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कुछ चुनौतियां

नागरिकता-विहीन बोध की पराकाष्‍ठा के इस दौर में समाज, साहित्य, राजनीति सब सवालों के घेरे में
भाव-विहीनता से लड़ने की चुनौती स्वीकार करने की आवश्यकता

जीवन चाहे व्यक्ति का हो चाहे समाज का, देश का हो या विदेश का, चुनौतियों से भरा हुआ है। समाज, राजनीति, धर्म, कला, साहित्य ये सभी चुनौतियों से भरे हुए हैं। समाज में जाति-संप्रदाय, अमीर-गरीब के खाने बने हुए हैं। इनसे उत्पन्न भेद-भाव से निरंतर लड़ने की चुनौती महसूस होती रही है और चुनौती देते हुए मसीहा आते रहे हैं। लेकिन समस्या बनी हुई है। उम्मीद थी कि शिक्षा का प्रसार इस समस्या से लड़ेगा। लोग शिक्षा के नए आलोक से आलोकित होकर इस समस्या के अंधकार से लड़ेंगे लेकिन यह संभव नहीं हुआ। लोग पद-पैसे के अहंकार में डूबकर स्वन्यस्त होते गए और भाईचारा का भाव ठंडा पड़ता गया। बल्कि कल के अपढ़ लोगों में ज्यादा भाईचारा था, एक-दूसरे के दर्द में शरीक होने का जज्बा था। फैज के शब्दों में-

 कितने अच्छे लोग थे जिनको अपने गम से फुरसत थी

पूछे थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुजरे था।

राजनीति से उम्मीद की जाती है कि वह देश में व्याप्‍त्‍ा अनेक समस्याओं से लड़ने की चुनौती अनुभव करेगी। लेकिन विडंबना यह है कि वह अनेक दलों में बंट गई है। हर दल वोट लेने के समय तमाम समस्याओं का जिक्र करता हुआ उनसे टकराने की बात करता है, मगर वोट लेने के बाद सबकुछ भूल जाता है और वोट का बैलेंस बढ़ाने वाले कार्यों को प्रमुखता देने लगता है। देश का हित करने के स्‍थान पर ये दल परस्पर लड़ते रहते हैं।

कह रहा रहबर से रहबर जो किया अच्छा किया

पर हुआ जो भी बुरा वह आपके द्वारा हुआ

विडंबना यह भी है कि वे कुछ अच्छा काम करते हैं तो उसका उपभोग ऊपर के लोग ही कर लेते हैं। उसकी पहुंच नीचे तक नहीं हो पाती-

हमेशा आकाश से झरती है एक नदी

और हमेशा ऊपर ही ऊपर कोई पी लेता है

धरती प्यासी की प्यासी रहती है

और कहने को आकाश से नदी बहती है

धर्म अपने वास्तविक रूप में बहुत प्रकाशमान वस्तु है, लेकिन आज यह भी अनेक विसंगतियों से भरा पड़ा है। धर्म के नाम पर अनेक लोग रूढ़ियों, अंधविश्वासों और कर्मकांड के प्रभावों में जकड़े हुए हैं। वास्तव में वे धर्म के मूल रूप को समझते ही नहीं हैं। पढ़े-लिखे लोग भी इस अज्ञान से मुक्त नहीं हैं। प्राचीन काल से लेकर आज तक अनेक मसीहाओं और चिंतकों ने इन रूढ़ियों और अंधविश्वासों से लड़ने की चुनौती स्वीकार की। वे लड़े भी और इस प्रक्रिया में यातनाएं भी सहीं। कई मारे भी गए।

चुनौतियां हर क्षेत्र में हैं किंतु सबसे समीप की चुनौती है नागरिकता-बोध-विहीनता से लड़ने की। मुझे लगता है कि हमारे समाज में, हमारे देश में नागरिकता-बोध कुंठित हो गया है। नागरिकता-बोध-विहीनता की समस्या आए दिन की समस्या है। इससे उत्पन्न परेशानियां संवेदनशील व्यक्तियों को बेचैन करती रहती हैं। नागरिकता-बोध-विहीन लोगों को न कानून का भय है, न इन्हें अपनी आत्मा की आवाज सुनने की चिंता है। चौराहे पर लाल बत्ती चमक रही है। कार वाले, स्कूटर वाले, मोटरसाइकिल वाले लालबत्ती की ऐसी की तैसी करते हुए चौराहा पार किए जा रहे हैं। यदि पुलिस किसी को पकड़ लेती है तो उसकी सारी शेखी उतर जाती है और लगता है, हाथ जोड़कर माफी मांगने। इन लोगों के कारण जाम भी लगता है, आपसी टकराहटें भी होती हैं, स्कूटर और मोटरसाइकिल वालों की करामात की कुछ पूछिए मत, उन्हें बड़ी जल्दी पड़ी होती है। भीड़ के छोटे-छोटे अंतराल में घुसकर दाएं-बाएं होते हुए निकल जाने की कोशिश करते हैं। ये विपरीत दिशा से आकर जाम के आगे अपनी गाड़ी ठेल देते हैं, कारों की चिल्लपों का तो क्या कहना? कारें सड़कों पर अनावश्यक रूप से जोर-जोर से हार्न देती रहती हैं। उपहासास्पद बात तो तब होती है जब वे जाम में कई गाड़ियों के पीछे खड़ी होती है और हार्न देती रहती हैं। ऐसा लगता है मानो उनके हार्न देने से आगे की गाड़ी ऊपर उड़ जाएगी। सड़क तो सड़क, मेरे घर के सामने से निकलती हुई कारें अनावश्यक रूप से चिल्लाती रहती हैं।

नागरिकता-बोध-विहीनता का आलम यह है कि लोग अपने घर का कूड़ा दूसरे के दरवाजे पर फेंक आते हैं। मेरे घर के आगे की खुली जमीन प्रायः यह उत्पात भोगती रहती है। लोगों के पास एक छोटा-सा घर है वह भी दूसरी, तीसरी, चौथी मंजिल पर लेकिन उन्हें कार तो चाहिए ना। कार तो आ गई लेकिन उसे खड़ा कहां करें? इसके लिए दूसरे दरवाजे हैं ना! कई बार जब मेरी गाड़ी को घर आना होता है तब मैं उस आदमी की तलाश करता हूं जो मेरे दरवाजे पर गाड़ी ठेल गया है।

नए धनिकों के नागरिकता-बोध की तो पूछिए मत! उनके पास पैसा तो आ गया है लेकिन संस्कार गायब है। उन्होंने अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी स्कूटर थमा दिए हैं, जिन्हें वे इधर-उधर दौड़ाते रहते हैं। डर लगा रहता है कि कुछ हो न जाए। पटाखे हमारी संस्कृति का अंग नहीं रहे हैं पर, आज वे नागरिकता-बोध-विहीन लोगों के मनोरंजन का साधन बन गए हैं। त्योहार हमारे आनंद के लिए बनाए गए हैं, लेकिन अब वे पटाखा त्योहार हो गए हैं। पटाखे छोड़ने वाले लोग नहीं सोचते कि वे पटाखों के माध्यम से प्रदूषण-प्रसार में योगदान दे रहे हैं और बुजुर्गों और बीमारों का चैन छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। कोई मरे या जिए, इससे संवेदनहीन लोगों का क्या वास्ता! विडंबना की इंतहा देखिए कि ये अपने छोटे-छोटे बच्चों को पटाखों की ढेरी थमा देते हैं। एक छोटा-सा लड़का तो दशहरे के पहले से ही सुबह-दोपहर-शाम पटाखे छोड़े जा रहा है और आस-पास की शांति भंग कर रहा है। मां-बाप बेटे के शौर्य पर प्रसन्न हो रहे हैं।

नागरिकता-बोध-विहीनता की पराकाष्‍ठा तो तब दिखाई पड़ती है जब लोगों की भीड़ में कुछ लोग किसी निरीह को लात-मुक्का, छुरा, तमंचा से मार रहे होते हैं, किसी स्‍त्री की आबरू लूटी जा रही होती है और लोग चुपचाप खड़े-खड़े तमाशा देख रहे होते हैं। और न जाने कितने कुरूप

कार्य नागरिकता-भाव-विहीनता करवाती है। तो इस भाव-विहीनता से लड़ने की चुनौती स्वीकार करने की आवश्यकता है। अनेक उपायों में से एक उपाय यह है कि विद्यालयों की प्राथमिक कक्षाओं में नागरिकता-बोध अध्यापन का एक विषय होना चाहिए। बच्चों को इसका व्यावहारिक ज्ञान कराना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठतम कवि, कथाकार, संस्मरणकार हैं। पथ के गीत, बैरंग-बेनाम चि‌ट्ठियां, पानी के प्राचीर, सहचर है समय उनकी चर्चित कृतियां हैं)

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