिल करने वाले स्नातकों की बेरोजगारी दर 6.9 से 11 फीसदी, स्नातकोत्तरों की 5.7 फीसदी से 7.7 फीसदी और व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षितों की 4.9 फीसदी से बढ़कर 7.9 फीसदी हो गई। यानी आप जितना अधिक शिक्षित हैं, उतना ही बेरोजगार रहने की संभावना है।

भल्ला को लगता है कि कृषि सहित तमाम तरह के रोजगार एक मूल्यवान “रोजगार” हैं। भारत का विकास जिस स्तर पर है, उस हिसाब से एक अर्थव्यवस्था के लिए कृषि में श्रमिकों की वृद्धि (जो 1999-2004 में हुई) ढांचागत खामी है। यह अपेक्षा के विपरीत वृद्धि है। भारत के आर्थिक इतिहास में 2004-05 और 2011-12 के दौरान कृषि में श्रमिकों की संख्या में तेजी से गिरावट आई, जो अच्छा है। हालांकि, तब तक कृषि में पूरी तरह काम करने वालों की संख्या बढ़ चुकी थी। (भले ही खेती में रोजगार का हिस्सा धीरे-धीरे कम हो रहा था)। इसी तरह कृषि क्षेत्र में काम करने वाले युवाओं (15-29 वर्ष) की संख्या 2004-05 और 2011-12 के बीच गिरकर 8.68 करोड़ से 6.09 करोड़ (या 30 लाख प्रति वर्ष की दर) हो गई। 2012 के बाद 2015-16 तक कृषि में युवाओं की संख्या बढ़कर 8.48 करोड़ और यहां तक कि उससे ज्यादा बढ़ गई। (सीएमआइई के आंकड़े इसे सत्यापित करेंगे)। जाहिर है कि भल्ला इन बारीकियों से अनभिज्ञ हैं। हाल के वर्षों में रोजगार में वृद्धि 2004 से 2014 की तुलना में कम है।

भल्ला का दावा है कि 2004-05 से 2011-12 के दौरान केवल 14 लाख रोजगार दिए गए। उनका दावा बेहद सरल है। जब आप सभी क्षेत्रों में होने वाले रोजगार वृद्धि में से कृषि छोड़ने वालों को घटाते हैं, तो यह सही बैठता है। हम विकास के जिस दौर में हैं, वैसे में भारत के लिए ज्यादा अहम गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि है। उस अवधि के दौरान कुल 5.12 करोड़ या 73 लाख सालाना गैर कृषि रोजगार सृजित हुए, जो बहुत सराहनीय और आशाजनक भी है। इसके विपरीत, 2012 के बाद 2016-17 तक गैर-कृषि रोजगार केवल 12 लाख प्रतिवर्ष  (या कुल 48 लाख) सृजित हुए। 2017-18 तक 17.5 लाख प्रति वर्ष (कुल 35 लाख) रोजगार सृजित होने की संभावना थी।

सबसे अधिक चिंता की बात है कि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में रोजगार 2011-12 में 5.89 करोड़ से घटकर 2015-16 में 4.83 करोड़ हो गए। यानी चार साल की अवधि में 1.6 करोड़ से अधिक। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में धीमी गति से वृद्धि (आइआइपी, जिसमें मैन्युफैक्चरिंग, खनन, बिजली शामिल हैं) के साथ यह धीमी रोजगार वृद्धि लागातार बनी हुई है। आइआइपी में वृद्धि 2004-05 में 100 से बढ़कर 2013-14 (2004-05 सीरीज में) तक 172 हुई थी और (2011-12 में बाद की सीरीज में 100) 2013-14 में केवल 107 हुई थी। 2017-18 में यह बढ़कर महज 125.3 हुआ। हाल में अन्य संकेतकों ने धीमी औद्योगिक उत्पादन की ओर इशारा किया है। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में रोजगार में गिरावट भारतीय अर्थव्यवस्था में अवरूद्धजनक बदलाव का संकेत है।  शिक्षित युवाओं (15-29 आयु वर्ग) की संख्या में वृद्धि बेहद दुखद है, जो “रोजगार, शिक्षा और प्रशिक्षण (एनईईटी)” में शामिल नहीं हैं। इस संख्या में (जो 2004-05 में 7 करोड़ थी, देखें तालिका) 2004-05 और 2011-12 के बीच 20 लाख प्रति वर्ष वृद्धि हुई। लेकिन 2011-12 से 2015-16 के दौरान 50 लाख प्रति वर्ष वृद्धि हो रही थी। अगर बाद वाला रुझान जारी रहा तो हमारा अनुमान है कि 2017-18 में यह 11.56 करोड़ हो जाएगा।

ये एनईईटी और बेरोजगार युवा भविष्य की श्रमशक्ति को दर्शाते हैं, जिसका उपयोग देश के मानव संसाधन विकास को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। भल्ला का दावा, “तथाकथित रोजगार संकट का एक बड़ा कारण सरकारी नौकरियों की मांग है, न कि जैसा बताया जा रहा है। इसलिए यह आधारहीन है। रोजगार की कमी एक वास्तविक संकट है। एनईईटी की संख्या चार वर्षों (2011-12 से 2015-16) में ही दो करोड़ से अधिक बढ़ गई है। साथ ही, श्रमशक्ति में वास्तविक वृद्धि एक करोड़ हुई है। दूसरे शब्दों में कहें, तो भारत को पिछले चार वर्षों में हर साल कम-से-कम 75 लाख नए गैर-कृषि रोजगार सृजित करने चाहिए थे। (जो भारत 2004-05 से 2011-12 के बीच करने में सफल रहा था)। लेकिन इसने केवल 22 लाख रोजगार ही सृजित किए। इसमें कृषि छोड़ने के इच्छुक कृषि श्रमिकों के लिए जरूरी गैर-कृषि रोजगार शामिल नहीं हैं। पिछले कुछ वर्षों में निर्माण क्षेत्र (कंस्ट्रक्शन) में तेजी से गिरावट की वजह से इस संख्या में गिरावट आई है।

अगर सरकार रोजगार की समस्या को समझने के लिए तैयार नहीं है, तो इसके समाधान के लिए कुछ करने की शायद ही कोई संभावना है। और, हमें बहलाने के लिए कि रोजगार का कोई संकट नहीं है, वह ईपीएफओ आंकड़े (जैसा कि यह अपर्याप्त है) और मुद्रा लोन पर भरोसा करती रहेगी। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि 1 फरवरी को वित्त मंत्री के बजट भाषण में एक बार भी “रोजगार” का जिक्र नहीं किया गया।

(लेखक जेएनयू में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर और सेंटर फॉर लेबर के चेयरपर्सन हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं

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