Advertisement

क्या कुशवाहा नए मौसम विज्ञानी?

एनडीए से रालोसपा का निकलना सिर्फ नीतीश से कुशवाहा की अदावत नहीं, बिहार की राजनीति में तीसरा कोण बनने की महत्वाकांक्षा पुरानी
दांव में कितना दमः मोदी कैबिनेट से इस्तीफे और एनडीए छोड़ने का ऐलान करते कुशवाहा

कयास तो तभी से लग रहे थे जब अचानक पिछले साल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने स्व-घोषित मोदी-विरोध को तज कर सरकार भाजपा के साथ बना ली थी। लेकिन राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के मुखिया उपेंद्र कुशवाहा के पाला बदलने की वजह सिर्फ नीतीश से छत्तीस का आंकड़ा ही नहीं है। वे शायद माहौल भांप कर राज्य में एक नए मजबूत किरदार की तरह पेश आने की अपनी बरसों पुरानी महत्वाकांक्षा को साकार करने का मौका देख रहे हैं। इसी वजह से उनके निशाने पर भाजपा और मोदी सरकार है। उन्होंने दस दिसंबर को केंद्रीय मंत्रिमंडल से अपने इस्तीफे का ऐलान करने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “बिहार के लोगों की उम्मीदों पर मोदी खरे नहीं उतर पाए। ओबीसी वर्ग सरकार से निराश है और खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है।” उन्होंने केंद्रीय कैबिनेट को रबड़ स्टांप बनाने और आरएसएस का एजेंडा लागू करने की तोहमत भी मढ़ी।

वैसे भी, राजनीति में कुछ स्थायी नहीं होता। न दोस्त, न दुश्मन। तीन दशक से ज्यादा पुरानी अपनी राजनीतिक यात्रा में कुशवाहा कई मौकों पर इसे साबित कर चुके हैं। कभी जिस नीतीश कुमार की छत्रछाया में बिहार की राजनीति में उभरे बाद में उनसे अलग हो गए। पांच साल पहले लालू प्रसाद यादव ने भाव नहीं दिया तो भाजपा के साथ हो लिए। उस समय लालू दो से ज्यादा लोकसभा सीट देने को तैयार नहीं थे, इस बार भाजपा तीन सीट की उनकी मांग पूरी करने को तैयार नहीं थी। इसलिए, अब भाजपा की एनडीए छोड़ राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन की नाव पर सवार होने की तैयारी में हैं।

लेकिन, लगता है कि राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक रहे कुशवाहा इस बार 2005 जैसी गलती नहीं दोहराना चाहते। उस समय जदयू छोड़ने की कीमत उन्हें बिहार की राजनीति में हाशिए पर जाकर चुकानी पड़ी थी। यही कारण है कि इस बार वे अपने पत्ते धीरे-धीरे खोल रहे हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया, “एनडीए से निकलने के बाद मेरे पास सभी विकल्प खुले हैं। महागठबंधन में भी जा सकता हूं।  अकेले भी लड़ सकता हूं और जरूरत हुई तो राज्य में तीसरा मोर्चा भी खड़ा कर सकता हूं।” बिहार में खुद को लालू और नीतीश के बरअक्स खड़ा करने की कुशवाहा की हसरत काफी पुरानी है।

लेकिन, जानकार उनके इस दांव को महागठबंधन में ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने का दबाव डालने की तरकीब बता रहे हैं। रालोसपा और शरद यादव की लोकतांत्रिक जनता दल के विलय की अटकलें इसी रणनीति का हिस्सा मानी जा रही हैं। यह भी कहा जा रहा है कि कुशवाहा कांग्रेस को साधने में जुटे हैं। बिहार की राजनीति के गहरे जानकार समाजशास्‍त्री नवल किशोर चौधरी ने आउटलुक को बताया, “कुशवाहा बखूबी जानते हैं कि फिलहाल न तो एनडीए में और न महागठबंधन में मुख्यमंत्री बनने का उनका सपना पूरा होने वाला है। इसलिए, सारी कवायद वे ज्यादा से ज्यादा सीट पाने के लिए कर रहे हैं।” कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा भी तीसरे मोर्चे की बात को काल्पनिक करार दे रहे हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया, “एनडीए विरोधी सभी दलों का महागठबंधन में स्वागत है। जाहिर है, पाटर्नर बढ़ेंगे तो सीटें घटेंगी। लेकिन मकसद एक हो तो सीटें आड़े नहीं आतीं।” वहीं, पूर्व केंद्रीय मंत्री और राजद सांसद जय प्रकाश नारायण यादव ने बताया, “सीटों का मसला महागठबंधन के नेता  मिल-बैठकर सुलझा लेंगे। सबको सम्मानजनक सीटें मिलेंगी।”

सूत्रों के मुताबिक बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव पांच लोकसभा सीटों की पेशकश कुशवाहा को कर चुके हैं। हालांकि वे छह सीटें मांग रहे हैं। राज्य में लोकसभा की चालीस सीटें हैं। 2014 में बिहार की तीन लोकसभा सीटों पर रालोसपा लड़ी थी। तीन फीसदी वोट के साथ पार्टी ने तीनों सीटें जीतीं। लेकिन, 2015 के विधानसभा चुनावों में करीब ढाई फीसदी वोट के साथ पार्टी केवल दो सीटें ही जीत पाई। लेकिन इन आंकड़ों के आधार पर कुशवाहा की राजनैतिक हैसियत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। असल में, 2015 के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद से ही कुशवाहा अपना सामाजिक आधार बढ़ाने में जुट गए थे। अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभावशाली नागमणि, भगवान सिंह कुशवाहा, जितेंद्रनाथ जैसे नेताओं को रालोसपा में लेकर आए। यही कारण है कि करीब डेढ़ साल से महागठबंधन उन्हें अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहा था तो बिहार सरकार की आलोचनाओं के बावजूद भाजपा उन्हें एनडीए से निकालने से बचती रही।

"एनडीए विरोधी सभी दलों का महागठबंधन में स्वागत है। लेकिन, तीसरे मोर्चे की बातें काल्पनिक हैं"

मदन मोहन झा, प्रदेश अध्यक्ष, कांग्रेस

 

रालोसपा के प्रदेश उपाध्यक्ष जितेंद्रनाथ का दावा है कि कुशवाहा के अलग होने के बाद एनडीए के लिए खासकर उत्तर बिहार में खाता खोलना मुश्किल हो जाएगा। उन्होंने बताया, “बिहार में सामाजिक और राजनीतिक तौर पर कोइरी, कुर्मी और धानुक एक तरह से रिएक्ट करते हैं। नीतीश से निराश होने के बाद यह वर्ग पूरी तरह कुशवाहा के पक्ष में लामबंद है।” कुछ महीने पहले ही धानुक-कुर्मी एकता मंच बनाने वाले जितेंद्रनाथ ने आउटलुक को बताया, “राज्य के 19 लोकसभा क्षेत्रों में कुशवाहा वोटर डेढ़ लाख से ज्यादा हैं। समस्तीपुर, उजियारपुर, मोतिहारी और गोपालगंज सीट पर उनकी संख्या ढाई से तीन लाख है। मुंगेर, लखीसराय, खगड़िया, झंझारपुर, बेगूसराय सीट पर भी यह वर्ग प्रभावशाली स्थिति में है।” राजद सांसद जय प्रकाश नारायण यादव का कहना है कि कुशवाहा के एनडीए छोड़ने का असर पड़ोस के झारखंड में भी देखने को मिलेगा। रालोसपा के कार्यकारी अध्यक्ष नागमणि झारखंड की चतरा सीट से सांसद भी रह चुके हैं। समाजशास्‍त्री चौधरी का भी मानना है कि सीमित अपील के बावजूद कुशवाहा के एनडीए छोड़ने का फायदा महागठबंधन को मिलना तय है। उन्होंने बताया, “कुशवाहा का एनडीए से अलग होना महागठबंधन की नैतिक जीत है। बिहार में एनडीए नीतीश के फेस और भाजपा के बेस पर चुनाव लड़ेगा। लेकिन, कुशवाहा के जाने से हुए नुकसान की भरपाई करने वाला दूसरा सामाजिक समूह उसके पास नहीं है।”

बिहार में लालू के ‘यादव कार्ड’ का विकल्प लव-कुश यानी कुर्मी-कोइरी के तौर पर तैयार करने का श्रेय नीतीश कुमार को जाता है। बिहार में कुर्मी दो-तीन और कोइरी पांच-छह फीसदी बताए जाते हैं। कुर्मी बिरादरी से आने वाले नीतीश और कोइरी समाज के कुशवाहा शुरू में साथ थे। लेकिन, अब दोनों के बीच खुद को इस वर्ग का मसीहा साबित करने की लड़ाई चल रही है। कुशवाहा ने आउटलुक को बताया, “नीतीश कुमार मुझे बर्बाद करना चाहते हैं। रालोसपा के विधायकों, सांसद को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।” रालोसपा के दोनों विधायक एनडीए छोड़ने का विरोध कर रहे हैं। पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भगवान सिंह कुशवाहा भी बगावती तेवर दिखा रहे हैं।

"कुशवाहा के जाने से एनडीए पर फर्क नहीं पड़ेगा। मोदी के कारण ही 2014 में रालोसपा को तीन सीटें मिली थीं"

नित्यानंद राय, प्रदेश अध्यक्ष, भाजपा

रालोसपा में टूट के आसार देख एनडीए नेता दावा कर रहे हैं कि कुशवाहा के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। भाजपा के बिहार प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय ने आउटलुक को बताया, “कुशवाहा की पुरानी आदत रही है कि वे जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं।” राय का दावा है कि कुशवाहा की कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है। 2014 में मोदी के कारण उनकी पार्टी को तीन सीटों पर सफलता मिली थी। अब एनडीए से अलग होने के बाद उनकी राजनीतिक हैसियत शून्य हो गई है। जदयू महासचिव के.सी. त्यागी ने बताया, “2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा-जदयू मिलकर राजद-कांग्रेस को हरा चुकी है। भाजपा-जदयू के साथ लोजपा का वोट शेयर जोड़ दिया जाए तो राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 38 पर एनडीए की जीत तय है। 2015 विधानसभा चुनाव के नतीजों से भी जाहिर है कि राज्य में रालोसपा की स्थिति नगण्य है।” हालांकि केंद्रीय मंत्री रह चुके और वर्तमान में बिहार विधान परिषद के सदस्य भाजपा के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर आउटलुक को बताया, “बिहार में एनडीए और महागठबंधन के बीच बराबरी का मुकाबला है। कुशवाहा के जाने से एनडीए को नुकसान होगा। जब पार्टी जदयू के लिए त्याग कर सकती है तो रालोसपा के लिए भी करना चाहिए था।”

कोइरी-कुर्मी समीकरण में कुशवाहा कितना सेंध लगा पाते हैं, यह तो आम चुनावों के नतीजों के बाद ही पता चलेगा। तभी यह भी तय होगा कि राज्य की राजनीति में नीतीश और लालू के मुकाबले वे कहां खड़े हैं। फिलहाल उन्होंने बिहार की राजनीति के एक और प्रमुख किरदार रामविलास पासवान की तरह ‘चुनावी मौसम विज्ञानी’ का खिताब हासिल करने का दांव जरूर चल दिया है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement