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लोग सब देख रहे हैं

मौजूदा दौर में जो कुछ चल रहा है, वह न देश और समाज के हित में, न आजादी की प्रतिश्रुतियों के मुताबिक
हर तरफ समस्याओं का अंबार

आजादी के बाद से देश में काफी विकास हुआ है। देश के सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक क्षेत्र में बहुत कुछ बदला है। कुछ अच्छा तो कुछ बुरा भी हुआ है। आजादी के पहले तो देश में सूई तक नहीं बनती थी। यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी कि नेहरू के जमाने में स्टील की इतनी फैक्ट्रियां लगीं, उसका विकास हुआ। आजादी के बाद प्रधानमंत्री से मंत्री डरते नहीं थे। अपनी बात प्रधानमंत्री से खुलकर कह सकते थे। आजकल मंत्री और अधिकारी कोई जनता के संपर्क में नहीं रहता। वह पारदर्शिता अब नहीं रही। यह पिछली कई सरकारों से देखने में आ रहा है। उस जमाने में जब इमरजेंसी लगी, सरकार लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर रही थी, तब कई पत्रकारों ने सरकार के खिलाफ लिखा, लेकिन आज नहीं लिखा जाता। इमरजेंसी दो साल रही। इस दौरान लोग काफी परेशान रहे और उनके बहुत से अधिकार छिन गए, लेकिन उस जमाने में भी प्रधानमंत्री जनता दर्शन देता था, लोगों से मिलता था। अब वैसा नहीं है। सवाल यह है कि जो समस्याएं पैदा हो रही हैं, उसमें सोशल मीडिया ने समस्या और बढ़ा दी है। लोगों को मालूम नहीं है और कुछ भी लिखते जाते हैं। इससे कंफ्यूजन बहुत है। इसके लिए भी कायदा-कानून बनना चाहिए।

जब देश का संविधान बना था। उसके लिए एक कमेटी बनाई गई थी। विश्व के सभी देशों से उनके संविधान की प्रति मांगी गई थी। उसके आधार पर हमारा संविधान बना था। उसकी कमियों को नेहरू और डॉ. आंबेडकर ने भी अपने भाषण में बताया था, लेकिन वे सूक्ष्म थीं, इतनी बड़ी नहीं थीं। अब इतने बदलाव हो गए हैं कि उसका रूप ही बदल गया है। अब जो सरकार आती हैं वह अपनी जरूरतों के हिसाब से बदलाव करती हैं। संविधान को उतनी गहराई से नहीं लिया जा रहा है, जैसे पहले लिया जाता था। जब नोटबंदी शुरू हुई, तो जितने लोग मरे उनके लिए सरकार ने न कोई रास्ता खोजा, न कुछ किया, बात खत्म हो गई। संविधान में तो पारदर्शिता बहुत है, उसका उपयोग नहीं हो रहा है। उस समय सेंसर बोर्ड भी नहीं था, इसके बावजूद जो फिल्में आती थीं, वे लोगों का शोषण दिखाती थीं। अब शोषण की बातें ही नहीं होतीं।

देश पर पाकिस्तान ने आक्रमण किया था तो लालबहादुर शास्त्री ने तगड़ा ऐक्शन लिया था। अब चीजें गोपनीय तरीके से हो रही हैं। पता नहीं चलता कि कौन हित में है और कौन अहित में है। कश्मीर में लगातार हत्याएं हो रही हैं, लेकिन जनता को मालूम नहीं है। सरकार की मजबूरी है, नहीं बताना चाहती, लेकिन बताना चाहिए। आज छोटे-छोटे काम करने के लिए भी पब्लिसिटी हो रही है। उस जमाने में पाकिस्तान के खिलाफ कई सर्जिकल ऑपरेशन हुए, उसका कोई नोटिस नहीं लिया जाता था, लेकिन अभी एक कर दिया तो पब्लिसिटी हो रही है। कोई भी नया शहर, कोई भी नई बस्ती अभी तक नहीं बन पाई, जबकि पहले बहुत-सी बस्तियां बनीं। चार-पांच पीढ़ियां तो ऐसी आईं, जिन्होंने बहुत काम किया। सड़कें बनवाईं, अब सड़कें टूट जाती हैं, बनती नहीं हैं, जबकि यह छोटा-सा काम है। इतनी पार्टी सरकार में आ जाती हैं कि भ्रम बहुत है। मनमोहन सिंह के साथ गठबंधन पार्टियां अपने-अपने काम कराना चाहती थीं। भाजपा भी गठबंधन के सहारे सरकार में है तो इन पर भी दबाव है। सीट पर झगड़ा होता है। जब एक ही पार्टी थी, तो सीट पर झगड़े नहीं होते थे। राजनीति का स्तर गिरता चला गया। इस कारण सरकारों के सामने बहुत समस्याएं आईं।

