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संभावना और चुनौती

नई सोच से युवा बदल रहे हैं सामाजिक सरोकार, संस्कृति, व्यवसाय और राजनीति मगर चुनौतियां कई
10-24 साल के आयु वर्ग में दुनिया में 180 करोड़ लोग हैं। इनमें 35.6 करोड़ सिर्फ भारत में हैं

सार्वजनिक जगहों और पार्कों में अक्सर एक चीज देखने को मिल जाती है। ट्राईपोड पर जमा स्मार्टफोन, उसके पीछे निर्देशन और आगे ऐक्टिंग करते बच्चे। बेशक, उनका कोई यू-ट्यूब चैनल भी होगा और वहां वे वीडियो भी अपलोड करते होंगे। इस अपील के साथ कि लोग उनके चैनल को सब्स्क्राइब करें और उनके वीडियो को लाइक और शेयर करें। कुछ साल पहले ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता था।

दुनिया भर में दो बातों को लेकर बड़ा उत्साह है। एक, आबादी में बहुत बड़ा हिस्सा युवाओं का है। चिकित्सा और कृषि क्षेत्र में आई क्रांति और लचीली वैश्विक अर्थव्यवस्था ने बीमारी और भूख से हो रही मौतों को बहुत हद तक कम कर दिया है। दुनिया की आबादी 600 करोड़ से भी अधिक हो गई है। इनमें ज्‍यादातर 35 वर्ष से कम आयु के हैं। दूसरे, सूचना तकनीक, संचार और परिवहन क्षेत्र में आई क्रांति से दूरियां मिट गई हैं। लोग आपस में मिलने-जुलने लगे हैं। सोशल मीडिया महाद्वीपों से भी बड़ा हो गया है। अकेले फेसबुक से 225 करोड़ लोग जुड़े हैं। 

आबादी का युवा होना हर्ष का विषय है। इसका मतलब हुआ हर जगह नई सोच, उच्च ऊर्जा स्तर और कुछ बड़ा करने का हौसला। लोग खेतों, दफ्तरों और कारखानों में ज्यादा और अस्पतालों में कम। आय में वृद्धि, चहुं ओर समृद्धि। लेकिन ऐसा अपने-आप नहीं होगा। सबको मिलकर करना पड़ेगा।

2014 में यूएन पॉप्युलेशन फंड ने ‘पावर ऑफ 1.8 बिलियन’ नाम की एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें इस बात का जिक्र था कि 10-24 साल के आयु वर्ग में दुनिया में 180 करोड़ लोग हैं। इनमें 35.6 करोड़ सिर्फ भारत में हैं, जो इसकी आबादी का 28 प्रतिशत है। चीन में इस आयु वर्ग में 26.9 करोड़ लोग हैं, अमेरिका में 6.5 करोड़ और पाकिस्तान में 5.9 करोड़। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 तक भारत की औसत आयु 29 साल हो जाएगी। 64 प्रतिशत आबादी 15-64 साल के बीच होगी, 2027 तक इस आयु वर्ग में लोगों की संख्या 100 करोड़ पार कर जाएगी। सिर्फ इस वजह से नेशनल जीडीपी दो प्रतिशत अतिरिक्त दर से बढ़ सकती है।

लेकिन थोड़ा अंदर झांकें तो चिंता होती है। 10-24 साल आयु वर्ग में 10 में से नौ विकासशील और गरीब देशों में हैं, जहां अवसरों की कमी है। भारत की बात करें तो जन्म-दर अविकसित राज्यों में ज्यादा है। 10 में से नौ अनौपचारिक सेक्टर में काम करते हैं, जहां कोई स्थायित्व नहीं है। वेतन कम मिलता है और सामाजिक सुरक्षा नदारद है। उच्च शिक्षा तक लोगों की पहुंच सीमित है। जो स्नातक कर भी गए हैं, उनमें से चार में तीन किसी रोजगार के लायक नहीं हैं। कुपोषण का स्तर चीन से पांच गुना और सब-सहारा क्षेत्र से दोगुना ज्यादा है। तुलना करें तो भारत में स्वास्थ्य पर खर्च जीडीपी का 1.2 प्रतिशत है, जबकि चीन में ये 5.5 प्रतिशत है और ब्राजील में नौ प्रतिशत। एक गंभीर बीमारी निम्न मध्यवर्गीय परिवार को कर्ज में डालने और गरीबी में धकेलने के लिए काफी है। आवश्यकता है कि शिक्षा, कौशल विकास और स्वास्थ्य पर निवेश को और बढ़ाया जाए। अधिक-से-अधिक लड़कियां भी उच्च शिक्षा प्राप्त करें और कारगर बनें। आधी आबादी को अकुशल, अक्षम नहीं रखा जा सकता।

