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सहकारिता के रास्ते खुशहाली की खेती

कोऑपरेटिव से बढ़ती है किसानों की होल्डिंग कैपिसिटी, बाजार के उतार-चढ़ाव में वाजिब कीमत पर उपज बेचना हो जाता है आसान
सहकारिकता के सवालः चर्चा के दौरान टी. हक, वसुधा मिश्रा, हरवीर सिंह, संदीप कुमार नायक और आर.एस. सोढ़ी (बाएं से दाएं)

समस्याओं के मकड़जाल से किसानों को बाहर निकालने की ताकत सहकारिता यानी कोऑपरेटिव में है? फिर भी, क्या वजह है कि अमूल जैसे कोऑपरेटिव के सफल मॉडल देश में गिने-चुने ही हैं? और सबसे महत्वपूर्ण कोऑपरेटिव को लेकर किसानों के मन में किस तरह के सवाल हैं? आउटलुक एग्रीकल्चर कॉनक्लेव एंड स्वराज अवार्ड्स के पहले सत्र में ‘किसानों के सशक्तीकरण में सहकारिता की भूमिका’ पर चर्चा के दौरान यही सवाल मुखर थे। विशेषज्ञों की मानें तो किसानों की जिंदगी बदलने, उनकी उपज की वाजिब कीमत दिलाने की ताकत कोऑपरेटिव में है। लेकिन, इसके लिए कोऑपरेटिव का पेशेवर तरीके से संचालन और गवर्नेंस बेहद जरूरी है। किसान अगर यह कर पाते हैं तो फिर पैसा हो या तकनीक सब कुछ सरकार से हासिल कर पाना कोऑपरेटिव के लिए आसान हो जाता है।

वैसे भी जब सरकार किसानों की आय दोगुनी करने की प्रतिबद्धता जता रही हो तो कृषि क्षेत्र में कोऑपरेटिव की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण नजर आती है। कॉनक्लेव के दौरान केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय में एडिशनल सेक्रेटरी वसुधा मिश्रा ने माना भी कि कोऑपरेटिव में कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों की आमदनी बढ़ाने की ताकत है। उन्होंने कहा कि देश के ज्यादातर किसान छोटे और भूमिहीन हैं। उनके पास कोऑपरेटिव से जुड़कर सामूहिक खेती और अपने उत्पाद की मार्केटिंग के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मिश्रा ने कहा, “आज बाजार हर चीज तय करता है। बाजार में टिके रहने और उसका फायदा उठाने के लिए बड़ा प्लेयर होना जरूरी है। कोऑपरेटिव में हर किसान को बड़ा प्लेयर बनाने और बाजार के उतार-चढ़ाव के बीच मुनाफा कमाने की ताकत देने का सामर्थ्य है।” उन्होंने बताया कोऑपरेटिव से किसानों की होल्डिंग कैपिसिटी बढ़ जाती है और यह तय करना आसान होता है कि वे अपनी उपज कब और किसे बेचें।

गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड (अमूल) के प्रबंध निदेशक आर.एस. सोढ़ी ने कहा कि आज देश की कुल वृद्धि दर आठ-नौ फीसदी है मगर कृषि क्षेत्र केवल दो-तीन फीसदी की दर से ही बढ़ रहा है। जीडीपी में कृषि का हिस्सा लगातार घट रहा है। यानी इंडिया का विकास तो हो रहा है, लेकिन भारत पीछे जा रहा है। इसका कारण  कुल मुनाफे में किसान का हिस्सा दिनोदिन कम होना है। उन्होंने बताया कि अमूल से जुड़े किसानों को 80-82 फीसदी हिस्सा मिलता है। उन्होंने कहा, “मुनाफे का बड़ा हिस्सा किसानों को तब तक नहीं मिलेगा जब तक वे खुद को केवल उत्पादन तक सीमित रखेंगे। उन्हें अपने उत्पाद की प्रोसेसिंग और मार्केटिंग भी खुद करनी होगी। लेकिन, किसानों को यह ध्यान रखना होगा कि कोऑपरेटिव उन्हें ही चलाना है। सरकार केवल फेसिलीटेट कर सकती है। जब तक किसान कोऑपरेटिव में गवर्नेस और उसे प्रोफेशनल तरीके से चलाने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाएंगे तब तक वे कुछ भी कर लें, उन्हें फायदा नहीं मिलेगा। इसके लिए जरूरी है कि कोऑपरेटिव के कामकाज में उसके हर सदस्य की भागीदारी हो।”

कोऑपरेटिव का सफल मॉडल विकसित करने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एनसीडीसी) जैसे संस्थान बना रखे हैं। एनसीडीसी उन गिने-चुने संस्थानों में से है जो कोऑपरेटिव को वित्तीय मदद मुहैया कराने के साथ उनके संपूर्ण विकास पर फोकस करते हैं। एनसीडीसी के प्रबंध निदेशक संदीप कुमार नायक ने बताया, “हम फाइनेंसिंग के अलावा कोऑपरेटिव को उनका बिजनेस मॉडल डेवलप करने में भी मदद करते हैं।” इसके लिए कोऑपरेटिव से सीधे जुड़कर एनसीडीसी उनकी लीडरशिप तैयार करने, इन्‍फ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने पर फोकस करता है। नायक ने बताया कि कोऑपरेटिव से सीधे जुड़ाव के कारण ही एनसीडीसी का ग्रोथ हो पाया है। ऐसे में ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि एनसीडीसी का एनपीए जीरो है।

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के पूर्व चेयरमैन डॉ. टी. हक के अनुसार, आज किसानों के सामने जो चुनौतियां और समस्याएं हैं, उनसे निपटने की ताकत तो कोऑपरेटिव में है। लेकिन, इसके लिए जरूरी है कि किसानों को हर स्तर यानी गांव तक संगठित किया जाए और सभी स्तर पर कोऑपरेटिव को संसाधन मुहैया कराने वाले संस्थान हों।

तो, क्या यह माना जाए कि कोऑपरेटिव एक संजीवनी की तरह है? डॉ. हक काफी हद तक इससे इत्तेफाक रखते हैं। उन्होंने कहा, “संगठित हुए बिना किसानों के लिए खेती से मुनाफा हासिल करना तो दूर जीवन-यापन करना भी मुश्किल है।” सवाल यह भी है कि कोऑपरेटिव भ्रष्टाचार का अड्डा न बनें और उनके पेशेवर संचालन को लेकर सरकार कितनी गंभीर है? वसुधा मिश्रा ने बताया कि कानून से ज्यादा यह जागरूकता का मसला है। उन्होंने कहा, “आप चाहे जितने कानून बना लें या उनमें संशोधन कर लें उसका फायदा तभी होगा जब इससे प्रभावित होने वाला वर्ग उसको लेकर जागरूक हो। जब तक सदस्य अपना दायित्व नहीं समझेंगे, कोऑपरेटिव कारगर साबित नहीं होंगे। जागरूकता के बिना आप जितने कानून बना लें उसमें कोई न कोई छेद निकाल ही लेगा।” उन्होंने बताया, “कोऑपरेटिव में बंधन के कारण एफपीओ अस्तित्व में आए। लेकिन, कोऑपरेटिव हों या एफपीओ (फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन) तब तक नियम-कायदे से नहीं चल सकते जब तक उनके सदस्य कमजोर होंगे।” उन्होंने बताया कि दिक्कत कानूनों की नहीं है। कानून काफी हैं और समय-समय पर संशोधन भी होते हैं। एनसीडीसी जैसी संस्थाओं को भी सरकार ने ही खड़ा किया है। लेकिन, सबसे जरूरी चीज है कोऑपरेटिव में सशक्तीकरण और यह किसान ही कर सकते हैं।

सोढ़ी के अनुसार भी कोऑपरेटिव की सफलता के लिए उसके सदस्यों की भूमिका बेहद मायने रखती है। ऐसा नहीं होने पर कोऑपरेटिव नेताओं की जेबी संस्था बनकर रह जाती है। उन्होंने बताया कि कोऑपरेटिव के लिए यह जरूरी होना चाहिए कि वे जिससे उत्पाद लेते हैं, उन्हें छह महीने में सदस्यता देनी होगी। अभी वे बिजनेस तो हर किसी से करते हैं, लेकिन सदस्यता चुन-चुनकर देते हैं। सोढ़ी की मानें तो सदस्य जागरूक हों तो किसानों के लिए कोऑपरेटिव और एफपीओ दोनों फायदेमंद हैं। हालांकि दोनों में एक अंतर यह है कि कोऑपरेटिव को थोड़ा-बहुत सरकार का डर होता है, जबकि एफपीओ की मॉनीटरिंग करने वाला कोई नहीं है।

कोऑपरेटिव की सफलता के लिए गवर्नेंस को नायक ने भी बहुत अहम बताया। उन्होंने बताया कि एनसीडीसी ने जो नया मॉडल स्वीकार किया है उसमें कोऑपरेटिव मैनेजमेंट के चुनाव, सदस्यों के विवरण वगैरह पर फोकस कर रहा है। लेकिन, डॉ. हक का मानना है कि वही कोऑपरेटिव सही तरीके से चल रहे हैं, जो स्वायत्त हैं। जिन जगहों पर हस्तक्षेप है, वे माफिया बन रहे हैं। उन्होंने बताया कि जहां सिस्टम है वहां बहुत ठीक ढंग से काम हो रहा। कई एफपीओ भी अच्छा काम कर रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि इनका संचालन पेशेवर तरीके से हो और खास परिस्थितियों के हिसाब से कानून हों।

सवाल यह भी है कि मार्केट इकोनॉमी के इस दौर में कोऑपरेटिव का मॉडल किसानों के लिए कितना फायदेमंद है? वसुधा मिश्रा के अनुसार, मार्केट इकोनॉमी में कोऑपरेटिव जरूरी हैं। इससे किसानों की होल्डिंग कैपिसिटी बढ़ती है और बाजार में वाजिब दाम पर उत्पाद बेचना आसान हो जाता है। सोढ़ी ने बताया कि मार्केट के कारण खाने-पीने पर खर्च बढ़ रहा है। खाद्य पदार्थों पर खर्च बढ़ना किसानों के लिए अच्छा होना चाहिए। लेकिन, मार्केट बढ़ने के बावजूद किसान की कमाई नहीं बढ़ पा रही है। कोऑपरेटिव उन्हें बाजार को भुनाने का मौका मुहैया कराते हैं। नायक ने बताया कि एफपीओ बनाम कोऑपरेटिव से ज्यादा कोऑपरेटिव बनाम कॉरपोरेट का मसला है। कोऑपरेटिव को भी एफपीओ जैसी सहूलियतें और बाजार में पहुंच मुहैया कराने की जरूरत है। शायद इन्हीं कारणों से कोऑपरेटिव को लेकर किसानों के मन में कई संदेह भी हैं। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कहा, “अमूल को छोड़ देश में कोई और कोऑपरेटिव उतना सफल नहीं रहा है। ज्यादातर कोऑपरेटिव पर नेताओं का कब्जा है और किसान वाजिब कीमत पाने की ही लड़ाई लड़ रहा है। इसलिए, किसानों का कोऑपरेटिव से विश्वास उठ चुका है।” लेकिन, इस समस्या से निकलने का रास्ता भी शायद कोऑपरेटिव में ही छिपा है। वसुधा मिश्रा ने बताया, “हर किसान यह समझेगा कि कोऑपरेटिव सही तरीके से चलें। तभी उन पर नेताओं का कब्जा नहीं हो पाएगा।”

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