सामाजिक क्षेत्र की बात करें तो महिलाओं के जीवन में बहुत परिवर्तन आया है। पहले जिस तरह का पारिवारिक दबाव और सामाजिक अंकुश था, उससे बाहर निकल कर वे घर और बाहर दोनों जगह काम कर रही हैं। आजकल घर की ज्यादातर खरीदारी महिलाएं ही करती हैं। इससे एक बात यह हुई है कि अब वे पहले की तरह समाज से नहीं डरतीं। खुद के ऊपर लगे अंकुश को खत्म करने के लिए उन्होंने खुद इनीशिएटिव लिया है। हालांकि परिवार का भी उसमें थोड़ा सहयोग है, लेकिन पूर्णता खुद के इनीशिएटिव से आई है। अभी जो ‘मीटू’ कैंपेन चल रहा है उसके बारे में मैं निणार्यक रूप से यह नहीं कह सकता कि यह बेहतर परिवर्तन है या नहीं, लेकिन इसने महिलाओं को और आजादी दी है। मानसिक ग्रंथियां जो थीं मसलन, पुरुष से बात नहीं करना और खुद को बचाकर रखना है, वह मेरे ख्याल से कुछ हद तक खत्म हो चुकी हैं और आगे चलकर कुछ पूरी तरह खत्म हो जाएंगी।

पहले तो ऐसा था कि यदि कोई इस तरह की दुर्घटना हो जाए तो महिलाएं जिक्र भी नहीं करती थीं, लेकिन अब खुलेआम कहती हैं कि मेरे साथ ऐसा हुआ। यह जो बदलाव आया वह पुरुषों के लिए भी अंकुश है कि महिलाएं अपनी आपबीती स्वतंत्रतापूर्वक कह रही हैं। यदि इसमें सफलता मिल गई तो फिर तो कुछ कहना ही नहीं है। मैं समझता हूं कि पुरुषों और उच्च वर्ग ने महिलाओं को ज्यादा बंधन में रखा था। इसी का नतीजा है कि अब वे सभी को एक्सपोज कर रही हैं, खासतौर से नौकरीपेशा महिलाएं। पुरुष भी स्वीकार कर रहे हैं। मसलन, केंद्र में हमारे एक मंत्री थे, उन्होंने कहा कि हां, हुआ, लेकिन सहमति से। ऐसा जवाब पहले शायद ही सुनने को मिलता। गनीमत यही है कि वे इसे स्वीकार तो रहे हैं। वरना अब तो बड़े से बड़ा अपराध करके भी निर्लज्जता के साथ नकारने की कितनी ही मिसालें आज मौजूद हैं।

महंगाई के साथ लोगों की आमदनी भी बढ़ी है। यह शहरों में ज्यादा है। सरकारी नौकरियों में जो हैं उनके पे स्केल रिवाइज हो गए। नेताओं, के मंत्री, पीएम सबकी तनख्वाहें बढ़ीं। इंजीनियरिंग, आइआइएम से पढ़े लोगों को इतना जबर्दस्त पैकेज मिल रहा है कि मेरी समझ में वे सोच भी नहीं पाते होंगे कि कहां खर्च करें। आर्थिक स्थिति सुधरी भी है और उलझी भी है। अलबत्ता गांवों की हालत उतनी अच्छी नहीं हुई है। क्योंकि ज्यादातर पुरुष जिनको शहरों में जाने का अवसर मिल जाता है, नौकरी मिल जाती है वो गांव नहीं लौटते। बूढ़े और महिलाएं ही गांव में रह जाते हैं। अभी एक-दो ऐसे मामले हुए हैं जो मैंने अखबारों में पढ़े हैं- माता-पिता के नाम पर मकान है। उन्होंने उसे बेटे-बहू को दे दिया तो उन्होंने उन्हें घर से निकाल दिया। लेकिन, माता-पिता ने भी सारे मोह छोड़कर उन पर मुकदमे किए, उनको निकलवाया। पहले ऐसा नहीं था।

दूसरे, शिक्षा में प्राइमरी स्कूल की हालत, गवर्नमेंट स्कूल की हालत बहुत खराब है। पिछले चार सालों में शिक्षा की बहुत उपेक्षा की गई है। कुछ समय पहले हाइकोर्ट ने फैसला दिया था कि मंत्री और अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ें, जिससे सरकारी स्कूलों की व्यवस्था सुधरे, लेकिन उस पर कुछ नहीं हुआ। आइआइटी कानपुर से मेरा संबंध रहा है, जब स्मृति ईरानी मंत्री थीं तो उन्होंने बजट में 75 फीसदी की कटौती कर दी थी, इससे रिसर्च स्कॉलर्स को बहुत असुविधा हुई। इसी तरह अकादमियां हैं, साहित्य अकादमी वगैरह। कुछ को तो सरकार ने ले ही लिया है, लेकिन साहित्य अकादमी पर बहुत अंकुश लग गया है। अनुदान घटा दिया गया और कहा गया कि अपने स्रोतों से पैसे जुटाइए।

मैं समझता हूं कि पिछले कुछ साल में साहित्य और किसान सब किनारे हो गए हैं। कहते हैं, यह मजदूरों की सरकार है, पर मजदूरों को बहुत परेशानी है। लॉ एंड ऑर्डर की सिचुएशन पिछले चार-पांच साल में बहुत बिगड़ी है। पहले पुलिस का टेरर था, अब मुख्यमंत्री की भी कोई नहीं सुनता। यूपी में, बिहार में तो हालत बहुत ही खराब है। सड़कों पर बहुत भीड़ बढ़ गई है। न सड़कें बनी हैं न कुछ हुआ है। इस वजह से परेशानी इतनी बढ़ गई है।

झूठ बोल-बोल के इन लोगों ने वोट ले लिए। पब्लिक तो उनके पक्ष में इस बार भी है, पर उतनी नहीं, थोड़ी कम। लेकिन सवाल यह है कि आदमी को निडर होकर, स्वतंत्रता के साथ जीने का अवसर कैसे मिले। ये बहुत मुश्किल हो गया है। इतना डराते हैं, लेकिन लोग डरते नहीं। सरकार का और पुलिस का आतंक था। अब तो सिपाहियों को गोली मार देते हैं। डिसीप्लीन अब नहीं रहा। पांच साल में कहते हैं आप सबसे अमीर हो जाएंगे, लेकिन पांच साल में आप सबसे गरीब भी हो जाएंगे। क्योंकि रोटी का टुकड़ा तो एक ही है न। जो ज्यादा हिस्सा काट लेगा वो अमीर हो जाएगा। तो इसे कैसे बांटेंगे। ये तो पीएम ने भी कहा है कि इस देश की स्थिति इन्हीं धनवान लोगों से सुधरेगी। गैप लगातार बढ़ता जा रहा है। मैंने कभी इतिहास में पढ़ा ही नहीं कि छोटी-छोटी बच्चियों का रेप किया जाए। ये इसी सरकार के दौरान हो रहा है और कोई नहीं बोलता इसके ऊपर। आप यदि अखबार उठाएं तो रोजाना तीन-चार केसेज बच्चियों के रेप के मिलते हैं। हत्या वगैरह तो हैं लेकिन ये तो वर्स्ट क्राइम है।

इधर चार-पांच साल में जो वाइस चांसलर नियुक्त हुए हैं, ज्यादातर वे सब प्रचारक के रूप में काम करने वाले थे। पढ़े-लिखे हैं लेकिन उनको वाइस चांसलर बना दिया। वे न तो छात्रों की साइकोलॉजी को समझते हैं और न अध्यापकों की। बीएचयू में आपने देखा कि वहां पर लड़कियों को कितनी तकलीफ दी गई। उस समय वहां के वाइस चांसलर ने तो कह दिया था कि जो भी अपने साथ छेड़खानी का या इस तरह की बात का बाहर प्रचार करेगा, वह चरित्रहीन समझा जाएगा। ये लोग सभी लोगों को खासतौर से नेहरू को बहुत गालियां देते हैं। पहले विद्वानों को ही कुलपति नियुक्त किया जाता था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, बीएचयू और लखनऊ यूनिवर्सिटी इसका उदाहरण हैं। लखनऊ यूनिवर्सिटी में आजादी के बाद आचार्य नरेंद्र देव को कुलपति बनाया। वे कई भाषाओं के विद्वान थे, लोग उनकी इज्जत करते थे, लेकिन अब तो बहुत मुश्किल हो गया है। ऐसे ही सेंट्रल यूनिवर्सिटी में, मसलन दिल्ली यूनिवर्सिटी थी या इलाहाबाद जो अब सेंट्रल यूनिवर्सिटी हो गई, वहां पर ऐसे लोगों को लाते थे, जिनकी विद्वता रिकोगनाइज हो और विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी उनके सामने न बोल पाएं। रामचंद्र गुहा को मैं जानता हूं, मुझे बहुत दुख हुआ। वे गांधीवादी हैं और देश के गिने-चुने विद्वानों में से हैं। अहमदाबाद विश्वविद्यालय में उनकी नियुक्ति का छात्रों ने इस आधार पर विरोध किया कि वे राष्‍ट्र विरोधी हैं। भला यह कैसे कहा जा सकता है। छात्र अपने आप तो विरोध नहीं करेंगे। जरूर कोई उन्हें प्रोत्साहित कर रहा होगा। उन्होंने रामचंद्र का विरोध किया, डर कर नहीं, बल्कि दूसरे ग्रुप के वहां के छात्र उनके लिए भी कठिनाई उत्पन्न करेंगे। रामचंद्र गुहा क्रिकेट बोर्ड के मेंबर बनाए गए थे, लेकिन वे चले आए छोड़कर। यह तो घोर असहिष्‍णुता का मामला है।