ऐसे विचारकों की कमी नहीं है, जो युवाओं के बहुतायत को चिंता का विषय मानते हैं। हॉर्वर्ड कनेडी स्कूल के हेनरिक उर्डाल का कहना है कि अगर उनकी ऊर्जा को सही दिशा नहीं मिले तो युवा लड़ाई-झगड़े पर उतर आते हैं, हिंसक अपराध करते हैं। उनके एक शोध के अनुसार, जिस देश में 15-34 आयु वर्ग के लोग वयस्क आबादी के 35 प्रतिशत से अधिक हैं, वहां विकसित देशों की तुलना में हिंसा और फसाद की संभावना 150 फीसदी तक अधिक रहती है। ऐसे में जरूरी है कि शासन तंत्र और विशेषकर पुलिस उनसे व्यवस्थित संवाद स्थापित करे, उन्हें उग्र भीड़ में परिवर्तित होने से समय रहते रोके।

अमेरिका में ‘फादर ऑफ मॉडर्न लॉ एन्फोर्समेंट’ के नाम से मशहूर अगस्ट वोलमर ने 1920 में ही कह दिया था कि युवाओं पर धर्म, परिवार और शैक्षणिक संस्थाओं का प्रभाव घट रहा है। ऐसे में पुलिस को अतिरिक्त क्षमताओं का विकास कर उनको कानून के दायरे में रहने के लिए प्रेरित करने का बीड़ा उठाना चाहिए। अकेले प्रतिहिंसा से बात नहीं बनने वाली, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

चीन आज जहां भी है, इसे अभी के 50 साल से ऊपर उम्र के लोगों ने पहुंचाया है। 30 साल पहले जब वे बीस साल के थे तो राष्ट्र निर्माण के काम में लगे थे। आज यही चुनौती भारत के युवाओं के सामने है, जिन्हें हम मिलेनियल्स कहते हैं। अर्थशा‌िस्‍त्रयों का मानना है कि देश प्राइमरी सेक्टर से सीधे सर्विस सेक्टर में प्रवेश कर गया है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, जिसमें रोजगार की संभावना रहती है, वह कहीं बीच रास्ते में छूट गया है। जिस हिसाब से इंटरनेट, सोशल मीडिया और स्मार्टफोन का चलन बढ़ा है, एक प्रबल संभावना है कि भारत दुनिया की पहली ‘बॉटम-अप डिजिटल इकोनॉमी’ बनकर उभरे। स्मार्टफोनियन के लिए उपभोग स्वामित्व से ज्यादा जरूरी है। नई सोच, तेज इंटरनेट और स्मॉर्टफोन के जरिए वे सामाजिक सरोकार, संस्कृति, व्यवसाय और राजनीति को तेजी से बदल रहे हैं। भविष्य में बहुत संभव है कि काम का स्वरूप ही ‘फ्रीलांसिंग’ का रह जाए। नौकरी देने-लेने की बात ही खत्म हो जाए। औद्योगिक युग में पिछड़ने की हमने बड़ी भारी कीमत चुकाई थी। युवाओं को राष्ट्रनिर्माण के काम में न लगा पाने की गलती हम नहीं कर सकते।

(लेखक आइपीएस अधिकारी और हरियाणा के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक हैं)

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