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आंकड़ों पर भरोसा टूटा तो अंधे हो जाएंगे

अर्थव्यवस्था के जो आंकड़े लोगों के सामने आएं, उन पर किसी तरह का कोई संदेह न हो इसके लिए राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग का गठन किया गया, लोगों को भरोसा हो कि आंकड़ों में किसी तरह का गैर-वाजिब राजनैतिक हस्तक्षेप नहीं हो रहा है, लेकिन शायद अभी ऐसा नहीं है
चीफ स्टैटेशियन रह चुके प्रणब सेन

देश की इकोनॉमी को समझने, निवेश की संभावनाओं और विकास नीतियों को बनाने में आंकड़ों की बेहद अहमियत होती है। लेकिन इन आंकड़ों को जुटाने और उनका विश्लेषण करने वाला तंत्र ही इस समय विवादों में घिर गया है। कभी उन्हें सार्वजनिक न करने पर सवाल उठ रहे हैं तो कभी उसमें छेड़छाड़ की बात सामने आ रही है। इस पूरे विवाद के केंद्र में इस समय केंद्र सरकार का राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग है। आंकड़ों की विश्वसनीयता क्या मायने रखती है और उस पर भरोसा डगमगाना कितना खतरनाक है, इस पर देश के चीफ स्टैटेशियन रह चुके प्रणब सेन से आउटलुक हिंदी के एसोसिएट एडिटर प्रशांत श्रीवास्तव ने बातचीत की है। कुछ अंशः

राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो सदस्यों ने अचानक इस्तीफा दे दिया है। आप इसे किस तरह से देखते हैं?

यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आयोग के जो स्वतंत्र सदस्य थे, उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि उनके सामने ऐसी परिस्थितियां बन गईं जिससे उन्हें ऐसा कदम उठाना पड़ा। उनका आरोप है कि सरकार उनकी अनदेखी कर रही थी, जिस कारण से आयोग के उद्देश्यों पर वे अमल नहीं कर पा रहे थे। यह बहुत गंभीर बात है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के गठन का उद्देश्य क्या था?

आयोग का गठन ही इसलिए किया गया था कि अर्थव्यवस्था के जो आंकड़े लोगों के सामने आएं, उन पर किसी तरह का कोई संदेह न हो। लोगों को भरोसा हो कि आंकड़ों में किसी तरह का  गैर-वाजिब राजनैतिक हस्तक्षेप नहीं हो रहा है। लेकिन शायद अभी ऐसा नहीं है।

आपको क्यों लगता है कि अभी राजनैतिक हस्तक्षेप हो रहा है?

देखिए, पहले जब जीडीपी के आकंड़ों को बैक-सीरीज के आधार पर जारी किया गया तो उसे नीति आयोग ने प्रेस काॅन्फ्रेंस कर सार्वजनिक किया, जबकि यह काम केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय का था। इसी तरह अब रोजगार पर जो सर्वेक्षण किया गया है, वह रिपोर्ट जारी नहीं की गई। इससे साफ है कि केंद्रीय सांख्यिकी आयोग के अधिकारों को नजरअंदाज किया जा रहा है।

आयोग के कार्यवाहक चेयरमैन पी.सी. मोहनन ने आरोप लगाया है कि रोजगार पर तैयार रिपोर्ट को सार्वजनिक करने में देरी हो रही है।

आमतौर पर जो परंपरा रही है उसमें किसी रिपोर्ट को आयोग की मंजूरी के बाद 4-5 दिन में सार्वजनिक किया जाता रहा है। लेकिन इस बार इसे मार्च-अप्रैल में जारी करने की बात कही जा रही है। जबकि 1996 से मैं देख रहा हूं कि रिपोर्ट 4-5 दिनों में सार्वजनिक कर दी जाती रही है।

देरी पर नीति आयोग की सफाई है कि रिपोर्ट की अभी पुष्टि नहीं हुई है?

इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है? नीति आयोग किसकी काबिलियत पर सवाल उठा रहा है? आंकड़ों के सत्यापन के लिए एक स्थायी समिति है। अगर उसमें बैठे लोगों की काबिलियत पर भरोसा नहीं है तो फिर कौन से लोग रिपोर्ट को सत्यापित करेंगे?  समझ में नहीं आता कि लोग क्या साबित करना चाहते हैं।

इस तरह के विवाद से क्या असर पड़ता है?

सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों का भरोसा डगमगा जाता है क्योंकि यह तो पूरी तरह से भरोसे पर चलता है। आंकड़ों का विश्लेषण हर कोई नहीं कर सकता है। उसे जब केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय जैसा संगठन जारी करता है तो लोग भरोसा करते हैं। उस आधार पर फैसले करते हैं। सरकार नीतियां बनाती है। लोग भारत के आंकड़ों पर भी चीन की तरह सवाल उठाएंगे, जो कहीं से सही नहीं है।

अगर ऐसा होने लगा तो उसका निवेश के फैसलों पर असर पड़ेगा। दुनिया भर की एजेंसियां, कंपनियां इन्हीं आंकड़ों के आधार पर अहम फैसले करती हैं। यही नहीं केंद्र सरकार, राज्य सरकार और घरेलू कंपनियां भी इन आंकड़ों के आधार पर ही फैसले करती हैं। जब आंकड़ों से ही भरोसा हट गया तो समझिए कुछ नहीं बचा। एक तरह से सब अंधे हो गए।

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