संघ तो शुरू से ही शिक्षा के खिलाफ था। जो पढ़-लिख लेते थे, उन्हें भी आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते थे। उस जमाने में मध्य प्रदेश में जो संस्कृति मंत्री थे, उनको व्यापम में जेल भेज दिया गया था। अब फिर उनको टिकट दिया जा रहा है। शिक्षा की स्थिति ये है कि पहले बोर्ड ऑफ स्टडीज, पाठ्‍यक्रम समितियां और सीनेट कोर्सेस बनाती थीं। आज सरकार निर्देश देती है कि यह पढ़ाओ, यह न पढ़ाओ। यहां तक कि गांधी और लाला लाजपत राय पर अनेक बड़े आदमियों के बारे में पहले किताबों में एक-आध पाठ रहता था। अब वह नहीं दिया जाएगा। लोगों को पता ही नहीं, एक बार गांधी का नाम सुन लिया, लेकिन यह नहीं पता कि कहां गए, क्या हुआ, उन्होंने क्या किया था। मैं सोचता हूं कि मंत्रियों और नेताओं को कोर्सेस बनाने में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। अगर कोई रिपोर्ट आए कि आपत्तिजनक है तब तो आप यूनिवर्सिटी से पूछिए, नहीं तो उसे चलने दीजिए। उसमें ये टांग अड़ाएंगे तो कैसे कोर्सेस बनेंगे।

सुधरा तो कुछ भी नहीं है और किसी को फिक्र भी नहीं है सुधारने की। सब अपनी-अपनी राजनीति में लगे हुए हैं। छोटी-मोटी चीजें करके ये चाहते हैं इसके लिए वाहवाही लूट लें और वाहवाही मिलती भी है। यहां तक कि प्रधानमंत्री ज्योग्राफिकल प्लेसेज को भी गलत कोट करते हैं। एक बार उन्होंने कहा कि मुझे तो छह सौ करोड़ लोगों ने चुनकर भेजा है। ये सब बातें वे बेधड़क होकर कहते हैं और लोग समझते हैं कि प्राइम मिनिस्टर कोई बात गलत थोड़े ही कहेगा।

इनको कानून-व्यवस्‍था सुधारनी चाहिए। बहुत बड़ी चुनौती है यह। पहले तो यह समस्या उत्तर भारत में ही थी अब तो दक्षिण में भी तेजी से फैल रही है। दूसरा ये कि पेट्रोल और डीजल की कीमतें जितनी बढ़ी हैं उतनी कम होनी चाहिए। अव्वल तो यह स्थिति नहीं आनी चाहिए कि किसान आत्महत्या करे और अगर यह स्थिति आए तो उसे मुआवजा मिले। इस सरकार को वो दावे या ऐसे लालच पब्लिक को नहीं देने चाहिए, जो वे पूरे नहीं कर सकते। रेलवे को ट्रैक सुधारना चाहिए। इतने एक्सीडेंट हो रहे हैं और कोई कुछ नहीं कह रहा। इतने पुल टूट रहे हैं कोई कुछ नहीं कह रहा। विश्वविद्यालयों में केवल पार्टी के आधार पर वाइस चांसलरों, प्रोफेसरों की नियुक्ति नहीं होनी चाहिए। बल्कि जाने-माने प्रोफेसरों­को ही वीसी बनाना चाहिए। प्रचारकों को वीसी नहीं बनाना चहिए। छात्रों के ऊपर गलत आरोप नहीं लगाने चाहिए। कन्हैया के खिलाफ आज तक आरोप कोर्ट में सबमिट नहीं हुए हैं। बच्चों को मिड डे मील मिलता है वो पौ‌ष्टिकक होना चाहिए।

