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गांधी की ‘छवि’ बदलने की ये कोशिशें

जो राष्ट्रीय आंदोलन में ही नहीं, (देश) विभाजन में क्या भूमिका निभा रहे थे उसे भुलाकर गांधी को विभाजन, से लेकर हर समस्या ही नहीं, मुल्क के स्वभाव से ‘मर्दानगी’ गायब करने वाला बताने की मुहिम चला रहे हैं
गांधी को भी ‘बदलने’ की हो रही कोशिश

मियां गालिब हमारे सबसे कंटेम्पररी हैं क्योंकि वक्त चाहे जो हो, वे बार-बार याद आते हैं, हर मौके पर याद आते हैं। ‘थी खबर गर्म कि गालिब के उड़ेंगे पुर्जे, तमाशा हम भी देखने आए मगर तमाशा न हुआ।’ उन्हीं का एक शेर है जो महात्मा गांधी के संदर्भ में याद आ रहा है। यह डेढ़ सौंवा साल है गांधी का और कस्तूरबा का भी। सरकार ने, गांधीवादी संस्थाओं ने और सामाजिक कामों में लगी अनेक संस्थाओं ने इस वर्ष को बड़े पैमाने पर मनाने का फैसला किया है। बा की बात क्षेपक के तौर पर इसलिए कि जो धूम गांधी की मचनी है, उसमें बेचारी बा को सिर्फ एक दिन नसीब हुआ है। और कई ऐसी गैर-सरकारी संस्थाओं ने बा का नाम इसलिए भी उछाला भर कि सरकारी आयोजन से बा गायब थीं। लेकिन अक्टूबर बीतने के बाद भी कुछ सरकारी बोर्ड, कुछ सरकारी कंपनियों के बोर्ड तथा विज्ञापनों और होर्डिंग के अलावा बाकी कुछ नहीं दिख रहा है। राजनीति का सुर तो चुनाव पर है, पर शासन और स्वयंसेवी जमात भी बेसुरी ही दिखती हैं। और ज्यादा बातें जो हों, साफ लग रहा है कि जब हम सिर्फ गांधी का नाम लेंगे और काम गोडसे का करेंगे तो अलग नतीजा नहीं हो सकता। यहां गांधी और गोडसे व्यक्तियों के रूप न होकर परस्पर विरोधी विचारों के प्रतीक हैं।

सरकारी तैयारी में गांधी के लिए तो भारी-भरकम बजट, डेढ़ सौ नोबल लॉरेट्स का जमावड़ा, डेढ़ सौ नौजवानों का डेढ़-डेढ़ सौ गांव जाना जैसे न जाने कितने कार्यक्रम हैं, चार सबसे लोकप्रिय आधुनिक बाबाओं के कथा-प्रवचन और गांधी ब्लैक बेल्ट देने जैसे कार्यक्रमों के साथ। भरोसा नहीं जमता तब भी बार-बार लगता है कि एक-एक आयोजन को, राजनैतिक लाभ देने वाले एक-एक कार्यक्रम को ‘ग्रैंड’ आयोजनों के जरिए चमका देने वाली सरकार इस अवसर को भी ‘ग्रैंड’ बनाएगी, आखिर वह भी गांधी का नाम किसी फायदे के लिए ही ले रही है, कर्तव्य का भाव नीचे ही है। सो, सरकार गांधी को कैसे याद करती है, मुल्क गांधी को कैसे याद करता है, दुनिया कैसे याद करती है, यह विचारणीय प्रश्न है। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि 1969 (गांधी शताब्दी) की कांग्रेसी सरकार के जमाने की तुलना में आज की भाजपा सरकार कैसा और कितना आयोजन करती है। कांग्रेस की सरकारें गांधी का नाम लेने और गांधी के काम को भुलाने में काफी आगे रही हैं। सो, यह जानना-देखना भी दिलचस्प है कि मूल रूप से गांधी को न मानने वाली जमात की सरकार सत्ता में आने के बाद गांधी का नाम तो बहुत ले रही है लेकिन गांधी के नाम पर क्या करती है? आखिर उसने गांधी के चश्मे और स्वच्छता मिशन को कैसा चमकाया है।

