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मुनाफे की खेती के मंत्र पर फोकस

किसान का भविष्य उपज पर निर्भर करता है, उपज बढ़ाने के लिए उचित साधनों की जरूरत है, इस लिहाज से सहकारिता की विशेष भूमिका
सहकारिता की भूमिकाः कॉनक्लेव को संबोधित करते केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह

सहकारिता देश की समृद्धि और विकास का एक प्रमुख माध्यम है। इसके जरिए कृषि और किसान कल्याण की अनेक योजनाओं पर बेहतरीन अमल किया जा सकता है। यही नहीं, यह किसानों की आमदनी दोगुनी करने और उन्हें खुशहाल बनाने का भी कारगर उपाय है। देश में आठ लाख सहकारी समितियां हैं, जो ग्रामीण स्तर की समितियों से लेकर राष्ट्रीय स्तर के सहकारी संगठनों तक फैली हुई हैं। देश में सहकारी समितियों की कुल सदस्यता 27.5 करोड़ से भी अधिक है। इससे लगभग 97 प्रतिशत गांव और 71 प्रतिशत ग्रामीण परिवार जुड़े हुए हैं। अर्थव्यवस्था में कृषि सहकारी संगठनों, उर्वरक उत्पादन, चीनी उत्पादन, बुनकर और आवास सहकारी समितियों का बड़ा योगदान है। सहकारी संस्‍थाओं ने डेयरी, बैंकिंग, चीनी, खाद, मार्केटिंग, हैंडलूम, मत्स्य, गृह निर्माण जैसे क्षेत्रों में अपने को मजबूती से स्थापित किया है।

यह हमारे समाज और संस्कृति में हजारों साल से चली आ रही सहकारिता की भावना का ही एक रूप है, जिसे अंग्रेजों के शासन के दौरान कानूनी रूप दिया गया। इसके लिए 1904 में को-ऑपरेटिव केंद्रीय सोसायटी एक्ट बनाया गया। 114 वर्ष की इस यात्रा में आधुनिक सहकारिता का कश्मीर से कन्याकुमारी और पोरबंदर से सिलचर तक प्रसार हुआ।

सहकारी समितियों ने खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन स्तर को बेहतर बनाने वाली मूलभूत आवश्यक सेवाएं उपलब्ध कराई हैं। सहकारिता के दायरे में भारत का लगभग प्रत्येक गांव आ गया है। इसमें समाज के कमजोर वर्गों, गरीबी रेखा के नीचे के जीवन-यापन कर रहे व्यक्तियों और न्यूनतम मूलभूत सुविधाओं से वंचित लोगों के विकास पर विशेष जोर दिया जाता है। उसी का परिणाम है कि आज भारतीय सहकारी आंदोलन विश्व में सबसे बड़े सहकारी आंदोलन के रूप में स्थापित है।

कृषि आधारित उद्योगों में तो सहकारी समितियों का विशेष योगदान है। छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों से गांव के युवा वर्ग को रोजगार मिल सकता है। इसके माध्यम से गांव की बंजर भूमि का उपयोग कर पैदावार बढ़ाया जा सकता है और अनेक समस्याओं का हल निकाला जा सकता है। इन्हीं विशेषताओं को समझते हुए ही दुनिया के अनेक देश भारत का अनुसरण कर रहे हैं। सहकारिता की बदौलत ही हम दुनिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादन देश बने हैं। भारत सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश भी इसी की बदौलत बना है। गुजरात का अमूल ब्रांड आज पूरे विश्व में श्वेत क्रांति के रूप में सहकारिता आंदोलन के रूप में अपना डंका बजा रहा है।

किसान का भविष्य कृषि उपज पर निर्भर है और उपज बढ़ाने के लिए उचित साधनों की जरूरत है। इस मामले में सहकारिता की विशेष भूमिका है। दरअसल, किसान को हर समय हर तरह के कर्ज पाने की सुविधा उपलब्‍ध होनी चाहिए, चाहे छोटी अवधि के हों या बड़ी अवधि के। सहकारी क्षेत्र में कृषि उपज के लिए कर्ज पर ब्याज लगातार घटता रहा है और अब ब्याज दर सालाना तीन फीसदी पर आ गई है। हालांकि इसे और घटाकर ब्याज की दर शून्य करने की जरूरत है, ताकि किसान आसानी से कर्ज लेकर अपनी कृषि संबंधी जरूरतों को पूरा कर सकें।

