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मोहभंग के डरावने नतीजे

बेहद मामूली वोट प्रतिशत ने बनाया चुनाव को प्रहसन, विधानसभा चुनाव के पहले हालात सुधारने की चुनौती
पसरा सन्नाटाः श्रीनगर के गागरीबल का मतदान केंद्र

जहां देश के बाकी राज्यों में चुनाव सत्ता हस्तांतरण का एक लोकतांत्रिक उत्सव होते हैं, वहीं आतंकवाद और अलगाववाद से जूझती कश्मीर घाटी में इनका महत्व बहुआयामी हो जाता है। जहां यह भारतीय सत्ता और भारत के लोकतंत्र में कश्मीरी जनता के भरोसे का बैरोमीटर बन जाता है। 1987 के बदनाम लोकसभा चुनावों के बाद से ही वहां हुर्रियत सहित सभी अलगाववादियों द्वारा चुनावों के लगातार बहिष्कार की अपील की जाती रही है, लेकिन इसके बावजूद कुछेक मौकों को छोड़कर जनता की भागीदारी अच्छी खासी रही है। 2014 के लोकसभा चुनावों में तो मतदान प्रतिशत पिछले 25 वर्षों में सबसे अधिक रहा था। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति से परे विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनावों में कश्मीरी जनता की भागीदारी अपने क्षेत्र के विकास की प्रक्रिया और वहां के प्रशासन में हिस्सेदारी के लिए भी होती है। इसीलिए धमकियों और बहिष्कारों की अपील के बावजूद जब 2005 और 2011 में पंचायत और नगरपालिका चुनाव हुए थे, तो जनता ने भारी संख्या में भागीदारी की थी। नब्बे के खूनी दशक के बाद हो रहे 2005 के पंचायत चुनावों में तो घाटी का मतदान प्रतिशत जम्मू और लद्दाख से भी ज्यादा था। कुछ जगहों पर सौ प्रतिशत लोगों ने वोट दिए तो गांदेरबल, कुपवाड़ा और बारामूला में 85 प्रतिशत से अधिक वोट पड़े थे। 

2015 में बुरहान वानी की हत्या के बाद से ही घाटी में जिस तरह का उफान आया है, उसके बाद के हालात की थोड़ी भनक तभी मिल गई थी, जब पिछले साल फारूक अब्दुल्ला और नाजिर अहमद खान जैसे उम्मीदवारों के बावजूद प्रतिष्ठित श्रीनगर-बडगाम लोकसभा सीट के उपचुनावों में केवल 7.14 प्रतिशत वोट पड़े और उसमें भी एक प्रतिशत से अधिक वोट नोटा के थे। हालात ऐसे बने कि महबूबा मुफ्ती के इस्तीफे से खाली हुई अनंतनाग लोकसभा सीट के लिए मई 2017 में प्रस्तावित उपचुनावों को टाल दिया गया और दक्षिण कश्मीर में जारी तनावों के मद्देनजर वहां अब तक चुनाव नहीं हो सका है।

घाटी में अलगाववादियों के बढ़ते प्रभाव और जनता के बीच भारी असंतोष को देखते हुए दोनों प्रमुख पार्टियों ने इन चुनावों में भाग न लेने का निर्णय किया। पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस दोनों ने ही इन चुनावों से अलग रहने के लिए धारा 35-ए पर केंद्र सरकार के रवैए को बहाना बनाया, लेकिन इन चुनावों के प्रति जनता की भारी अरुचि की संभावना ही थी, जिसने कुछ दिनों पहले लोगों से ‘बेहतर भविष्य और विकास’ की अपील कर रहे फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को सुर बदलने पर मजबूर किया। फिर भी धारा 35-ए को मुद्दा बनाने के बाद ये चुनाव स्थानीय नहीं रह गए थे। हुर्रियत के दोनों धड़ों और जेकेएलएफ को मिलाकर बनी ज्वाइंट रेसिस्टेंस कमेटी ने इनका बहिष्कार करने की अपील की तो आतंकी संगठनों ने धमकी की भाषा भी अपनाई। चुनावों में मुख्य राजनीतिक दलों के बहिष्कार का असर कम करने के लिए एक समय जम्मू-कश्मीर सरकार ने नगरीय निकाय चुनाव गैर पार्टी आधार पर कराने पर भी विचार किया था, लेकिन अंततः चुनाव पार्टी आधार पर हुए, जिनमें भाजपा और कांग्रेस के अलावा केवल सज्जाद गनी लोन की जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस ने भागीदारी की। भाजपा और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस ने यह चुनाव मिलकर लड़ा तो सबसे बड़ी संख्या निर्दलीय उम्मीदवारों की रही, जिनमें नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी से जुड़े लोगों की बड़ी संख्या थी।