लेकिन गांधी का नाम सिर्फ राजनैतिक और दूसरे लाभ के लिए ही लेना जरूरी नहीं है। उनकी महानता इसलिए है कि उन्होंने अपने छोटे-से जीवन में कम से कम तीन महादेशों समेत पूरी दुनिया और मानव इतिहास को अपने ढंग से प्रभावित किया। यह काम उन्होंने किसी सत्ता, किसी शाही खजाने या बड़ी फौज के बल पर नहीं किया। जो बातें अच्छी लगीं, उन्हें अपने जीवन में उतारा, जो बुरी लगीं, उन्हें पीछे किया। जो पास आया उसके भी अच्छे गुण जगाने और बुराइयों को किनारा कराने का प्रयास किया। उन्होंने यही प्रयोग अपने आश्रम के साथियों, विराट राजनैतिक-सामाजिक-रचनात्मक आंदोलन के साथियों और फिर समाज के साथ किया। देखते-देखते लोग जीवन समर्पित करने लगे, किसी महिला के जेल जाते समय गांधी के अनजान सिपाही यानी खद्दरधारी को अपने सारे गहने सौंपने का भरोसा दिखाने का किस्सा तो छोटा है, लाखों लोगों ने गांधी को जीवन ही सौंप दिया। और इसी से गांधी समाज, राजनीति और आर्थिक जीवन की बुराइयों को हराने या किनारा करने और अच्छाइयों को ऊपर लाने में सफल रहे। इसी से दुनिया की (अपने समय में) सबसे बड़ी सैनिक शक्ति (ब्रितानी साम्राज्य) को हराया, सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति को चरखे और ग्रामोद्योग से चुनौती दी, हिंसक बलों को अहिंसा से चुनौती दी और सफल हुए।

गांधी हमारे जीवन में शामिल हैं, राष्‍ट्रपिता हैं तो सब सहते-भुगतते भी इस देश को शक्लो-सूरत देने में उनका योगदान सबसे ज्यादा है। हमने और हमारी सरकारों ने उनके कामों और कार्यक्रमों का बहुत ‘नाटक’ बनाया, भूख हड़ताल, सत्याग्रह, टोपी, खादी सब इस्तेमाल हुए। फिर भी गांधी और गांधीवाद के सहारे की जरूरत अभी भी सबको लगती है। हर नया आंदोलन उन्हीं तरीकों की तरफ जाता है, केजरीवाल तक का। इससे भी ज्यादा दुनिया में हो रहा है। रंगभेद के खिलाफ लड़ाई, राजनैतिक दमन के खिलाफ लड़ाई, फिलीस्तीन, बर्मा, दक्षिण अफ्रीका, तिब्बत जैसी हर बड़ी राजनैतिक लड़ाई गांधी के अहिंसक तरीके से लड़ी जा रही है, भूमंडलीकरण के विरोध में उभरा वर्ल्ड सोशल फोरम अगर बिना बताए/घोषित किए विकेंद्रीकरण, जैव-विविधता और टिकाऊ विकास के इर्द-गिर्द अपना विकल्प पेश करता है तो उसके सारे फॉर्मूले गांधी वाले लगते हैं। संयुक्त राष्‍ट्र अगर ‘मिलेनियम डेवलपमेंट गोल’ की जगह अपना तेरह सूत्री ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल’ घोषित करता है तो उसके नब्बे फीसदी कार्यक्रम गांधी बाबा वाले ही हैं। पर दुनिया ने न गांधी का सौवां साल मनाया, न अभी तक कहीं से डेढ़ सौवां साल मनाने की खबर है। हां, दुनिया भर में गांधी की मूर्तियां लग रही हैं, स्मारक बन रहे हैं तो इसी श्रद्धा और जरूरत के चलते।

तब भी अपने यहां के डेढ़ सौवें आयोजन का इंतजार इसलिए है कि आयोजन प्रिय मोदी सरकार और आजकल अतिरिक्त उत्साह में आया संघ परिवार ही मुख्य कर्ताधर्ता है, जिनका काम सब देख रहे हैं। गुजरात की उनकी ‘प्रयोगशाला’ में गांधी का शोर काफी है, बल्कि कांग्रेसी सरकारों वाले दौर से शायद ज्यादा है। गांधी और सरदार पटेल के बिना गुजरात-गौरव कैसे पूरा हो सकता है! साथ ही यह भी हुआ है कि गोडसे और सावरकर ही नहीं, हिटलर की किताब ‘मीन कॉफ’ की बिक्री पार्टी और संगठन से जुड़ी या दफ्तरों के आसपास की दुकानों पर बेतहाशा होने लगी है।

अब सोशल मीडिया के जमाने में तो आप गांधी की एक बात लिखिए, हजार गालियों वाली बात सामने आ जाती है। अगर गांधी ने कोई काम दबा-छुपाकर किया होता तो न जाने आज कितने ‘रहस्योद्‍घाटन’ होते, उनका जीवन खुली किताब होने के बावजूद भाई लोग न जाने कितने रहस्योद्घाटन करते जा रहे हैं। और खुद राष्ट्रीय आंदोलन में ही नहीं, (देश) विभाजन में क्या भूमिका निभा रहे थे या आज भी कितने विभाजन की तैयारी कर रहे हैं, इसे भुलाकर गांधी को विभाजन, दंगों से लेकर हर बड़ी समस्या ही नहीं, मुल्क के स्वभाव से ‘मर्दानगी’ गायब करने वाला बताने की मुहिम चला रहे हैं। इस मुहिम के पीछे कौन-सी ताकतें हैं, यह भी कोई बहुत अनुसंधान की बात नहीं है।

ईसा होते, खुद गांधी होते या हमारे-आपके भीतर कोई भी गांधीवादी अंश मौजूद हो तो हम यह कहकर इस सब प्रचार अभियान को माफ कर सकते हैं कि ‘ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।’ लेकिन ये जो कर रहे हैं उसका बड़ा हिस्सा हमारे-आपके, समाज के उन गुणों को दबाने और दुर्गुणों को उभारने का है, जिन्हें गांधी ने कम से कम पचास साल के अपने प्रयोगों के जरिए उभारा था और अपने साथ-साथ हिंदुस्तान और दुनिया में उन प्रवृत्तियों को सहेजकर बड़े से बड़ा नतीजा निकाला था। इसमें दुनिया से उपनिवेशवाद की विदाई भी शामिल है। गांधी कोई आसमान से ये गुण लेकर नहीं आए थे। उनकी शुरुआत कैसे हुई, कितने औसत आदमी थे, यह सब गिनाने का कोई खास लाभ नहीं है। लेकिन उन्होंने अपने और हमारे आपके भीतर की राक्षसी प्रवृत्तियों पर रोक लगाई, अच्छे गुणों को विकसित किया, व्यक्तिगत गुणों को सामाजिक आचरण में बदला और अहिंसा, सत्याग्रह, निर्भयता, अपने आचरण की समानता, सादगी से ऐसे नतीजे निकाले कि इतिहास बदल गया, काल की गति उलट दी। जरूरत लगी तो खादी के लिए इतिहास को दो सौ साल पीछे ले गए और मैनचेस्टर की सबसे आधुनिक मिलों को पीट दिया।

गांधी ने अपने प्रयोगों से ‘ईश्वर सत्य है’ की जगह ‘सत्य ही ईश्वर है’ साबित किया। सत्य का, अहिंसा का ऐसा पुजारी मानव इतिहास में नहीं आया है। व्यक्तिगत आचरण में अहिंसा का पाठ भगवान महावीर से लेकर बुद्ध और जाने कितने महात्माओं ने पढ़ाया था, गांधी ने उसे अभ्यास के जरिए सामाजिक आचरण की चीज बनाया, राजनैतिक हथियार बनाया और दुनिया की सबसे ताकतवर फौज को पीट दिया। उपभोग की, उत्पादन की सबसे अच्छी और व्यावहारिक बातों को आगे बढ़ाया पर यह प्रयोग उतना आगे नहीं ले जा सके, क्योंकि तब दूसरी तात्कालिक लड़ाइयों का दबाव था। हमारे समाज में ऊंचे दर्शन के शास्‍त्र थे पर आचरण में छुआछूत जैसी बीमारी बनी हुई थी। गांधी ने ऊंची बातें नहीं बोलीं पर छुआछूत मिटाने में लगे। आदमी-आदमी के बीच भेद किसी शास्‍त्र से, किसी मंदिर-मस्जिद से आए, गांधी ने उधर जाना बंद कर दिया। आदमी और ईश्वर के बीच मंदिर-पुरोहित और शास्‍त्रों की जरूरत खत्म कर दी। वैष्णव जन होने के लिए दूसरों की पीड़ा का अनुभव अर्थात करुणा भर होनी चाहिए।

आज गौर करेंगे तो हर चीज उलटती दिखती है। गांधी उत्पादन-उपभोग और टिकाऊ धरती के लिए कोट से लंगोट पर आए, आज सैकड़ों कपड़े और दिन में आठ बार ड्रेस बदलना फैशन बन रहा है क्योंकि शीर्ष वाले यही पढ़ा रहे हैं। गांधी ने कहा, “धरती सबकी जरूरत पूरी कर सकती है, पर एक का भी लोभ पूरा करने में अक्षम हो सकती है।” आज धन हो या सत्ता-सारी दुनिया एक या चंद लोगों की मुट्ठी में जा रही है। हर हिसाब बताता है कि गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही है, फालतू उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है, हथियार जैसे बेमतलब उत्पादों का अंत नहीं हो रहा है, जबकि दुनिया के इतिहास में नया नक्शा बनाने का दौर बीत गया है। दलित ही नहीं, मुसलमान-ईसाई भी नए अछूत बन गए हैं। अहिंसा मजाक की चीज है। निर्भयता किताबों से भी निकाली जा रही है। कैबिनेट और पार्टी के साथी भी सच बोलने से डरते हैं, उनसे भी सच छुपाया जा रहा है। ब्रह्मचर्य वगैरह तो मजाक की चीज बन ही गए हैं। राजनैतिक जीवन में ही नहीं, कथित धार्मिक और सामाजिक जीवन में ढोंग बढ़ता जा रहा है। और दुखद यह है कि जो जितना ताकतवर है, जिसे ज्यादा काम करना चाहिए, वही इन नकारात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहा है। जो आयोजन गांधी की 150वीं जयंती के नाम पर होने जा रहे हैं, उनमें भी इसी प्रवृत्ति का जोर दिख रहा है।

इससे भी ज्यादा दुखद मामला यह है कि उस गांधी को भी ‘बदलने’ की, उसकी छवि बदलने की कोशिश हो रही है, जिसने देश-दुनिया के सामने अपना खुला जीवन जिया और सारे प्रयोग खुले रूप में किए। वह गांधी गोसेवक था तो आज गौभक्तों की करतूत देख लीजिए। उस गांधी ने हर जगह आधुनिक गोशाला बनाई, चमड़े का काम खुद करने की प्रेरणा देने से लेकर बीमार बछड़े को मार्फिन का इंजेक्शन दिलवाने में नहीं हिचका, उसे उन गौभक्तों के साथ जोड़ा जा रहा है, जो गाय को सांप्रदायिक विभाजन का आधार बनाकर दल विशेष को लाभ दिलाना चाहते हैं। इतिहासकारों की पूरी टोली लगी है कि गांधी पर किस-किस बाबा और माता का असर था और गांधी की आध्यात्मिकता कितनी ऊंची थी। गांधी मंदिर भी गए तो दलितों को मंदिर प्रवेश दिलाने के लिए। धर्मगुरुओं से संपर्क साधा तो छुआछूत को हिंदू धर्मशास्‍त्रों से अलग साबित करने के लिए। गांधी ने अगर कहीं कदम वापस खींचे तो उसमें रणनीति भी हो सकती है, यह बताने की जगह उन्हें दोमुंहा और जाने क्या-क्या बताया जा रहा है।

दूसरी ओर, यह भी हुआ है और हो रहा है कि जो लोग खुद को गांधीवादी मानते-बताते हैं, गांधीवादी संस्थानों में रहे हैं या सामाजिक काम के लिए निकले हैं, नई संस्थाएं बनाई हैं, उनका निजी आचरण भले गांधी के ऊपरी आचरण जैसा हो लेकिन अन्याय का, असत्य का, गैर-बराबरी/भेदभाव का जो अहिंसक और बेजोड़ तरीके का प्रतिरोध मोहन दास को महात्मा गांधी बनाता है, ठीक वही बात उनके यहां गायब है। एक गांधी के न रहते ही उनके बीच पद की लड़ाई, छोटी-छोटी सुविधाओं की छीना-झपटी और भाई-भतीजावाद उसी तरह आता गया है जैसा कि राजनीति और समाज के अन्य क्षेत्रों में। गांधी के न रहने से जितनी गिरावट राजनीति के क्षेत्र में दिखती है, उससे कम गांधीवादियों और गांधीवादी संस्थाओं में भी नहीं आई है। उनके पास सब कुछ है, मगर तेज गायब है। उनमें गोडसे तत्व भले ही बाहर की तुलना में कम आया हो पर गांधी तत्व भी नहीं बचा है। उनमें और हम सबमें गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती में इस बात का स्मरण हो जाए, एहसास हो जाए तो भी इतिहास का यह एक साल सार्थक हो जाए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कई पुस्तकों के लेखक हैं। चंपारण सत्याग्रह पर ‘प्रयोग चंपारण’, बा और बापू उनकी चर्चित कृतियां हैं)

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