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बराबरी की संस्कृति से ही टूटेगी जकड़न

नव-पूंजीवाद से अमीरी-गरीबी के फासले काफी बढ़े तो जाति और पितृसत्ता की जकड़न और मजबूत होने लगी है, इससे ‌स्त्रियों के खिलाफ हिंसा भी बढ़ी
पूंजीवाद भले व्यक्ति की कैपिबिलटी की बात करे पर उसका जमीनी चरित्र अलग है

हमारी समस्याओं और चुनौतियों के जड़ में है असमानता। इससे कई तरह की समस्याएं पैदा होती हैं। ये समस्याएं और जिस तरह का माहौल आज बन रहा है वह किसी न किसी स्तर पर जाति और पितृसत्ता से जुड़ा है। इन्हीं दोनों से मिलकर हमारे समाज का बुनियादी ढांचा बनता है। जाति का एक विचारात्मक पक्ष ब्राह्मणवाद भी है। हमारे रोजमर्रा के कामकाज और व्यवहार का तरीका यानी हम किससे प्यार करेंगे, किससे नफरत, किसे सम्मान देंगे, किसे नीचा दिखाएंगे वगैरह इसी ढांचे से तय होता है। यह केवल मनोविज्ञान से जुड़ा मसला नहीं है।

जाति और पितृसत्ता से उपजी इन समस्याओं को नया पूंजीवाद और मजबूत कर रहा है। पूंजीवाद ने जो नया समाज विकसित किया है उससे शहरीकरण हुआ है और नया मध्यवर्ग पैदा हुआ है। लेकिन, आर्थिक क्षेत्र में गैर-बराबरी बढ़ी है। तीस साल पहले भारत में इतनी असमानता नहीं थी। आज मुट्ठी भर लोगों के पास ज्यादा संपत्ति है। देश के शीर्ष पांच लाख अमीरों में बमुश्किल एकाध हजार ही दलित और पिछड़े होंगे। पूंजीवाद भले व्यक्ति की कैपिबिलटी की बात करता हो पर उसका जमीनी चरित्र इससे अलग है। कॉरपोरेट सेक्टर में काबिलियत से ज्यादा बैकग्राउंड और सॉफ्ट स्किल्स महत्वपूर्ण हैं। सॉफ्ट स्किल्स इस पर निर्भर करते हैं कि आपकी परवरिश किन परिस्थितियों में हुई है, जबकि काबिलियत कहीं भी हो सकती है। नतीजतन, गांव में पढ़े लोगों को नौकरी नहीं मिल रही।

अवसर में गैर-बराबरी का असर पूरी व्यवस्था पर दिखता है। इससे ही तय होता है कि हमारे शहर कैसे होंगे, हमारी शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था कैसे होगी। जो अमीर हैं वे प्राइवेट हेल्थ सेक्टर में चले जाएंगे। उनके बच्चे प्राइवेट यूनिवर्सिटी से बढ़िया तालीम हासिल करेंगे। उनका इंट्रेस्ट नहीं होने के कारण ही सरकारी अस्पतालों पर सरकार को पैसा खर्च करने की जरूरत महसूस नहीं होती। सार्वजनिक क्षेत्र के जो अच्छे विश्वविद्यालय हैं उन्हें सरकार ने बिगाड़ दिया है। फिर उन्हें अच्छी शिक्षा कहां से मिलेगी जिनके पास पैसे नहीं हैं। नतीजतन, वंचित और पिछड़ रहे हैं और जो पहले से संपन्न हैं, तमाम सहूलियतें और अवसर उन्हें ही मिल रहे। हालांकि, अपनी काबिलियत से आगे निकलने के कुछ उदाहरण हैं। लेकिन, नया पूंजीवाद ऐसा माहौल बना रहा है जिसमें काबिलियत का महत्व घटता जा रहा है। जाहिर है, इस रास्ते तो समाज में न बराबरी आएगी और न हमारी चुनौतियां कम होंगी। उलटे इससे जाति और पितृसत्ता से उपजी गैर-बराबरी और मजबूत हो रही है। 

आज हम स्‍वच्‍छता और सफाई की बात कर रहे हैं। सफाई का आंदोलन अच्छी बात है। लेकिन, हम सफाईकर्मी की इज्जत नहीं करते। इसी तरह हिंसा का सवाल है। घर में पति-पत्नी के बीच हिंसा होती है, बच्चों के साथ हिंसा होती है। इससे हिंसा हमारे लिए असहज नहीं रह जाती। फिर हमें हिंसा में कुछ गलत नहीं दिखता। हिंसा केवल तभी नहीं होती जब गोली चलती है। यह बोली में भी होती है। आप दूसरों को किस नजरिए से देखते हैं, उसमें भी होती है। स्‍त्री-पुरुष अनुपात में सुधार बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के स्लोगन से नहीं होगा, क्योंकि यह हमारी सोच से जुड़ा मसला है। हमारी यह सोच समाज के उस बुनियादी ढांचे से तय होती है जो जाति और पितृसत्ता पर आधारित है, जिसमें बराबरी की संस्कृति की कोई जगह नहीं है।  

प्रजातंत्र का मतलब है, हर व्यक्ति बराबर है। बराबरी केवल वोट देने के अधिकार तक ही सीमित नहीं है। मानवीय मूल्यों में भी बराबरी होनी चाहिए। इसके लिए आर्थिक तंत्र में बराबरी जरूरी नहीं है। आप अमीर-गरीब हो सकते हैं। लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि आप बड़े-छोटे भी होंगे। हमने घरों में देखा है कि बेटे की आमदनी बाप से कई गुना ज्यादा होती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि बाप से बेटा बड़ा हो जाता है। जाति के आधार पर भी असमानता का स्तर अलग-अलग होता है। ऊंची जाति का जो गरीब है उसकी गरीबी उतनी ज्यादा नहीं होती है। उसका कोई न कोई रिश्तेदार होगा, जिसके पास पैसा होता है। मुश्किल वक्त में वह उसकी मदद के लिए आ जाता है। उसका एक सोशल नेटवर्क होता है जिससे उसे काफी मदद मिलती है। नीची जाति के लोगों के पास ये सहूलियतें नहीं होतीं। लिहाजा, उनके बीच असमानता और भयावह होती है।

