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समाजवाद का नेपाली रिश्ता

यह किताब कथा शैली में जिस तरह उस दौर की याद दिलाती है, वह नई पीढ़ी के लिए यकीनन नई शिक्षा प्रदान करती है
नेेपाल उर्फ लट्ठा पार की डायरी

वाकया 1950 के दशक का है। राणाशाही के खिलाफ संघर्ष में नेपाली कांग्रेस के मुक्ति संग्राम में तब के महाराजा ‌त्रिभुवन विक्रम शाह के समर्थन और भारत सरकार के हस्तक्षेप से बनी अंतरिम सरकार में वी.पी. कोइराला गृह मंत्री बने और देश में प्रजातंत्र की शुरुआत हुई। “इस मौके पर भारत में समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने कोइराला को चिट्ठी लिखी कि कानून बनाकर तत्काल भूमि सुधार का काम शुरू हो। जहां-जहां मुक्तिसेना ने कब्जा किया है, वहां पहले भूमिहीनों के बीच भूमि वितरण द्रुत गति से किया जाए। इसके पहले उन्होंने अंग्रेजी भाषा हटाने का भी अनुरोध किया था।” वरिष्ठ पत्रकार रवीन्द्र भारती की किताब नेपाल उर्फ लट्ठा पार की डायरी से यह संदर्भ आज सहसा अविश्वसनीय-सा लगता है। नई पीढ़ी को तो यह समझने में भी देर लगेगी कि भारतीय समाजवादी आंदोलन का एक सार्वभौमिक चरित्र था और उसके परिप्रेक्ष्य में सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि समूची मानव जाति के न्याय-अन्याय के मुद्दे जुड़े थे।

नेपाल से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और समाजवादी आंदोलन का गहरा रिश्ता रहा है। लगभग सभी भारतीय समाजवादी नेताओं के लिए जैसे नेपाल कोई और देश था ही नहीं। न कोइराला और नेपाली कांग्रेस के नेताओं ने भारतीय नेताओें को कभी पराया माना। इसी किताब से यह संदर्भ देखिए। “चंद महीने हुए होंगे, वी.पी. कोइराला को नेपाल के गृह मंत्री का पद संभाले हुए कि डॉ. लोहिया ने पुनः उन्हें याद दिलाया कि कुछ दिनों पूर्व जो मैंने चिट्ठी लिखी थी, उन सुझावों का क्या हुआ? आपने कोई अमल तो किया नहीं। मैंने यह भी कहा था कि अपने लोगों को मंत्रिमंडल में अधिक तरजीह मत दो......यह समाजवाद का रास्ता नहीं है।”

अब आज के दौर में ये बातें राजनीति की चर्चा से ही गायब हैं कि “कम योग्य हों फिर भी दूसरे लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल करो।” आज निर्णायक नेतृत्व और मजबूत तथा स्थिर सरकार के इस दौर में ऐसे लोकतांत्रिक आग्रह भी समझ से परे लगने लगे हैं। वैसे, डॉ. लोहिया की नाराजगी इतने से ही कम नहीं हुई थी। कोइराला जब बतौर गृह मंत्री दिल्ली आए तो उन्होंने उनसे मिलने तक से इनकार कर दिया। अब यहां भारत का संदर्भ लीजिए कि केरल में 1950 के दशक में पहली बार समाजवादी सरकार बनी और एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोली से एक व्यक्ति की मौत होने पर डॉ. लोहिया ने अपनी ही पार्टी की देश में पहली सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ दी। उनकी दलील थी कि कोई लोकतांत्रिक सरकार लोगों पर गोली चलाने का अधिकार कैसे पा सकती है। इस विवाद से पूरी समाजवादी पार्टी में टूट-फूट हो गई। इन वाकयों को आज याद करना इसलिए जरूरी है कि अपने देश ही नहीं, नेपाल में भी समाजवादियों की दशा देखकर सहसा यकीन करना मुश्किल होता जा रहा है कि कभी समाजवादी आंदोलन का मूल स्वरूप क्या था।

यह किताब कथा शैली में जिस तरह उस दौर की याद दिलाती है, वह नई पीढ़ी के लिए यकीनन नई शिक्षा प्रदान करती है। नेपाल के मुक्ति आंदोलन में डॉ. लोहिया, जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर, फणीश्वर नाथ रेणु, रामवृक्ष बेनीपुरी और अनेक समाजवादी नेताओं के किस कदर सरोकार रहे हैं, वे कैसे इसमें पूरी तरह सक्रिय रहे हैं, यह किताब जैसे उसका दस्तावेजी सबूत है। नेपाल से सटे बिहार के इलाकों के कितने ही समाजवादी नेता कितनी लगन और भावना से उस संग्राम में जुड़े रहे हैं, उनकी दास्तान को यह किताब फिर जीवंत कर देती है। ये ऐसे नाम हैं, जो इतिहास के गर्दो-गुबार में कहीं गुम हो गए।

बहरहाल, यह किताब सिर्फ नेपाल के लोगों को ही अपने संग्राम की याद नहीं दिलाती, बल्कि भारत में समाजवादी आंदोलन के अध्येताओं के लिए भी एक अहम दस्तावेज की तरह है। इसकी किस्सागोई भी ध्यान खींचती है और घटनाओं, संवादों के जरिए ऐसी सुंदर तस्वीर पेश करती है, एक ही बार में पढ़ी जाती है। प्रूफ और वाक्य संरचना संबंधी कुछ त्रुटियां जरूर ध्यान खींचती हैं लेकिन इसमें आंचलिक भाषा और बिंबों की झलक एक अलग तरह का स्वाद भी पेश करती है। आज वाकई न वह नेपाल है, न वह समाजवादी आंदोलन, न वह भारत। इसलिए इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए।

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