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नाम बदलने की राजनीति

विकास के जरिए देश का चेहरा बदलने में नाकाम हिंदुत्ववादी पार्टी केवल नाम ही बदल सकती है
मुगलसराय अब पं. दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन

दो उक्तियां मुद्दत से दुहराई जा रही हैं, शेक्सपियर ने कहा था, “नाम में क्या रखा है? गुलाब का कोई भी नाम हो, वह उतनी ही मीठी खुशबू बिखेरेगा।” इसी तरह कबीर ने कहा था, “जात न पूछो साधु की।” क्योंकि साधु संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है और इसलिए उसकी जाति भी शेष नहीं रहती। लेकिन क्या हकीकत इससे बिलकुल जुदा नहीं है? क्या वास्तविक जीवन में अब नाम और जाति ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण नहीं है? यूं भी देखें तो गुरुदत्त की कालजयी फिल्म प्यासा की गुलाबो अगर गुलाबो न होकर मिस रोज होती तो क्या उसका किरदार ठीक वैसा ही रह पाता जैसा फिल्म में है? इसलिए आश्चर्यजनक नहीं कि अस्मिता की राजनीति के लिए नाम का बहुत महत्व है, चाहे वह क्षेत्र, जाति, धर्म या किसी भी अन्य आधार पर की जाए। इसलिए स्थानों का नाम बदलना इस राजनीति की मजबूरी है, खासकर तब जब उसके पास जनता को लुभाने और गोलबंद करने के अन्य तरीके न बचे हों। स्थानों का नाम वही बदल सकता है जो सत्ता में हो और अक्सर सत्ताधारी नेता और पार्टियां स्थानों का नाम बदलने का शॉर्टकट अपना कर उसके द्वारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करती हैं। 

कई बार सदाशयता और अच्छी नीयत से किए गए काम के भी दूरगामी नतीजे अच्छे नहीं निकलते। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बुद्ध और उनके जीवन-दर्शन से बहुत प्रभावित थे। शायद इसीलिए स्वाधीनता प्राप्ति के बाद बनारस का नाम बदल कर वाराणसी कर दिया गया क्योंकि यही इसका प्राचीन नाम था और बौद्ध ग्रंथों में भी इसी नाम का उल्लेख मिलता है। इस कदम के पीछे किसी किस्म की अस्मिता की राजनीति नहीं थी लेकिन इसके कारण एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हो गई जो आज तक जारी है। आज तक भी वाराणसी नाम आम जनता के बीच स्वीकृति नहीं पा सका है। शहर को आज भी बनारस कहा जाता है और वहां के लोग अपने बनारसीपन पर गर्व करते हैं। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने बनारसीपन के बखान का एक भी मौका नहीं चूकते थे। धार्मिक हिंदू भले ही इसे काशी कहें, लेकिन आम लोग शहर को बनारस ही कहते हैं।  वाराणसी नाम केवल सरकारी कामकाज में इस्तेमाल होता है।

बाद में जब अस्मिता की राजनीति ने जोर पकड़ा तो बंगाली उपराष्ट्रवाद को तुष्ट करने के लिए कलकत्ता कोलकाता बन गया, तमिल उपराष्ट्रवाद के चलते मद्रास चेन्नई और मराठी अस्मिता के कारण बंबई मुंबई हो गया। फिर तो हालत यहां तक आ पहुंची कि यदि कोई बंबई या बॉम्बे नाम का इस्तेमाल कर दे तो शिवसेना के लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाएं। बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने जोतिबा फुले और छत्रपति शाहू महाराज के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए तो कोई खास पहल नहीं की लेकिन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के बाद पुराने शहरों के नए नाम और नए जिले बनाकर उनके नए नाम रखने की ताबड़तोड़ शुरुआत कर दी। हापुड़ पंचशील नगर, संभल भीम नगर और शामली प्रबुद्ध नगर हो गए। कई साल तक लोगों को पता ही नहीं चल पाया कि महामाया नगर या छत्रपति शाहू महाराज नगर नाम के जिले हैं तो कहां हैं? नए जिले पहले भी बनते थे लेकिन स्थानों के नाम नहीं बदले जाते थे। मेरठ को काट कर जब नया जिला बनाया गया तो उसका नाम मुख्यालय के नाम पर गाजियाबाद ही रखा गया। खैर, मायावती के बाद जब अखिलेश यादव सत्ता में आए तो उन्होंने पुराने नामों को बहाल कर दिया। नामों की इस रस्साकशी में किसी को भी यह ख्‍याल नहीं आता कि नाम बदलना खासी खर्चीली प्रक्रिया है, क्योंकि सरकारी स्टेशनरी से लेकर साइनबोर्ड और होर्डिंग सभी को नए सिरे से तैयार कराना होता है।

हिंदू अस्मिता की राजनीति करने में निष्णात भारतीय जनता पार्टी भी जनहित के काम करने के बजाय सडकों, रेलवे स्टेशनों और शहरों के नाम बदलने पर जोर दे रही है और इसके पीछे उसकी मुस्लिम विरोधी मानसिकता स्पष्ट रूप से झलक रही है। मुगलसराय का नाम बदलने के बाद इलाहाबाद और फैजाबाद के नाम भी बदल दिए गए हैं। सभी जानते हैं कि अकबर ने प्रयाग का नाम बदल कर इलाहाबाद नहीं किया था बल्कि एक नया किला बनाकर इलाहाबाद नाम से नई बस्ती बसाई थी। इसी तरह फैजाबाद लखनऊ से पहले अवध के नवाबों की राजधानी हुआ करता था और इसकी नींव भी इन नवाबों ने ही डाली थी। अयोध्या तो इससे सटी हुई छोटी-सी तीर्थनगरी है। विकास कार्यों के जरिए प्रदेश और देश का चेहरा बदलने में नाकाम रहने वाली हिंदुत्ववादी पार्टी अब केवल नाम ही बदल सकती है, क्योंकि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन करना उसके वश की बात नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि उसका नजला सिर्फ अतीत के मुस्लिम शासकों और वर्तमान के मुस्लिम समुदाय पर ही गिरता है। अंग्रेज शासकों से उसे कभी कोई परेशानी नहीं हुई और उसके राजनीतिक आख्यान में कभी अंग्रेजों के अत्याचारों का जिक्र नहीं होता जबकि हकीकत यह है कि मुस्लिम शासकों ने आम जनता पर व्यापक पैमाने पर जुल्म नहीं किए, लेकिन अंग्रेजों ने खुलकर ऐसा किया। भाजपा की सरकारों ने अभी तक किसी अंग्रेज के नाम पर स्थापित स्थान का नाम नहीं बदला है। उत्तराखंड में पहले भी उसकी सरकार रह चुकी है और आज भी है। लेकिन क्या कभी किसी ने लैंसडाउन का नाम बदलने की अफवाह भी सुनी?

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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