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एनडीए में कुशवाहा क्लेश!

बराबर सीटों पर लड़ने के भाजपा-जदयू की घोषणा से रालोसपा के तेवर तीखे
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

जदयू की बीते साल एनडीए में वापसी के बाद से ही केंद्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (रालोसपा) के पाला बदलने के कयास लगाए जा रहे हैं। लेकिन, पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से राजनीतिक घटनाक्रम बदले हैं उससे बिहार में एनडीए का कुनबा बिखरता नजर आ रहा है। हालांकि कुशवाहा अब भी एनडीए में बने रहने और सीटों को लेकर गठबंधन के भीतर चीजें तय नहीं होने का दावा कर रहे हैं। लेकिन, सूत्र बताते हैं कि 30 अक्टूबर को दिल्ली में कुशवाहा के साथ हुई बैठक में भाजपा महासचिव तथा बिहार के प्रभारी भूपेंद्र यादव ने साफ कर दिया कि रालोसपा को दो से ज्यादा लोकसभा सीटें नहीं दी जा सकती।

इस बैठक के बाद कुशवाहा ने बताया, “बातचीत अच्छी रही, लेकिन सीटों को लेकर अभी कुछ तय नहीं हुआ है। मैं चाहता हूं कि नरेंद्र मोदी फिर से देश के प्रधानमंत्री बनें।” लेकिन, लगे हाथ उन्होंने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में 66 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान भी कर दिया। जानकार बताते हैं कि कुशवाहा चाहते हैं कि भाजपा उन्हें एनडीए और कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखलाए ताकि वे खुद को ‘शहीद’ की तरह पेश कर सकें। साथ ही वे महागठबंधन में जाने की हड़बड़ाहट भी नहीं दिखाना चाहते, क्योंकि 2014 लोकसभा चुनाव से पहले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव से गठबंधन की कोशिश में उनके हाथ निराशा लगी थी। उस समय भाजपा ने उन्हें तीन सीटें दी थी और तीनों पर उनकी पार्टी के उम्मीदवार जीते थे। बाद में जहानाबाद से सांसद अरुण कुमार ने बगावत कर अलग पार्टी बना ली। सूत्र बताते हैं कि कुशवाहा इस बार भी कम से कम तीन सीट चाहते हैं। रालोसपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता माधव आनंद ने आउटलुक को बताया, “तीन से कम सीटों पर कोई समझौता नहीं होगा।” उनकी माने तो तीन में से एक सीट भाजपा चाहे तो झारखंड में भी रालोसपा को दे सकती है। असल में रालोसपा के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि झारखंड की चतरा सीट से सांसद रह चुके हैं। दलबदल के लिए मशहूर नागमणि के बारे में कयास लगाया जा रहा है कि टिकट नहीं मिलने पर वे पार्टी तोड़ सकते हैं।

इधर या उधर ः अरवल सर्किट हाउस में तेजस्वी यादव के साथ उपेंद्र कुशवाहा (दाएं)

बताया जाता है कि रालोसपा के फॉर्मूले पर शुरुआत में भाजपा नेतृत्व ने लचीला रुख दिखाया था। लेकिन, 26 अक्टूबर को दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साझा प्रेस कांफ्रेंस के बाद रालोसपा नेताओं की प्रतिक्रिया उसे नागवार गुजरी है। असल में उसी दिन बिहार के अरवल में कुशवाहा और बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव की मुलाकात हुई थी। बाद में कुशवाहा ने इसे महज ‘संयोग’ बताया। लेकिन, फिर 29 अक्टूबर को पहले से तय कार्यक्रम की बात कह वे अमित शाह के साथ प्रस्तावित बैठक के लिए दिल्ली नहीं पहुंचे। बताया जाता है कि मुलाकात के वक्त कुशवाहा समस्तीपुर में गैस एजेंसी का उद्घाटन कर रहे थे।

साझा प्रेस कांफ्रेंस में नीतीश और शाह ने ऐलान किया था कि बिहार में इस बार भाजपा-जदयू बराबर सीटों पर लड़ेंगी। इसके बाद से ही 17-17 सीटों पर भाजपा-जदयू के और अन्य सीटों पर सहयोगियों के लड़ने के कयास लगाए जा रहे हैं। बताया जाता है कि लोजपा को चार सीटों की पेशकश की गई है। पार्टी सुप्रीमो और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान अगला चुनाव नहीं लड़ना चाहते, इसलिए एनडीए उन्हें राज्यसभा भेजने को भी तैयार है।

जानकारों का मानना है कि एनडीए में जारी रस्साकशी बिहार में खुद को लव-कुश यानी कुर्मी-कोइरी समाज का मसीहा साबित करने की लड़ाई है। असल में, नीतीश ने पिछड़ी जाति के ‘लव-कुश’ को साथ लाकर लालू के ‘यादव कार्ड’ का विकल्प तैयार किया था। तब से ही यह तबका उनके साथ रहा है। इस समीकरण को मजबूती देने के लिए ही 2005 में नीतीश ने उपेंद्र कुशवाहा को विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया था। बाद में दोनों अलग हो गए। नीतीश खुद कुर्मी तो कुशवाहा कोइरी जाति से आते हैं। बिहार में कुर्मी दो-तीन और कोइरी पांच-छह फीसदी बताए जाते हैं। नागमणि ने आउटलुक को बताया, “कुशवाहा बिरादरी के नेता जब तक अलग-अलग थे तब तक नीतीश कुमार को इस वर्ग का एकमुश्त वोट मिलता रहा। लेकिन, अब समाज के सभी नेता उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व में एकजुट हैं। मेरे और भगवान सिंह कुशवाहा के रालोसपा में शामिल होने के बाद नीतीश कुमार केवल डेढ़ फीसदी वोट के नेता रह गए हैं।” उनका दावा है कि राज्य में एनडीए और महागठबंधन के बीच बराबरी की लड़ाई में रालोसपा जिधर जाएगी पलड़ा उधर ही झुकेगा।

लेकिन, जदयू महासचिव के.सी. त्यागी का मानना है कि रालोसपा के जाने से एनडीए की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है। उन्होंने आउटलुक को बताया, “2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा-जदयू मिलकर राजद-कांग्रेस को हरा चुकी है। 2014 में जब जदयू अकेले लड़ी थी तब भी उसे 17 फीसदी वोट मिले थे। भाजपा-जदयू के साथ लोजपा का वोट शेयर जोड़ दिया जाए तो राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 38 पर एनडीए की जीत तय है। 2015 विधानसभा चुनाव के नतीजों से भी जाहिर है कि राज्य में रालोसपा की स्थिति नगण्य है।”  ऐसे में यह देखना मौजूं होगा कि कुशवाहा की राजनीति कयासों और संयोग से बाहर निकलकर किस करवट बैठती है।

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