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चुप्पी टूटी पर बराबरी की देहरी अब भी दूर

सत्ता, संपत्ति और संतति में बराबरी से ही महिलाओं के जीवन में आएगा बदलाव, महिला आरक्षण बिल को अब ज्यादा दिन नहीं लटका सकते राजनीतिक दल
महिलाओं को शीर्ष पर आने का मौका नहीं देना हमारी राजनीतिक सोच का हिस्सा है, व्यवस्था में बैठे लोगों को इससे डर लगता है

महिलाएं देश की आबादी का आधा हिस्सा हैं। फिर भी उनकी सामाजिक और राजनैतिक हैसियत मामूली ही है। उन्हें देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग कहना अनुचित नहीं होगा। अल्पसंख्यक यानी वे लोग जिनकी जिंदगी से जुड़े सवाल बहुसंख्यकों की तरह सत्ता, व्यवस्था और समाज के लिए महत्वपूर्ण नहीं होते। हिंसा की आशंका भी सबसे ज्यादा अल्पसंख्यकों के साथ ही होती है। उनके जीवन में असुरक्षा का भाव बहुत गहरा होता है। यही हाल महिलाओं का है। उन्हें पितृसत्ता के बनाए कायदे-कानूनों के अधीन चलना पड़ता है। चाहे वह मंदिर में प्रवेश का मामला हो या फिर तीन तलाक का सवाल। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं को ऐसी कोई ताकत, अधिकार नहीं दिए गए हैं जिससे वह अपनी पारिवारिक और सामाजिक हैसियत को बदल सकें।

समाज में विभेद पैदा करने और लोगों को अलग-अलग खांचे में बांटने की पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक औजार जाति भी है। इसके सबसे निचले पायदान पर हैं दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक महिलाएं। पितृसत्ता का भेदभाव हर जगह दिखाई पड़ता है। कोई धर्म, कोई जाति, कोई देश, कोई समाज, कोई भाषा इससे अछूता नहीं है। अमेरिका में भी हर तीसरी महिला हिंसा की शिकार है और हिंदुस्तान में भी। लिहाजा इसे केवल ब्राह्मणवाद से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। ये उससे भी ऊपर की चीज है। यह हमारी सर्वांगीण सोच का हिस्सा है।

यह सही है कि आर्थिक रूप से सबल महिलाएं अपनी जिंदगी के बारे में बहुत सारे निर्णय खुद ले सकती हैं। अपने बच्चे, परिवार को पालने के लिए वे पराश्रित नहीं होतीं। उनके अंदर आत्मविश्वास भी ज्यादा होता है। लेकिन, एक समस्या जो ऊपर से नीचे तक महिलाओं में व्याप्त है वह है हिंसा। अंतर केवल इतना ही है कि दलित महिला को ऊंची जातियों की हिंसा भी झेलनी पड़ती है। जाति के अलावा महिला किस जगह रहती है और उसकी उम्र क्या है इससे भी उसके खिलाफ होने वाली हिंसा पर फर्क पड़ता है। लेकिन, आप यह नहीं कह सकते कि ऊंची जाति या अमीर महिलाओं के साथ कोई समस्या ही नहीं है। इसी तरह संपत्ति में हक देने में हर वर्ग की महिलाओं के साथ भेदभाव होता है। आज जो देश का सबसे अमीर व्यक्ति है वह अपनी बेटी की शादी में करोड़ों रुपये खर्च कर रहा है। लेकिन, क्या वे अपनी संपत्ति में बेटी को अपने दोनों बेटों के बराबर हिस्सा देंगे? यानी औरतों की स्थिति समाज में कमोबेश एक ही है। कुछ ज्यादा झेल रही हैं, कुछ थोड़ा कम। वे कहीं भी हों संपत्ति, संतति और सत्ता में उनको बराबरी का हक नहीं है।

इस सबके पीछे पितृसत्तात्मक सोच है जो सबसे पहले परिवार में गढ़ी जाती है। बेटा और बेटी दोनों एक ही तरह पैदा होते हैं। लेकिन, परिवार बेटा को बड़ा और बेटी को कमतर बनाता है। समाज और सरकार तो बाद में आते हैं। मैंने सभी धर्मों का शोध किया है और पाया है कि सबमें किसी न किसी समय पर स्‍त्री शरीर को ही अपवित्र बताया गया है। यानी धर्म भी औरत को कमतर दिखाता है और पितृसत्ता का ही प्रतीक है। परंपराओं और धर्म में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई है जिसमें पुरुषों को महिलाओं के लिए त्याग करना पड़े।

राजनीति में भी यही स्थिति है। इसके मूल में यह सोच है कि यदि महिलाओं को सत्ता मिल जाएगी तो वे सुनिश्चित करने लगेंगी कि समाज, परिवार और राजनीति कैसी हो। आज राजनीतिक दलों में दो-तीन फीसदी महिलाओं की भागीदारी है। राजनीतिक दल इस बात की परवाह भी नहीं करते कि महिलाएं उनकी सदस्य बन रही हैं या नहीं। उन्हें सिर्फ महिलाओं का वोट चाहिए। यह स्थिति तब तक नहीं बदलेगी जब तक महिलाएं ये नहीं सोचतीं कि हम वोट दे रहे हैं तो हमारा हक कहां है। हाल के समय में इस तरह सवाल उठने शुरू हुए हैं, क्योंकि पंचायत से उभरकर आगे आ रही महिलाएं समझने लगी हैं कि हाथ में राजनीतिक सत्ता आएगी तो आर्थिक सत्ता भी आएगी।