इन्हीं कारणों से डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि हमारे संविधान और समाज में काफी अंतर्विरोध है। संविधान हिंसा-मुक्त आधुनिक समाज बनाने की दिशा दिखाता है। इसके लिए जरूरी है कि सामाजिक ढांचा बराबरी के मूल्य पर आधारित हो। इसके लिए साम्यवाद या समाजवाद के पूरे ढांचे की दरकार नहीं है। प्राइवेट इंटरप्राइजेज के साथ लोकतांत्रिक समाज में भी यह संभव है। लेकिन, हमारे यहां असमानता लगातार बढ़ रही है। असुरक्षा और पिछड़ेपन का भाव समाज में ज्यादा गहरा होता जा रहा है। पहचान को लेकर नए सिरे से गोलबंदी हो रही है। 

आरक्षण से इस गैर-बराबरी को कम करने में मदद मिली थी। तंत्र में अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों की भागीदारी बढ़ने से लोकतंत्र समृद्ध हुआ। लेकिन, जब तक प्रतिस्पर्धा का माहौल नहीं बनेगा, लोगों को बराबरी के अवसर नहीं मिलेंगे। नए तरह के पूंजीवाद के कारण ही आज नए सिरे से जाति गोलबंदी दिख रही है। पिछड़ेपन का नया भाव पैदा हो रहा है। ओबीसी पहले गांव में प्रभावशाली थे। वे कृषि से जुड़े थे और उनको कोई समस्या नहीं थी। हरियाणा-पंजाब में जाटों का प्रभुत्व था। लेकिन, अब उनमें भी पिछड़े होने का भाव आ रहा है, क्योंकि शहरीकरण के बढ़ते असर ने खेती की पूछ घटा दी है। जो इलीट है वह रियल एस्टेट, शहरी ट्रेड, होटल वगैरह से कमा रहा है। नए पैदा हुए इस इलीट वर्ग ने भी पुराने ढांचे को मजबूती देने का काम किया है। बाजारवाद से भी पितृसत्ता को मजबूती मिली है। सभी तबकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें तो कई जकड़बंदियां खुद ध्वस्त हो जाएंगी।

एक सच यह भी है कि समय के साथ जाति का पुराना ढांचा टूटा है। ब्राह्मणवाद में भी फर्क आया है। दलितों में एक नया उभार दिख रहा है। इन बदलावों के पीछे आरक्षण की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जब आरक्षित क्षेत्र से कोई विधायक या सांसद चुना जाता है तो उसका असर केवल उसकी जाति तक ही नहीं होता, समाज पर भी पड़ता है। लेकिन, पिछड़ा और दलित आंदोलन तथा शहरीकरण से जाति की जकड़न टूटने की जो उम्मीद पाली गई थी, वह गलत थी। अब नई तरह से जाति का उभार हो रहा है। इसे समझने के लिए नए तरह के रिसर्च और नई पॉलिसी की आवश्यकता है। गैर-बराबरी की संस्कृति को खत्म किए बिना आप इससे नहीं निपट सकते।

अब बदलाव के लिए दबाव बनता दिख रहा है। आरक्षण से एससी में भी जो ऊपर की दो-तीन जातियां थीं उनको फायदा मिला। बाकी को कोई प्रतिनिधत्व नहीं मिला। इससे एससी केटेगरी में शामिल जातियों के बीच आंतरिक संघर्ष बढ़ा है। फलतः पहचान के अंदर उप-पहचान की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह भावना और मजबूत हुई तो हमारी समस्याएं बढ़ जाएंगी। इससे जाति और पितृसत्ता भी मजबूत होगी। इसलिए जरूरी है कि जाति जनगणना के लिए सरकार एक नया आयोग बनाए। बहुत सारी जातियां जिनको अब आरक्षण की जरूरत नहीं है उनको इससे निकाल देना चाहिए और व्यवस्था में नए लोग, नई जातियां आगे आएंगी। इससे बराबरी बढ़ाने में मदद मिलेगी।

यह सच है कि व्यवस्था में जगह मिलने के बाद दलितों के नेतृत्व ने खुद को आगे बढ़ाने पर ज्यादा फोकस किया। लेकिन, इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि मायावती, रामविलास पासवान जैसे लोगों के उभार ने काफी फर्क डाला है। दलितों के खिलाफ हिंसा कम हुई है। उनके अंदर आत्मविश्वास बढ़ा है। अब जो दलितों का नया नेतृत्व उभर रहा है जिसमें जिग्नेश मेवाणी, चंद्रशेखर जैसे लोग शामिल हैं, ये अलग तरह से सोचते हैं। ये पितृसत्ता के मॉडल से प्रभावित नहीं हैं। इनके अंदर व्यवस्था को लेकर गुस्सा भरा है। इनकी आक्रामकता से भले ही हम असहज महसूस करते हों, लेकिन प्रजातंत्र में बराबरी की संस्कृति विकसित करने के लिए यह जरूरी है।

(लेखक जेएनयू के स्कूल ऑफ सोशल साइंस में प्रोफेसर हैं, जाति और अल्पसंख्यकों पर विशेष अध्ययन। अजीत झा से बातचीत पर आधारित)

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