चुनावों को सफल बनाने के लिए प्रशासन ने कई कोशिशें कीं। निकायों के आर्थिक अधिकार बढ़ाए गए। चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने वाले कर्मचारियों को एक महीने का अतिरिक्त वेतन देने की घोषणा की गई। उम्मीदवारों की सुरक्षा के लिए होटलों में कमरे बुक कराए गए। सुरक्षाबलों की 400 अतिरिक्त कंपनियां नियुक्त की गईं।

अगर आंकड़ों की बात करें तो जहां जम्मू और लद्दाख की सभी सीटों पर औसतन 70 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ, वहीं घाटी के 10 जिलों के कुल 624 वार्डों में से 185 वार्डों में एक भी उम्मीदवार नहीं था। बची हुई 439 सीटों में से 231 सीटों पर सिर्फ एक उम्मीदवार मैदान में था और दो सीटों पर एक भी वोट नहीं पड़ा। इस तरह केवल एक तिहाई वार्डों में चुनाव संभव हुए। भाजपा के 76 तो कांग्रेस के 78 उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए। एहतियात का आलम यह कि निर्विरोध चुने गए उम्मीदवारों के नाम चुनाव परिणामों के साथ ही घोषित किए गए। चार चरणों में हुए इन चुनावों के प्रत्येक चरण में क्रमशः 8.3, 3.4, 3.5 और 4.2 प्रतिशत वोट पड़े यानी कुल मतदान औसत केवल साढ़े सात प्रतिशत के आसपास रहा!

अब्दुल्ला परिवार का चुनाव क्षेत्र रहा गांदेरबल सबसे अधिक मतदान प्रतिशत वाले इलाकों में रहा तो वहां भी केवल 11.3 प्रतिशत मतदाता घरों से बाहर निकले। सज्जाद लोन के विधानसभा क्षेत्र हंदवारा में 263 वोट पड़े तो श्रीनगर के वार्ड नंबर 74 में 9 वोट। भाजपा उम्मीदवार बशीर अहमद मीर को इसमें से 8 वोट मिले और उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया, “अब चुनाव जीतने के लिए परिवार के वोट काफी हैं।” लेकिन सोचने की बात तो यह है कि दूसरे उम्मीदवार को वोट देने उसके परिवार वाले भी नहीं आए! इसके बावजूद चुनाव की पूरी प्रक्रिया भी विवादों से दूर नहीं रह सकी। महबूबा मुफ्ती ने चुनाव में भाग लेने वालों को पैसों की लालच में पड़े गुंडा तत्व कहा तो सज्जाद लोन ने उनके बयान को बेशर्मी बताते हुए कई प्रत्याशियों से उनकी मुलाकात और एक पीडीपी एमएलसी के बेटे और भाई के पुंछ से चुनाव लड़ने के ब्योरे सामने रख दिए। नेशनल कॉन्फ्रेंस, जम्मू के अध्यक्ष देविंदर सिंह राणा ने भाजपा पर वार्डों की संख्या बढ़ाकर लोकतंत्र का मखौल बनाने का आरोप लगाया।

इस बार जम्मू में वार्डों की संख्या 446 से बढ़ाकर 520, घाटी में 412 से बढ़ाकर 624 और लद्दाख में 858 से बढ़ाकर 1144 कर दी गई। पहलगाम में चुनावों के तीसरे चरण के पहले भाजपा के चार उम्मीदवारों के रिश्तेदारों ने आरोप लगाया कि इन्हें बहला-फुसला के पर्चे भरवाए गए हैं और उन्होंने नाम वापस लेने चाहे तो स्थानीय भाजपा एमएलसी सोफी यूसुफ ने खानबल के अपने सरकारी आवास में उन्हें बंधक बना लिया। इस विधानसभा के 13 वार्डों में सिर्फ आठ उम्मीदवारों ने चुनाव में हिस्सेदारी की, जो सभी भाजपा से थे! इन चुनावों में बुरी तरह से हारी पैंथर्स पार्टी ने जम्मू में ईवीएम की गड़बड़ी का आरोप लगाया। ऐसा भी नहीं था कि भाजपा इन चुनावों में निर्विघ्न रह पाई। चार अक्टूबर को कुलगाम के दुरू इलाके में भाजपा के प्रत्याशी की धान की फसल में आग लगा दी गई तो दुरू-वेरिनाग इलाके के भाजपा प्रभारी और उम्मीदवार गुलाम हसन बट सहित कई उम्मीदवारों के नाम वापस लेने और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफे के पीछे आतंकियों की धमकी बताई जा रही है। 

पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बहिष्कार का फायदा भाजपा और कांग्रेस को मिलना लाजिमी ही था। जम्मू में भाजपा को बड़ी सफलता मिली तो घाटी में 12 नगरीय निकायों में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, जिसमें से पांच में उसे स्पष्ट बहुमत मिला जबकि कांग्रेस 15 निकायों में सबसे बड़ी पार्टी बनी और 11 में उसे स्पष्ट बहुमत मिला। महत्त्वपूर्ण रही निर्दलीय उम्मीदवारों की सफलता, जहां 2005 में केवल 50 वार्डों में निर्दलियों को सफलता मिली थी, वहीं इस बार यह संख्या बढ़कर 178 हो गई। हालांकि, नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी ने चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन इनसे जुड़े लोगों ने चुनावों में निर्दलीय के रूप में हिस्सेदारी की और जो थोड़े से लोग वोट देने के लिए निकले उन्होंने ऐसे प्रत्याशियों को मान्यता दी। इसका एक उदाहरण नेशनल कॉन्फ्रेंस से इस्तीफा देकर निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले जुनैद आजिम मट्टू हैं, जिन्हें सज्जाद गनी लोन ने श्रीनगर म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन से मेयर का उम्मीदवार बनाने की घोषणा की है। इससे एक धुंधला सा अनुमान यह लगाया जा सकता है कि अगर इन पार्टियों ने चुनाव में भागीदारी की होती तो मतदान प्रतिशत थोड़ा बेहतर हो सकता था। दूसरा चौंकाने वाला तथ्य यह है कि लद्दाख में भाजपा खाता भी नहीं खोल पाई, जहां वर्तमान लोकसभा सीट उसके पास है। 

जाहिर है कि घाटी के इन चुनावों में हार-जीत का अर्थ बहुत सीमित रह गया है। सत्यपाल मलिक ने राज्यपाल का पद संभालने के बाद बेहद सकारात्मक बयान दिए हैं, लेकिन फिलहाल इसका असर दिखाई नहीं देता। कोई साल भर पहले वार्ताकार के रूप में भेजे गए आइबी के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा की आरंभिक कोशिशों के बाद बातचीत की किसी प्रक्रिया की कोई सुगबुगाहट नहीं है और घाटी में असंतोष लगातार बढ़ता ही जा रहा है। जहां लोग मतदान के दिन घरों में कैद रहे वहीं, चुनावों के तुरंत बाद कुलगाम में आतंकवादियों के साथ कुछ आम लोगों की मौत पर हजारों का हुजूम स्वतःस्फूर्त ढंग से सड़कों पर आ गया। घाटी में लगातार हिंसक घटनाएं और जनता का प्रतिरोध जारी है।

आतंकवादियों की धमकियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि कश्मीरी जनता का चुनावों और लोकतंत्र से एक भयावह मोहभंग हुआ है और फिलहाल वह चुनावों में भागीदारी की किसी अपील पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देती नहीं दिख रही। कम से कम तब तक तो बिलकुल नहीं, जब तक वहां हिंसा पर रोक लगाकर बातचीत की कोई सम्मानजनक प्रक्रिया शुरू नहीं होती। स्थानीय प्रभावों के आगे चुनावों में यह निराशाजनक भागीदारी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में कश्मीर को लेकर भारत की स्थिति भी असहज कर सकती है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि घाटी में अगले विधानसभा चुनावों के पहले क्या राज्यपाल सत्यपाल मलिक ऐसी स्थितियां बना पाएंगे कि इनमें मतदान प्रतिशत सम्मानजनक रह सके?

(लेखक कश्मीर विशेषज्ञ हैं और उनकी पुस्तक कश्मीरनामा चर्चित रही है)

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