महिलाओं को शीर्ष पर आने का मौका नहीं देना हमारी राजनीतिक सोच का हिस्सा है। इस सरकार ने सैकड़ों वाइस चांसलर नियुक्त किए, लेकिन एक भी महिला की नियुक्ति नहीं हुई। महिला आयोग को छोड़ दें तो कहीं भी शीर्ष पदों पर महिलाओं की नियुक्त नहीं की गई है। महिलाओं को लोकसभा और विधानसभा में 33 फीसदी आरक्षण देने का बिल सालों से लटका हुआ है। असल में, महिलाओं को ताकत देने से पूरी व्यवस्था में बैठे लोगों को डर लगता है। हालांकि अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का बिल ज्यादा दिनों तक लटकाए रखना राजनीतिक दलों के लिए संभव नहीं रहेगा। पंजाब और ओडिशा की विधानसभा ने हाल के दिनों में इस बिल को पास किया है। जिन राज्यों में पंचायत में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण हैं वहां की पंचायतों से उभरकर महिलाएं सामने आ रही हैं। इससे भी दबाव बढ़ रहा है। लेकिन, सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में महिलाओं के लिए जो वादे किए थे उनमें 33 फीसदी आरक्षण पहले नंबर पर था। महिलाओं की सुरक्षा का वादा किया था। नतीजतन, देश की महिलाओं ने 2014 के चुनाव में भाजपा को बढ़-चढ़कर वोट दिया था। लेकिन, दुष्कर्म की घटनाएं तीन गुना बढ़ने के कारण सुरक्षा का वादा धरा का धरा रह गया। सुरक्षा देने में नाकाम रही मोदी सरकार को महिलाओं को कम से कम सत्ता में हिस्सेदारी तो दे ही देनी चाहिए। सत्ता में हिस्सेदारी होने पर महिलाएं खुद के साथ परिवार की सुरक्षा करने में भी सक्षम होंगी। तब हिंसा की समस्या उतनी बड़ी नहीं दिखेगी जितनी आज दिख रही है। वैसे भी सत्ता और हिंसा का सीधा रिश्ता है। जैसे ही सत्ता महिलाओं के पास आएगी हिंसा कम होगी या वे उससे निपटने में सक्षम होंगी।

आज के वक्त में हिंसा ही हमारे समाज की सबसे बड़ी चुनौती है। भारतीय समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा लगातार बढ़ रही है। खासकर, छोटी उम्र की बच्चियों के साथ जो कुछ हो रहा है वह बताता है कि पितृसत्ता के कारण हम कितने कुंठित समाज के तौर पर उभर रहे हैं। इससे कई मोर्चों पर लड़ना होगा। पारिवारिक मूल्य बदलने होंगे। महिलाओं को बराबरी का अधिकार देना होगा। दूसरी चुनौती शिक्षा की है। इससे बहुत हद तक हम पार पा रहे हैं। अब बेटियां स्कूल जा रही हैं। लेकिन, शिक्षित महिला को रोजगार मिलना बहुत जरूरी है। बीते दस साल में रोजगार में महिलाओं की भागीदारी में दस फीसदी की कमी आई है।

अच्छी बात यह है कि महिलाओं को लेकर नई पीढ़ी उसी तरह नहीं सोच रही जैसी हमारी पीढ़ी सोचती थी। मुझे लगता है कि हम समझौते के निकट पहुंच रहे हैं, लेकिन महिलाओं को मौके नहीं मिल रहे। संपत्ति में बराबरी का अधिकार मिलने से निश्चित तौर पर इसमें फर्क पड़ेगा। लेकिन, इससे जुड़े कानून को हमने काफी जटिल बना रखा है। कानून ऐसा होना चाहिए जो कहे कि जो कुछ भी है उसे बराबर-बराबर बांट दो। ऐसा होने पर पितृसत्ता की यह सोच बदलेगी कि बेटा ही हमारी देखभाल करेगा। इससे लड़कों पर भी बोझ कम होगा।

समाज का बदलाव एक निरंतर प्रक्रिया है। पीढ़ी दर पीढ़ी सामाजिक बदलाव होता है। खासकर, भारत जैसे समाज में जिसकी सभ्यता काफी पुरानी है। धीरे-धीरे बदलाव दिख भी रहे हैं। औरतों की चुप्पी टूट रही है। वे अपने लिए हक मांगने लगी हैं। अब लड़की के साथ अन्याय पर परिवार भी चुप नहीं बैठता। लेकिन, जितनी तेजी से बदलाव होने थे वो नहीं हो पाया है। इसमें सबसे बड़ी रुकावट है सामाजिक परिवर्तन को आगे बढ़ाने वाले राजनीतिक नेतृत्व का न होना। आज का राजनीतिक नेतृत्व समाज बदलने की चुनौती लेने को तैयार नहीं है। जरूरी है कि एक राजनीतिक नेतृत्व उभरे और यह महिलाओं के बीच से ही उभरे तो और बड़ी बात होगी। क्योंकि, महिलाओं की पीड़ा महिला से ज्यादा कोई दूसरा महसूस नहीं कर सकता।     

((लेखिका सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक और नारी अधिकारों की सशक्त आवाज हैं। लेख अजीत झा से बातचीत पर आधारित)

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