इसके अतिरिक्त विभिन्न किस्म की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर भी लगातार नजर रखने की आवश्यकता है। किसान पिछले कई वर्षों से एक ही दर पर अपनी फसलों का सौदा कर रहे हैं। साथ ही कृषि से जुड़ी अन्य गतिविधियों पर ध्यान देकर भी किसान अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकते हैं जैसे पशु पालन, मछली पालन, मधुमक्खी पालन वगैरह। फसल की बुआई और कटाई के बीच के समय में किसान इन गतिविधियों से जुड़कर आय बढ़ा सकते हैं। इसके लिए कर्ज उपलब्ध कराने के लिए प्राथमिक सहकारी समितियों को नाबार्ड से स्वीकृति मिल चुकी है। इस दिशा में उम्मीद के अनुसार प्रगति अभी तक नहीं हो पाई है। अतः किसानों को और अधिक जागरूक करने की आवश्यकता है। इन प्रयासों से किसानों की आय जरूर दोगुनी हो सकेगी।

कृषि क्षेत्र से संबंधित हर विकसित नवीन तकनीक को भी सहकारिता के जरिए साधारण किसान तक पहुंचाना अत्यंत आवश्यक है। उपज बढ़ाने के लिए परंपरागत पद्धतियों की जगह वैज्ञानिक तौर-तरीकों को अपनाना पड़ेगा। मसलन, किसान को पता होना चाहिए कि उसके खेत की मिट्टी की हेल्थ कार्ड रिपोर्ट क्या कहती है, उसमें किस प्रकार के खाद और सूक्ष्म पोषक तत्वों की जरूरत है, ताकि कृषि संसाधनों की बरबादी न हो और पैदावार में भी बढ़ोतरी हो। इस दिशा में स्वायल हेल्थ कार्ड योजना के जरिए प्रयास आरंभ हो चुका है, लेकिन इसमें तेजी लाने की आवश्यकता है, ताकि ‘स्वस्थ धरा और खेत हरा’ का सपना साकार हो सके।

सहकारी शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम सहकारिता विकास का अहम अंग है। कुशल मानव संसाधन, जब तक नहीं मिलेगा तब तक सहकारिता क्षेत्र का विस्तार ठीक से नहीं हो पाएगा। इसलिए सहकारी शिक्षण-प्रशिक्षण तंत्र को मजबूत बनाना होगा। पूरे देश में सहकारी प्रशिक्षण कार्यक्रम राष्ट्रीय सहकारी प्रशिक्षण परिषद अपने पांच क्षेत्रीय सहकारी प्रबंधन संस्थानों और 14 सहकारी प्रबंध संस्थानों तथा पुणे स्थित राष्ट्रीय स्तर के सहकारी प्रबंध संस्थान के जरिए चलाता है। सहकारी शिक्षा और प्रशिक्षण विकास के लिए गुरुग्राम में राष्ट्रीय स्तर का प्रशिक्षण संस्थान “लक्ष्मणराव ईनामदार राष्ट्रीय सहकारी विकास एवं शोध संस्थान” की स्थापन की गई है। इसके अलावा बिहार के मोतीहारी में राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, समस्तीपुर में एनसीडीसी का एक प्रशिक्षण संस्थान “जयप्रकाश नारायण क्षेत्रीय कृषि सहकारी प्रशिक्षण संस्थान” की भी स्थापना की जा रही है। इन संस्थानों के निर्माण से देश में सहकारी प्रशिक्षण को बढ़ावा और सहकारी आंदोलन को मजबूती मिलेगी।

राष्‍ट्रीय सहकारी वि‍कास नि‍गम (एनसीडीसी) कृषि‍ और कि‍सान कल्‍याण मंत्रालय के तहत एक शीर्ष वि‍त्‍तीय एवं वि‍कास संस्‍थान के रूप में कार्य कर रहा है। यह कृषि‍ के अति‍रि‍क्‍त वि‍वि‍ध क्षेत्रों में सहकारी संस्‍थाओं को सहायता प्रदान करता है। मुझे आज यह कहने का अवसर प्राप्‍त हुआ है कि‍ एनसीडीसी मि‍शन नए भारत-2022 से जुड़ गया है तथा वर्ष 2022 तक कृष‍कों की आय दुगनी करने के मि‍शन सहकार-22 में भी शामि‍ल है।

एनसीडीसी की स्थापना सहकारी समितियों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने, क्षेत्रीय असंतुलन दूर करने, मार्केटिंग, भंडारण और कृषि प्रसंस्करण में सहकारी विकास तेज करने, पौधा रोपण/बागवानी संबंधी फसलों के विकास के लिए की गई है। इसके माध्यम से किसान विभिन्न योजनाओं का लाभ उठा सकते हैं। सहकारिता क्षेत्र को ऋण और सहायता के लिए एनसीडीसी को यूपीए सरकार के चार वर्षों 2010-14 में 19,850 करोड़ रुपये की राशि दी गई थी, जबकि मौजूदा सरकार के चार वर्षों में 2014-18 में 64,672 करोड़ रुपये की राशि दी जा चुकी है।

सहकारी संस्‍थाएं सरकार की विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों जैसे जनधन योजना, स्वच्छ भारत अभियान, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई, सड़क योजना, मेक इन इंडिया इत्यादि के कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं।

 (लेखक केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री हैं)

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