Advertisement

नया साल, नई इबारत

2019 कई उपलब्धियां और नई परिस्थितियां लेकर आएगा। यह भी तय करेगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के आम चुनाव में भारतीय समाज अतीत के घटनाक्रमों को तरजीह देता है या भविष्य बेहतर करने के बारे में ज्यादा सोचता है
नया साल कई मायनों में देश के लिए अहम

यह अंक जब आपके हाथ में होगा तो नया साल 2019 दहलीज पर खड़ा मिलेगा। नया साल देश के लिए कई मायनों में असामान्य साबित होने जा रहा है। आजादी के इस 71वें साल में केंद्र की सत्ता के लिए अब तक की शायद सबसे कड़ी टक्कर वाले आम चुनाव होंगे। ये चुनाव देश में सामाजिक, आर्थिक और संवैधानिक मूल्यों की दिशा तय कर सकते हैं। इसी साल हम देश के मौजूदा स्वरूप के जनक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाएंगे। इसी साल आजादी की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश शासकों के क्रूरतम दमन जलियांवाला बाग घटना के 100 साल पूरे होंगे।

2019 वह साल भी है जब उसी ब्रिटेन के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को भारत की जीडीपी पीछे छोड़कर आगे निकल जाएगी। अपने करीबी प्रतिस्पर्धी और पड़ोसी चीन की अर्थव्यवस्था की ग्रोथ को पीछे छोड़कर भारत के 7.6 फीसदी की विकास दर हासिल करने का भी यह साल रहेगा। लेकिन इस पर इतराने के बजाय चेतावनी की तरह हमारा पड़ोसी छोटा मुल्क बांग्लादेश हमसे तेज 7.7 फीसदी की विकास दर हासिल करेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन बांग्लादेशियों को हम देश के लिए खतरा बताते नहीं थकते, वे भी अपना जीवन स्तर सुधारने को हमसे बेहतर कर रहे हैं। बांग्लादेश प्रति व्यक्ति आय में उस पाकिस्तान से भी आगे निकल गया है, जिसका कभी वह हिस्सा था और स्वतंत्रता हासिल करने के लिए उसने लंबा संघर्ष किया।

हालांकि चुनाव की बात सबसे जरूरी है। 2014 में तीस साल बाद पहली बार भाजपा अकेली पार्टी के रूप में लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा हासिल कर पाई थी, वह अब उस परिणाम को दोहराती नहीं दिखती है। साढ़े चार साल से ज्यादा समय तक सिर्फ मोदी सरकार की दुहाई देती रही भाजपा अब एनडीए बनकर चुनाव जीतने की ओर चल पड़ी है। अब अकेले भाजपा बहुमत हासिल कर लेगी, इस पर राजनैतिक पंडितों की राय बदल गई है।

इसकी कई वजहें हैं। सबसे बड़ी वजह है 2014 के ‘अच्छे दिनों’ के वादे का पूरा न होना। किसानों की आर्थिक खस्ताहाली और उनके आंदोलनों ने कृषि अर्थव्यवस्‍था को 2019 के चुनावों का केंद्रीय मुद्दा बना दिया है। एक झटके में 86 फीसदी करेंसी को बंद करने के प्रधानमंत्री के नोटबंदी के फैसले ने इकोनॉमी को भारी नुकसान पहुंचाया है। इससे उनकी सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार भी सहमत हैं। इसका पार्टी के वोटबैंक, छोटे कारोबारियों पर प्रतिकूल असर पड़ा और बड़े पैमाने पर रोजगार का नुकसान हुआ है। पार्टी दो करोड़ सालाना रोजगार देने का वादा करके सत्ता में आई थी। लेकिन आंकड़े अलग कहानी कह रहे हैं। यही नहीं, जिस जीएसटी को आधी रात में संसद का सत्र बुलाकर लागू किया गया उसमें लगातार सुधार और संशोधन को मजबूर होना पड़ रहा है। राजनैतिक मोर्चे पर परिस्थितियां भाजपा के प्रतिकूल हुई हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आकर्षण भी कम हुआ है।

असल में 2019 के लोकसभा चुनाव राजनैतिक माहौल तीखा करने वाले हैं। हाल के पांच राज्यों के नतीजों ने इसके संकेत काफी हद तक दे दिए हैं। तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें विपक्ष के मजबूत होने का सबूत हैं। फिर, समाज में बढ़ा विभाजन, मंदिर और गाय को राजनीति के केंद्र में लाने की कोशिशों से एनडीए को नुकसान हो सकता है। दलित, किसान और अल्पसंख्यक पहले ही नाराज हैं। एससी-एसटी कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद संसद में कानून में संशोधन कराया गया, जिससे भाजपा को उच्च जातियों की नाराजगी भी झेलनी पड़ी।

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के बाद से ही विपक्ष एकजुट होता दिख रहा है। तीन राज्यों के हाल के नतीजों ने कांग्रेस की स्थिति मजबूत की है। इन राज्यों की 65 लोकसभा सीटों में से 59 भाजपा के पास हैं लेकिन 2019 में स्थिति का बदलना तय है। सबसे अधिक सीटें देने वाले उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 68 भाजपा के पास हैं। लेकिन वहां सपा और बसपा के गठबंधन की संभावना बन रही है, जो भाजपा के लिए संकट पैदा कर सकती है।

आउटलुक ने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को 2018 का सबसे बड़ा मुद्दा चुना है। इस मुद्दे पर एक पैकेज इस अंक का अहम हिस्सा है। 2018 में यह मुद्दा कई तरह से हमें झकझोरता रहा। कहीं दलित उत्पीड़न के रूप में यह दिखा तो कहीं महिलाओं पर अत्याचारों के रूप में दिखा। #मीटू आंदोलन के रूप में यह देश और समाज को चेतावनी देता दिखा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी सबरीमला में हर आयु की महिलाओं के प्रवेश को लेकर जैसे आंदोलन और हिंसक विरोध हुए, वह हमारे समाज के भीतर जमी हठधर्मिता का ही प्रमाण है।

इस तरह 2019 कई उपलब्धियां और नई परिस्थितियां लेकर आएगा तो कई पुरानी घटनाओं की याद भी ताजा कर जाएगा। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव का मौका भी यह साबित करेगा कि भारतीय समाज अतीत को तरजीह देता है या भविष्य बेहतर करने के बारे में ज्यादा सोचता है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement