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दक्षिण में मंदिर सियासत

कुछ साल पहले तक केरल के बाहर मोटे तौर पर अचर्चित सबरीमला मंदिर अब देश भर में धर्म, समाज, राजनीति और कानून में स्त्रियों के साथ भेदभाव का मानो प्रतीक बन गया, क्या है हकीकत?
सबरीमला में पूजा के लिए लगी भक्तों की कतार

यह किंवदंती भक्त अयप्पा की है, जो उस देवी के दर्शन को पहुंचे, जिनके नाम पर इस तीर्थ-स्थकल का नाम पड़ा। लेकिन वे उन तीर्थयात्रियों से कुछ अलग रहे हैं, जो बद्रीनाथ, वैष्णो देवी, काशी या तिरुपति दर्शन को जाया करते हैं। सबसे पहले तो वे शाश्वत 'ब्रह्मचारी' हैं-कम से कम धर्मविधान या प्रथा के मुताबिक। लेकिन देश के नए विधि-विधान पर गौर करें तो वे अपनी यह विशेष प्रतिष्ठा खो बैठेंगे। यह खबर ऐसी झकझोरने वाली साबित हुई कि इसकी धमक केरल के बाहर भी महसूस की जा रही है। यह हाल के उन कुछेक मामलों में से एक बन गया है, जिनमें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने भारतीय संविधान की व्याख्या कुछ इस तरह की कि उसकी धारा स्‍थापित मान्यताओं या आस्था के विपरीत है। फरवरी 2017 में तीन तलाक पर फैसला आया। उसके साल भर पहले बॉम्बे हाईकोर्ट ने महिलाओं के लिए हाजी अली दरगाह खोलने का फैसला दिया था। इसके अलावा, महाराष्ट्र में शनि शिंगणापुर मंदिर पर भी ऐसा ही फैसला आया। इन सभी संवेदनशील मामलों के दौरान महिला-समर्थक फैसले अपेक्षाकृत शांतिपूर्वक दिए गए। लेकिन, सबरीमला मामला परेशानी का सबब बन गया है। यह फैसला एक बड़े फैसले से ठीक एक दिन पहले आया और आगामी जनवरी में जब शीर्ष अदालत में अयोध्या मामला सामने आएगा, तो कानून और आस्था फिर आपस में टकराएंगे। आम अयप्पा भक्त जब ‘स्वामी शरणम अयप्पा’ का जप करते सोने की परत वाले अंतिम पथिनतम्पादि (18 कदम) चढ़ रहे होंगे, तो उन्हें शायद ही देश में जारी इस ऐतिहासिक मंथन का एहसास होगा।

मंडलम सत्र के दौरान हर मिनट लगभग 70 से 80 लोग 18 पवित्र सीढ़ियां चढ़ते हैं। हर भक्त को दर्शन के लिए केवल दो सेकेंड मिलते हैं। यही वह समय है जब भक्त त्याग की शपथ लेता है, जो कठोर है। जब वह माला पहनता है, तो उसके बाद 41 दिनों तक उसे आवश्यक रूप से उपवास करना पड़ता है। मांस, शराब, तंबाकू, यौन संबंध का भी त्याग करना पड़ता है। साथ ही, काले या नीले रंग के वस्‍त्रों को पहनना पड़ता है। बाल और दाढ़ी नहीं कटाना होता है। दिन में दो बार स्नान और प्रार्थना करनी चाहिए। बिना तकिए के सोना चाहिए और मुमकिन हो तो नंगे पैर चलना चाहिए। यह एक कठिन यात्रा है। वह कोई शहरी, कोई एनआरआइ या केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश...के सुदूर गांव का रहने वाला हो सकता है, लेकिन जब तीर्थयात्री केरल में पेरियार टाइगर रिजर्व के घने जंगलों में प्रवेश करता है, तो उसकी जाति और वर्ग में भेद खत्म हो जाना चाहिए। यहां तक कि औपचारिक आस्था की रेखा भी धुंधली पड़ जाती है।

सबरीमला मंदिर 18 पहाड़ियों के बीच एक चोटी पर स्थित है, जहां सभी धर्मों के भक्त आते हैं। यहां अयप्पा के मुसलमान दोस्त वावर का एक तीर्थस्थान भी है, जो आपसी मेलजोल की परंपरा की अनूठी मिसाल है। जब 1920 और 1930 के दशक में केरल में हताश वर्गों के लिए मंदिर में प्रवेश का आंदोलन चल रहा था, तो सबरीमला को अपने दरवाजों को व्यापक रूप से खोलने के लिए किसी विशेष आदेश की जरूरत नहीं थी। आखिरकार, यह इसकी अनूठी खासियत थी कि हर अयप्पा भक्त खुद इस भगवान के नाम पर ही शपथ लेकर आंदोलन की शुरुआत करता। वे जब इकट्ठा होते तो फिर काले या नीले रंग का भेदभाव खत्म हो जाता। इस बंटे हुए समाज में तब कम-से-कम उस छोटी यात्रा के दौरान समानता आ जाती। हालांकि, स्वाभाविक रूप से वह समानता पुरुषों के बीच होती। अयप्पा की महिला भक्त मल्लिकाप्पुरम (महल के बाहर के लोग) के रूप में जानी जाती हैं। 10 वर्ष से कम और 50 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाएं ही मंदिर में जाती हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम होती है। हर साल सबरीमला पहुंचने वाले एक करोड़ भक्तों में से महिलाओं की संख्या महज चार लाख होती है।

मंदिर में प्रवेश का एक नियम 10 से 50 वर्ष की मासिक धर्म की उम्र वाली महिलाओं पर मंदिर में पूजा करने पर पाबंदी लगाता है। हालांकि, इसके कई अपवाद भी हैं। ये नियम दो मंदिरों की अधिसूचनाओं के माध्यम से आए (21 अक्टूबर, 1955 और 27 नवंबर 1956)। मंदिर के पुजारी ने अदालत में माना कि उन कानूनों के बावजूद महिलाएं मलयालम महीने के शुरुआती पांच दिन चोरूनू (बच्चों को चावल-खिलाने का समारोह) के लिए मंदिर आती हैं। 1991 में सुनवाइयों के दौरान दाखिल पीआइएल की वजह से केरल हाइकोर्ट ने महिलाओं के प्रवेश पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी। इसे हटाने के लिए इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन ने 2006 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की। उसके 12 वर्ष बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस साल 28 सितंबर को पाबंदी को असंवैधानिक और महिलाओं के पूजा करने के अधिकारों का उल्लंघन करार दिया। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक खंडपीठ ने कहा, “धर्म में शुद्ध भक्ति के तत्वों और किसी धर्म को मानने तथा प्रार्थना करने की आजादी पर पितृसत्ता को जीतने नहीं दिया जा सकता है। शारीरिक कारणों से महिलाओं के दमन पर वैधता की मुहर नहीं लगाई जा सकती है। शारीरिक विशेषता के आधार पर महिलाओं से भेदभाव या अलगाव न सिर्फ बेबुनियाद, अतर्कसंगत और अकल्पनीय है, बल्कि यह संवैधानिकता पर भी खरा नहीं उतर सकता है।” जस्टिस डी. वाइ. चंद्रचूड़ ने तो इसे जातिवाद से भी जोड़ा। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 17 का हवाला दिया, जिसमें गैर-बराबरी खत्म करने और समानता लागू करने की बात कही गई है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि मासिक धर्म के आधार पर महिलाओं का बहिष्कार करना अस्पृश्यता का एक रूप है। ऐसा करना संवैधानिक मूल्यों के लिए अभिशाप है।

एकमात्र असहमत राय जस्टिस इंदु मल्होत्रा की थी। पांच जजों की खंडपीठ में 4-1 के फैसले में उनके तर्कों का जिक्र वे लोग करते हैं, जो अब इस बदलाव का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने पाबंदी को एक जरूरी धार्मिक आस्था का विषय माना। उनके मुताबिक, इससे किसी भी तरह के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता है। उन्होंने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 25(1) आस्था या मंदिर के सिद्धांतों के हिसाब से देवता की खास तरह से पूजा करने का अधिकार देता है। वे कहती हैं, “इस मंदिर के उपासक ‘नास्तिक ब्रह्मचारी’ देवता की पूजा में विश्वास करते हैं। भक्तों ने देवता की आवश्यक विशेषताओं के आधार पर इस मंदिर द्वारा की जाने वाली पूजा को चुनौती नहीं दी है। सबरीमला में ब्रह्मचर्य और तपस्या का अभ्यास देवता की अनूठी विशेषता है। हिंदू देवताओं में भौतिक/अस्थायी और दार्शनिक दोनों रूप होते हैं। एक ही देवता विभिन्न स्वरूप हैं। इन सभी रूपों की पूजा अनूठी है और सभी लोग हर रूपों की पूजा नहीं करते हैं।”

केरल में कांग्रेस की अगुआई वाले यूडीएफ को छोड़कर सभी राजन‌ै‌तिक दलों ने फैसले का स्वागत किया। शुरू में केंद्र और राज्य दोनों जगह भाजपा का मानना था कि महिलाओं को सबरीमला में पूजा करने की इजाजत दी जानी चाहिए। आरएसएस से जुड़े भारतीय विचार केंद्रम के उप निदेशक आर. संजयन ने मुखपत्र जन्मभूमि में फैसले के पक्ष में एक लेख लिखा। उन्होंने कहा कि पाबंदी हटाने से सबरीमला के मूल सिद्धांतों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। तिरुवनंतपुरम से कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने भी फैसले का स्वागत किया। मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की अगुआई वाली माकपा की सरकार पहले दिन से ही फैसले को लागू करने के लिए तैयार थी। उसने समीक्षा याचिका दाखिल न करने का फैसला किया। त्रावणकोर देवास्‍म को एक स्वायत्त निकाय माना जाता है और फैसले के खिलाफ आवाज बुलंद होने के बावजूद इसने भी ऐसा ही करने का फैसला किया।

लोगों का इस फैसले के खिलाफ जाना और परंपराओं को बरकरार रखने के लिए सैकड़ों महिला भक्तों का सड़कों पर उतरना बिलकुल अप्रत्याशित था। ‘सबरीमला बचाओ’ आंदोलन ने पलभर में विशाल रूप अख्तियार कर लिया। फैसले का विरोध करने वाले ‘नाम जप यात्रा’ में महिलाओं और पुरुषों की भारी भीड़ उमड़ी। जो महिलाएं चाहती थीं कि इस विशेष परंपरा को बचाया जाना चाहिए, वे टीवी बहसों और सोशल मीडिया पर मुखर थीं। मंदिर के मुख्य पुजारी, पांडलम शाही परिवार और जाति आधारित बड़े संगठनों ने भी इस फैसले का विरोध किया।

इन बदलती परिस्थितियों को देखकर अवसरवादी राजनैतिक दलों ने बड़ी चालाकी से अपना रुख बदला। शशि थरूर ने बिलकुल नाटकीय तरीके से अपना रुख बदला। भाजपा-आरएसएस ने अचानक इसमें “सुनहरा मौका” देखा। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष श्रीधरन पिल्लै ने बाद में ऐसा माना भी। भाजपा के राज्यसभा सांसद वी. मुरलीधरन मानते हैं कि जनभावना का ख्याल रखा जाना चाहिए और इसलिए उन्हें अपना रुख बदलने पर मजबूर होना पड़ा। वे पूछते हैं, “हम समझ नहीं पा रहे कि राज्य सरकार ने अदालत के निर्णय को जल्दबाजी में लागू करने का फैसला क्यों किया। महिला कार्यकर्ताओं को पुलिस की सुरक्षा देने की क्या जरूरत थी?”

जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 17 अक्टूबर को पहली बार सबरीमला खुला, तो भक्तों की काफी भीड़ इकट्ठा हो गई। दिलचस्प बात यह है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक के मुख्य सचिवों को पत्र लिखकर सलाह दी कि राज्य सरकार ने अदालत के फैसले को लागू कराने का निर्णय किया है, तो सुरक्षा को लेकर सावधानी बरती जानी चाहिए। यहां तक कि धारा 144 भी प्रदर्शनकारियों को नहीं रोक पाई। उन्हें खुले तौर पर अब संघ परिवार का समर्थन हासिल है। पहले दिन मंदिर से लगभग 20 किलोमीटर दूर वे हिंसक हो गए और मीडिया की गाड़ियों में तोड़फोड़ की और पत्रकारों पर भी हमला किया। यह आरोप कि राज्य सरकार ने आंखों पर पट्टी बांध ली और “जल्दबाजी” में कदम उठाया, यह कम-से-कम आंशिक रूप से उचित लग रहा था। ऐसा लगता है कि उसने हितधारकों से बिना किसी चर्चा और जमीनी हकीकत का अंदाजा लगाए बिना ही फैसले को लागू करने की पहल कर दी। जब पुलिस की मदद से महिलाओं ने मंदिर में घुसने की कोशिश की, तो उन्हें बड़े पैमाने पर विरोध का सामना करना पड़ा। न्यूयॉर्क टाइम्स की 50 वर्षीय महिला पत्रकार सहित करीब 10 महिलाओं ने उन शुरुआती पांच दिनों में मंदिर में घुसने की कोशिश की, लेकिन उन्हें वापस लौटना पड़ा।

इस बीच एक सांप्रदायिक माहौल बनने में ज्यादा समय नहीं लगा। कुछ महिलाएं हिंदू नहीं थीं, इस बात ने भी भीड़ को उकसाने का काम किया। सोशल मीडिया पर फेक न्यूज तेजी से फैलती है और राजनैतिक दल अपने फायदे के लिए इसका इस्तेमाल भी करते हैं। इन्हीं फेक न्यूज के आधार पर भाजपा ने पठानमथिट्टा में हड़ताल का आह्वान किया।

यह भी अफवाह फैली कि रेहाना फातिमा नामक महिला मंदिर में सैनिटरी नैपकिन ले जा रही थी। इसका नेताओं और दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं ने खुलकर प्रचार किया। हालांकि, वह मंदिर में प्रवेश नहीं कर पाई। फिर भी उसके घर पर तोड़फोड़ की गई और भाजपा कार्यकर्ताओं ने घर के बाहर विरोध प्रदर्शन किया। न्यूजलॉन्ड्री ने एक लेख में इस अफवाह को गलत बताया। आइजी श्रीजिथ ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया कि उन्होंने रेहाना के इरुमुडी केट्टू (पवित्र वस्तुओं का थैला) की जांच की थी और उसमें केवल पूजा की सामग्री थी। फिर भी एक दक्षिणपंथी चैनल ने दुष्प्रचार जारी रखा। केरल को इससे भी बुरा दिन देखना बाकी था। यह गुस्सा जल्द ही हिंसा में बदल गया। इस हिंसा को सबरीमला की पहाड़ियों से परे खौफ का माहौल पैदा करने के लिए डिजाइन किया गया था। यह कुछ ऐसा था, जैसे अगर सामाजिक मनोवैज्ञानिक आशीष नंदी की पंक्तियों को थोड़ा ट्विस्ट करें, तो लगता है धार्मिक विचारधाराओं को बनाए रखने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करना लोगों का नया हथियार बन गया है।

ऐसे लोगों को निशाना बनाया गया, जो विरोधाभासी नजरिया रखते हैं या बहुसंख्यक आबादी की विचारधारा से अलग राय रखते हैं। इन पर विभिन्न तरीके से हमला किया गया। वामपंथी रुझान वाले अकादमिक सुनील पी. इलायीदम के दफ्तर पर तोड़फोड़ की गई। उन्हें मौत की धमकी मिली। इसी तरह की धमकी विद्वान और लेखक लक्ष्मी राजीव को भी मिली। स्वामी संदीपानंद गिरी की कई गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया। उनके आश्रम में भी आंशिक रूप से आग लगा दी गई। जिन महिलाओं ने सबरीमला में घुसने की कोशिश की थी, भीड़ उन्हें एक महीने बाद भी निशाना बना रही है। उनमें से एक महिला बिंदु थंकम कल्याणी हैं, जिनकी कहानी बेहद भयावह है।

