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स्वायत्तता, साख, संकट और सरकार के मंसूबे

वित्त मंत्रालय और आरबीआइ की तकरार ने फिर उठाए सरकार के स्टाइल पर सवाल
आरबीआइ बैठकः  गवर्नर उर्जित पटेल अपने सहयोगियों के साथ

सरकारें केंद्रीय बैंक की आजादी का सम्मान नहीं करेंगी तो कैपिटल मार्केट और इकोनॉमी पर विपरीत असर पड़ सकता है।  इसके बाद उन्हें पछतावा होगा कि एक महत्वपूर्ण संस्था को कमतर आंका गया। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य का 26 अक्टूबर को दिया गया यह सार्वजनिक बयान साबित करता है कि देश की इकोनॉमी को संभालने वाले दो चक्के वित्त मंत्रालय और आरबीआइ एक दिशा में नहीं चल रहे हैं। रिश्ते इस स्तर तक तल्ख हो गए हैं कि जो बातें बंद कमरों में होनी चाहिए थीं, वह दोनों पक्ष सार्वजनिक रूप से कर रहे हैं। नौबत यहां तक आ गई है कि आरबीआइ गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा दे सकते हैं, इसके भी कयास लगाए जा रहे हैं। अगर ऐसा होता है तो फाइनेंशियल मार्केट पर इसका काफी निगेटिव असर होगा। इसके पहले मोदी सरकार वैश्विक स्तर के प्रमुख अर्थशास्‍त्री अरविंद सुब्रमण्यन जो वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार और अरविंद पानगढ़िया को नीति आयोग का वाइस चेयरमैन बनाकर लाई थी। लेकिन दोनों अपने-अपने कारणों से सरकार का साथ छोड़ चुके हैं। अब उर्जित पटेल भी अगर साथ छोड़ते हैं तो सरकार की साख पर सवाल उठ खड़े होंगे।

 यह विवाद किस ओर रुख लेगा, इसके लिए अब सबकी नजर 19 नवंबर को आरबीआइ बोर्ड की बैठक पर टिकी है। मीटिंग के बाद क्या सुलह का कोई फॉर्म्युला तैयार होगा, या फिर स्थिति और बिगड़ जाएगी। कुल मिलकार यह सामान्य दौर नहीं है। क्योंकि अगर उर्जित पटेल इस्तीफा देते हैं, तो आजाद भारत में ऐसा दूसरी बार होगा जब कोई आरबीआइ गवर्नर सरकार के साथ तालमेल नहीं बन पाने के कारण इस्तीफा देगा। इसके पहले 1957 में आरबीआइ गवर्नर सर बेनेगल रामा राव ने इस्तीफा दिया था। उनका तत्कालीन वित्त मंत्री टी.टी.कृष्णमचारी के साथ विवाद हुआ था।

रघुराम राजन की इच्छा के बावजूद मोदी सरकार ने उन्हें आरबीआइ गवर्नर का दूसरा कार्यकाल न देकर उर्जित पटेल को गवर्नर पद पर बैठाया था। शुरू में जिस तरह से नोटबंदी के फैसले को आरबीआइ का समर्थन मिला, उससे इस बात की आशंका नहीं थी कि आने वाले दिनों में सरकार के साथ उसके रिश्ते इतने तल्ख हो जाएंगे। नेशनल इंस्टीट्‍यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआइपीएफपी) के प्रोफेसर एन.आर.भानुमूर्ति ने आउटलुक को बताया “दरअसल रिश्ते बिगड़ने की एक प्रमुख वजह सरकार की बैलेंसशीट और चुनावी साल है। सरकार एक तरफ अपने राजकोषीय घाटे को 2018-19 में 3.3 फीसदी पर बनाए रखना चाहती है तो दूसरी तरफ चुनावी साल में लोकलुभावन स्कीम को भी चलाना चाहती है। लेकिन जिस तरह से ग्लोबल और घरेलू फैक्टर इकोनॉमी की बहुत अच्छी तस्वीर नहीं पेश कर रहे हैं, उसमें सरकार के लिए अपनी कमाई बढ़ाना मुश्किल हो रहा है।” पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने कोलकाता में एक बयान में कहा कि सरकार आरबीआइ से एक लाख करोड़ रुपये की मांग कर रही है, जिससे कि वह चुनावों के पहले ज्यादा खर्च कर सके। ऐसे में उर्जित पटेल के पास दो ही रास्ते बचे हैं। या तो वे सरकार को एक लाख करोड़ रुपये दें या फिर इस्तीफा दें। दरअसल सरकार पर अपने एक प्रमुख वोट बैंक छोटे और मझोले कारोबारियों को खुश करने का दबाव है, जो नोटबंदी और जीएसटी के बाद बिजनेस में आई सुस्ती से परेशान है। इस वर्ग को राहत देने के लिए आरबीआइ ही सरकार का प्रमुख सहारा है। क्योंकि वह पॉलिसी के जरिए जहां कर्ज सस्ता कर सकता है वहीं छोटे कारोबारियों को ज्यादा कर्ज भी दे सकता है।

बैंकिंग सूत्रों के अनुसार सरकार आरबीआइ के जरिए स्पेशल पॉलिसी से बड़े उद्योगों को राहत देना चाहती है। भानुमूर्ति के अनुसार सरकार को भले ही यह सही लगता है लेकिन आरबीआइ अपनी जगह सही है। वह इकोनॉमी को लंबी अवधि के आधार पर देख रहा है। सरकार को समझना चाहिए कि टेक्निकल चीजों को आरबीआइ ही बेहतर समझ सकता है।