अखबार में था कि राज्य सरकार नौ लाख बच्चों को स्वेटर बांटने वाली है, वह नहीं बंटे। सरकार जिस चीज को नहीं कर सकती, उसका लालच जनता को नहीं देना चाहिए। पुलिस को री ऑर्गनाईज करना चाहिए, जिससे अफसरों और जवानों में अपने उत्तरदायित्व को समझने का भाव आए। सीबीआइ जैसी संस्थाओं को पूरी स्वायत्तता मिलनी चाहिए। सीबीआइ की आज यह स्थिति हो गई है कि यहां भी रिश्वत ली जाती है। इनको पूरी तरह से बंद किया जाए। यह तो बहुत अनुशासन पूर्ण संस्था थी।

छोटी बच्चियों के साथ जो हो रहा है, वह तो हरगिज नहीं होना चाहिए। यह देश के लिए बड़े असम्मान की स्थिति है। किसानों को अधिकार दिया जाए कि अपना बोर्ड बनाकर अपने उत्पादों की दर तय करें। उसमें किसानों के प्रतिनिधि, सरकार के प्रतिनिधि और कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञ हों। ब्रिटिश सरकार के जमाने में और उसके बाद भी हिंदुस्तान रेलवे सर्विसेस सबसे चुनिंदा सर्विसेस में थी, लेकिन आज सबसे बुरी हालत में है। हरे-भरे पेड़ बिना अनुमति के कटवा दिए जाते हैं, उन पर रोक होनी चाहिए। जो रोक है, वह पर्याप्‍त नहीं है। साहित्यकारों और वैज्ञानिकों को सरकार को सम्मान देना चाहिए और सरकार चाहे तो उनकी सेवाएं भी ले सकती है। सरकार बच्चों को जिन बातों का आश्वासन देती है उसे पूरा करे, वरना वे सोचते हैं कि सरकार झूठ बोलती है और वह भी दंगा ब्रिगेड के सदस्य हो जाते हैं।

न्यायिक व्यवस्था पहले थी कि अगर कोर्ट का आदेश हो गया तो पत्थर की लकीर है। यह आजादी के बाद भी थी और आजादी के पहले भी। अब सुप्रीम कोर्ट तक में यह सवाल उठने लगा कि न्यायाधीशों की जो नियुक्ति होती है उसमें नियुक्ति का अधिकार सरकार को हो। लेकिन सुप्रीम कोर्ट हो या ऑडिटर जनरल या सीबीआइ, इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाना चाहिए। अभी सबरीमला को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, उसका विरोध केंद्र में सत्ता वाली पार्टी वहां कर रही है। यह गलत है। अगर आप असंतुष्‍ट हैं तो दोबारा उनके पास जाइए कि इसे ठीक कीजिए। वहां पर लोगों को बोलकर दंगा कराना ठीक नहीं है।

जो मुकदमे हैं, छात्रों, शिक्षकों या गृहस्थ लोगों के ऊपर उसे जल्दी से जल्दी निपटाया जाए। 16 साल बाद हाशिमपुरा का जजमेंट हुआ। गलत समय पर जजमेंट होना पीड़ित लोगों के परिवार और समाज की भी कठिनाइयों को बढ़ा देता है। किसी भी बड़े राजनीतिज्ञ को जो सम्मान दिया जाए, उसमें यह नहीं लगना चाहिए कि यह बदला लेने के लिए दिया गया है या दूसरों को शर्मिंदा करने के लिए दिया गया है।

उत्तर प्रदेश में हिंदी संस्थान ने जो पुरस्कार दिए हैं, उनमें से दो-चार ही ऐसे साहित्यकार हैं जो जाने-माने हैं। बाकी सब का नाम अपरिचित लग रहा था। जिन लेखकों ने सरकार को अपने सम्मान वापस किए थे, उनके खिलाफ असहिष्णुता का आरोप लगाकर वातावरण बना दिया गया था। लेखकों को उनकी कृतियों के आधार पर ही सम्मान दिया जाए। आपस की राजनीतिक दुश्मनी की गाज साहित्य या साहित्यकारों पर नहीं गिरनी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ कथाकार और स्तंभकार हैं। पहला गिरमिटया, जुगलबंदी, ढाई घर, चिड़ियाघर, पेपरवेट उनकी चर्चित कृतियां हैं। लेख शशिकांत से बातचीत पर आधारित है)

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