43 वर्षीय बिंदु सरकारी स्कूल में शिक्षक और दलित कार्यकर्ता हैं। उनका मानना था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला महिलाओं के पक्ष में आएगा। उन्होंने पहले ही तीर्थयात्रा पर जाने के लिए अपनी तपस्या शुरू कर दी थी। उन्होंने 22 अक्टूबर को पुलिस को सूचित किया कि वह और उनके दो पुरुष मित्र एरुमली पहुंच चुके हैं। उन्होंने आगे जाने के लिए पुलिस की सुरक्षा मांगी। बिंदु बताती हैं कि पुलिस उन्हें मुंडाक्यम थाने ले आई और सलाह दी कि वे अपनी जगह के बारे में किसी को नहीं बताएं। वे आरोप लगाती हैं कि पुलिस गोपनीयता का खेल खेल रही है। यहां तक कि जब वे थाने में थीं, तभी टीवी चैनलों में खबरें आईं कि वे और उनके दोस्त सबरीमला जा रहे थे। फिर नाटक शुरू हुआ। उन्हें एक सरकारी बस में ले जाया गया। पंपा जाने के दौरान प्रदर्शनकारियों ने उनका रास्ता रोका और वापस नहीं लौटने पर जान से मारने की धमकी दी। उन्होंने और उनके दोस्तों ने लौटने का फैसला किया। लेकिन उत्तर केरल में कोझिकोड तक उनका पीछा किया गया। उन्हें लगा कि वे अब घर नहीं पहुंच पाएंगी, तो उन्हें अपने एक दोस्त के घर शरण लेनी पड़ी। यहां तक कि वहां एक न्यूज चैनल ने उन्हें झूठे तौर पर माओवादी या एक ईसाई मिशनरी का बताना शुरू कर दिया। वे कहती हैं, “यहां तक कि मेरे हाई स्कूल के छात्रों ने भी विरोध किया। जहां मेरा तबादला किया गया, वहां किराए पर घर भी नहीं ले पा रही हूं। ऑटो ड्राइवर भी बैठाने से मना कर देते हैं। मेरे स्कूल के शिक्षकों को नियमित रूप से बुलाया जाता है और कहा जाता है कि वे मुझसे दूर ही रहें। यह सब जाति की राजनीति की उपज है, क्योंकि मैं माला आर्यन द्वारा बनाई गई सबरीमला पर अपने दावों की वकालत करती रही हूं।”

हिंसा और धमकी का व्यापक माहौल केरल की प्रगतिशीलता को नुकसान पहुंचा रहा है। श्री नारायण गुरु, पंडित करुप्पन और चट्टंबी स्वामी जैसे सामाजिक दूरदर्शियों ने सदियों से जो समाज सुधार किए, वह खतरे में है। बुद्धिजीवियों और समाजविज्ञानियों के साथ-साथ आम आदमी भी हैरान है। संस्कृत के श्री शंकराचार्य विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अजय शेखर कहते हैं, “हर समाज में शैक्षिक तंत्र और मीडिया ही प्रगतिशील मूल्यों, उदारवाद और मानवीय मूल्य तथा न्याय की भावना को आगे बढ़ाता है। धार्मिक पितृसत्ता पर मीडिया की चुप्पी साफ दिख रही है। यहां तक कि अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित मीडिया भी चुप्पी साधे है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो कोई भी इसकी आलोचना करने की हिमाकत नहीं दिखा रहा है।”

मृदुलादेवी शशिधरन एक दलित कार्यकर्ता और संपादक हैं। उनका भी मानना है कि प्राथमिक स्कूल से ही संविधान पढ़ाया जाना चाहिए। वे विशेष रूप से बिंदु कल्याणी मामले को लेकर चिंतित हैं। इसे वे ब्राह्मणवादी परिप्रेक्ष्य में देखती हैं। वे बताती हैं, “काले कपड़े और बाल या दाढ़ी नहीं कटाना वंचित वर्ग से जुड़े प्रतीक हैं। कभी ऐसा भी था कि उन्हें काला छोड़कर दूसरे रंग के कपड़े पहनने की इजाजत नहीं थी। यह निश्चित रूप से सवर्ण जातियों का रंग नहीं है।”

थरूर केरल में नव-हिंदू पुनरुत्थानवाद और उससे लोगों के रुख में आए बदलाव के लिए “गल्फ बूम” के बाद भौतिकवादी लहर को जिम्मेदार ठहराते हैं। थरूर ने अपने रुख में बदलाव के पक्ष में तर्क दिया कि वे हिंदू महिलाओं द्वारा व्यापक विरोध के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने आउटलुक को बताया, “केरल में निश्चित रूप से प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। यह कई दशकों से प्रगतिशील आंदोलन की सफलता के खिलाफ होने वाली प्रतिक्रिया का नतीजा है। गल्फ बूम की वजह से बहुत सारे पैसे आए और इसके साथ ही केरल की पहचान को प्रभावित करने वाले कुछ विचारों के प्रति नजरिए में बदलाव आया। वह आगे कहते हैं, “केरल स्वाभाविक रूप से वाम से दक्षिण...विचारधारात्मक बहस के लिए जाना जाता था और विवाद केरल की सीमा के अंदर ही होते थे।” लेकिन अब भाजपा दुष्प्रचार कर रही है कि हिंदुओं के खिलाफ भेदभाव किया जा रहा है। उनका मानना है कि मंदिर प्रवेश आंदोलन के विपरीत सबरीमला में प्रवेश के लिए महिलाओं की कोई मांग नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा फैसला लिया, जो गैर-भाजपा समर्थक हिंदुओं के लिए भी एक कट्टरवादी वाला है।

दिलचस्प बात यह है कि जब पिनाराई भाजपा-आरएसएस पर हमला बोलते हैं, तो कम्युनिस्ट नेताओं को वोटबैंक खिसकने की भी चिंता होती है। वामपंथियों का लगभग 90 फीसदी काडर हिंदू भक्त हैं और उनमें मुख्यमंत्री के रुख के खिलाफ नाराजगी है। राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है कि केवल पिनराई ही साहसपूर्वक बोल रहे हैं, जबकि दूसरी पीढ़ी के नेता ज्यादातर चुप हैं। इस बीच, केरल अभी तक विनाशकारी बाढ़ की विभीषिका से पूरी तरह उबर नहीं पाया है। सबरीमला तीर्थयात्रियों के लिए महत्वपूर्ण शिविर वाली जगह पंपा पूरी तरह बह चुकी है। शिविर स्थल को नीलाक्कल में स्थानांतरित किया जा चुका है और वहां भारी संख्या में पुलिस की तैनाती का मतलब है कि भक्तों पर व्यापक पाबंदी है। राजनेता इस मुद्दे को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। वामपंथी सरकार की आलोचना करते हुए भाजपा सांसद मुरलीधरन कहते हैं, “नीलाक्कल में केवल 1000 भक्तों के लिए सुविधाएं हैं और पंपा में कुछ भी नहीं किया गया है।” भाजपा भी इन परेशानियों को कम करने के लिए कुछ नहीं कर रही है। पिछले हफ्ते मंडल पूजा के पहले दिन भाजपा समर्थक संगठनों द्वारा हड़ताल के आह्वान से अन्य राज्यों के भक्तों को परिवहन और भोजन के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। सुप्रीम कोर्ट अगले साल 22 जनवरी को 49 समीक्षा याचिकाओं पर सुनवाई करेगा। इस बीच, पवित्र पहाड़ियों में एकतरफ दंगे जैसी स्थिति है, तो दूसरी तरफ चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात है। लेकिन इन दोनों से कोई हल नहीं निकलने वाला है।

टाइमलाइन

1902 ः तजमन ब्राह्मण परिवार ने मला आर्यन नामक जनजाति से अधिकार छीनकर अपना वर्चस्व कायम कर लिया, जो शमनिक पंथ के थे

1920 ः के दशक में त्रावणकोर के महाराज एक पुजारी के साथ गए और पूजा की। शाही परिवार सक्रिय रूप से तीर्थयात्रा को बढ़ावा देता है

1939 ः त्रावणकोर की महारानी मंदिर गई थीं। उस समय वह 50 साल से कम उम्र की थीं। यह इस तरह के कई मामलों में एक है

1950 ः मंदिर में आग लग गई। इसके पीछे सांप्रदायिक एंगल होने का आरोप लगाया गया। दूसरों का कहना था कि शिकारियों ने यह किया होगा

1955 ः पहली बार औपचारिक रूप से महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी। त्रावणकोर देवास्म बोर्ड ने कहा कि 10-55 साल की महिलाएं प्रवेश नहीं कर सकतीं

1965 ः राज्य सरकार ने फैसला किया कि किसी भी हिंदू धर्मस्थल में रीति-रिवाज या परंपरा इजाजत नहीं देती तो महिलाएं प्रवेश नहीं करेंगी

1991 ः आखिरी पाबंदी लगाई गई। केरल हाईकोर्ट ने 10-50 साल की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर पाबंदी का फैसला दिया। यहां तक कि गैर-सत्र वाले महीनों के दौरान शुरुआती पांच दिनों में भी उनके प्रवेश पर पाबंदी रहेगी 

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