आरबीआइ पर ही क्यों नजर

आरबीआइ और सरकार के बीच तकरार बढ़ने की एक प्रमुख वजह नौ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का सरप्लस फंड है। यह पैसा आरबीआइ के पास है जो उसके पास आकस्मिक फंड, करंसी और गोल्ड रिवैल्युएशन अकाउंट के रूप में पड़ा है। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स का कहना है कि सरकार आरबीआइ से 3.6 लाख करोड़ रुपये की मांग कर रही है। हालांकि अब इस पूरे मामले पर सरकार की सफाई आई है कि उसने इस तरह की कोई मांग नहीं की है। वित्त मंत्रालय के एक वरिष्‍ठ अधिकारी के अनुसार आरबीआइ के पास जो पैसा है, उसके लिए सरकार एक नया मानक बनाना चाहती है। यानी आरबीआइ अपने पास कितना पैसा रख सकता है, उसका एक फॉर्म्युला तैयार करना चाहती है। ग्लोबल मानकों के अनुसार दुनिया के प्रमुख सेंट्रल बैंक अपनी कुल एसेट का 13-14 फीसदी रिजर्व के रुप में रखते हैं। सरकार ऐसा ही आरबीआइ के साथ भी करना चाहती है।

आरबीआइ के एक पूर्व गवर्नर ने आउटलुक को बताया कि अभी जो हो रहा है, वह किसी भी तरह से सही नही है। इससे सरकार और आरबीआइ दोनों की छवि को धक्का लग रहा है। अगर बैकडोर चैनल का इस्तेमाल किया गया होता तो इस स्थिति से बचा जा सकता था। लेकिन लगता है कि मौजूदा समय में दोनों पक्षों के बीच कोई संवाद नहीं है। इसके पहले भी कई बार ऐसी स्थिति आई है जब वित्त मंत्रालय और आरबीआइ के बीच तालमेल नहीं बन पा रहा था। लेकिन उसे बैकडोर चैनल के जरिए सुलझाया गया। चाहे अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के समय रुपये और पूर्वी एशियाई देशों में आए आर्थिक संकट का मामला रहा हो या फिर चिदंबरम और वाइ.वी. रेड्डी के समय का विवाद रहा हो।

आरबीआइ के एक पूर्व सदस्य का कहना है कि वित्त मंत्रालय और आरबीआइ में इस समय अहम की लड़ाई है। ऐसे में इसका रास्ता भी दोनों को ही निकालना होगा। उनके अनुसार अगर मौजूदा गवर्नर उर्जित पटेल की कार्यशैली देखी जाए तो वे काफी कम संवाद करते हैं। इस बात की शिकायत कई बैंकर्स को भी रही है। इसके अलावा एक अहम बात यह है कि नोटबंदी के फैसले और बाद में करंसी की गणना को लेकर जिस तरह से आरबीआइ की छवि बनी, उसे भी अब शायद पटेल तोड़ना चाहते हैं। जिसकी सरकार को शायद उम्मीद नहीं थी।

एक पूर्व बैंकर के अनुसार आरबीआइ के बोर्ड में एस.गुरुमूर्ति को शामिल करना भी विवाद की एक प्रमुख वजह बना है। बैठकों में गुरुमूर्ति का व्यवहार काफी आक्रामक रहा है। कई बार तो वह आरबीआइ गवर्नर की मौजूदगी को नजरअंदाज कर देते थे। उनके व्यवहार ने रिश्ते बिगाड़ने में आग में घी का काम किया। जब तक वित्त मंत्रालय और आरबीआइ अपने अहं को दरकिनार नहीं करेंगे तब तक यह मसला हल नहीं होगा।

किसी भी तरीके से आने वाले दिनों में ऐसी परिस्थिति नहीं खड़ी होनी चाहिए, जिससे आरबीआइ गवर्नर उर्जित पटेल को इस्तीफा देना पड़े। यहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्टेट्समैनशिप दिखानी चाहिए, जिससे आरबीआइ गवर्नर अपना कार्यकाल पूरा कर सकें और दोनों पक्षों में सहमति भी बन जाए, तभी आरबीआइ की साख बच पाएगी।

विवाद की टाइमलाइन

-सितंबर 2016 आरबीआइ ने खराब परफॉर्म कर रहे 11 बैंकों को प्रॉम्पट करेक्टिव एक्शन (पीसीए) के तहत डाला

-जून 2017 मौद्रिक समीक्षा नीति से पहले ब्याज दर घटाने को लेकर प्रजेंटेशन की डिमांड को आरबीआइ ने नकारा

-अगस्त 2017 सरकार ने आरबीआइ से 13 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त डिविडेंड मांगा

-फरवरी 2018 आरबीआइ ने कॉरपोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग, स्ट्रैटेजिक डेट रिस्ट्रक्चरिंग जैसी सुविधाओं को खत्म किया

-अगस्त 2018 सरकार ने आरबीआइ बोर्ड  में स्वदेशी जागरण मंच के एस.गुरुमूर्ति को नियुक्त किया, साथ ही नचिकेत मोर के कार्यकाल की अवधि को घटाया

-अगस्त 2018 भारत में पेमेंट सिस्टम को रेग्युलेट करने के लिए एक अलग से रेग्युलेटर बनाने की तैयारी

-सितंबर 2018 सरकार ने आरबीआइ से एनबीएफसी सेक्टर के लिए एक स्पेशल विंडो खोलने को कहा

सेक्शन-7, जिस पर हुआ विवाद

आरबीआइ एक्ट के तहत सेक्शन-7 का प्रावधान किया गया है जिसमें कहा गया है कि वैसे तो आरबीआइ अपने फैसले लेने के लिए सरकार से स्वतंत्र है। लेकिन किसी विशेष परिस्थिति में जब जनहित की बात हो तो सरकार आरबीआइ गवर्नर के साथ सलाह कर, आरबीआइ को समय-समय पर निर्देश दे सकती है

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