Advertisement

उदार और समरसता की परंपरा खतरे में

सुप्रीम कोर्ट के महिलाओं के प्रवेश से पाबंदी हटाने के ताजा फैसले की ही नहीं, अय्यपा की प्राचीन अवर्ण-आदिवासी परंपरा और पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी की भी जारी है घोर अवहेलना
आस्‍थाः कुन्नूर मंदिर में भगवान अय्यपा की मूर्ति

सबरीमला का नाम उसी सबरी से जुड़ा है, जो रामायण में अपनी तपस्या और भोलेपन से राम का दिल जीत लेती है। अब यहां विख्यात अय्यपा मंदिर है। पश्चिमी घाट में केरल की तरफ पेरियार टाइगर रिजर्व की खूबसूरत पहाड़ी पर स्थित अय्यपा मंदिर मूल रूप से स्थानीय आदिवासियों के देवता अयनार का पूजा स्थल था, जो 15वीं शताब्दी के आसपास अय्यपा के मंदिर में बदल गया। किंवदंती है कि अय्यपा पास ही के एक राजसी परिवार के राजकुमार थे। उन्होंने कठिन तपस्या की और रक्षक देव के रूप में स्‍थापित हो गए, जिनकी पूजा-अर्चना स्थानीय अवर्ण वाली जातियां करने लगीं। घने जंगल में स्थित यह बेहद सामान्य-सा स्‍थान ही हुआ करता था, वहां नियमित या रोजाना कोई पूजा-अर्चना भी नहीं हुआ करती थी, बस हर साल मकर संक्रमण या मकर संक्रांति (जनवरी-फरवरी) के दौरान यहां मलापंतरम, उल्लतर, मन्नान, नारिक्कूवर जैसे आदिवासी समुदाय, आसपास बसी कुछ अवर्ण जातियों और तमिलनाडु से कुछेक श्रद्धालु ही जुटते थे। उस दौरान पंथलम राज घराने के नियुक्त किए पुजारी (पोट्टी) अनुष्ठान संपन्न कराया करते थे। बाद में जब त्रावणकोर के राजा का आधिपत्य कायम हुआ तो फिर यह स्थल त्रावणकोर शाही देवास्म कमीशन (टीआरडीसी) प्रबंधन के तहत आ गया। यह देवास्म कमीशन मुख्य रूप से लगान की उगाही के लिए कर्नल मुनरो की सलाह पर 1810 में रानी लक्ष्मी बाई (1810-1815) ने बनाया था।

तीर्थयात्रियों की बाढ़

जून 1950 में कुछ शिकारियों ने सबरीमला मंदिर में आग लगा दी और अय्यपा की मूर्ति तोड़ दी। करीब एक दशक तक मंदिर ऐसे ही टूटा-फूटा पड़ा रहा, हालांकि वहां मकर संक्रांति पर लोगों का जुटना पहले की तरह जारी रहा। फिर, त्रावणकोर देवास्म बोर्ड (टीडीबी) ने नया मंदिर बनवाया। देवास्म बोर्ड का गठन 1950 में देवास्म कमीशन को भंग करने के बाद किया गया था। तब से तीर्थयात्रियों की संख्या में भी लगातार वृद्धि होती गई। यह संख्या '70 और '80 के दशक में लगभग एक हजार से कई हजार में तब्दील होने लगी। '90 के दशक में तीर्थयात्रियों की तादाद एक लाख से ऊपर पहुंचने लगी। अब तो तीर्थयात्रियों की संख्या 50 लाख के करीब पहुंच गई है। हालांकि देवास्म बोर्ड तो करोड़ों के पहुंचने का दावा करता है, जो अतिशयोक्ति जैसा लगता है। जैसे-जैसे तीर्थयात्रियों की संख्या में वृद्धि हुई, साल में पूजा के अवसरों की संख्या भी कई गुना बढ़ती गई। इस समय मंदिर साल में 133 दिन खुलता है और अब यहां कुल 1,431 घंटे दर्शन होते हैं। इस हिसाब से एक वक्त में 10 भक्त प्रति सेकंड दर्शन करते हों, क्योंकि तीर्थयात्रियों को लंबे वक्त तक रुकने देना कठिन है, तो तीर्थयात्रियों की कुल संख्या 51,51,600 बैठेगी।    

अब सबरीमला में पूरे दक्षिण भारत से मध्यवर्गीय तीर्थयात्रियों की भारी आमद होने लगी है और उसी के साथ वहां सोने और नकद में चढ़ावा भी बेहिसाब चढ़ने लगा है। इस तरह, कभी आदिवासियों और अवर्णों का एक देवस्‍थान अब पूरी तरह सवर्ण जातियों की मान्यताओं, परंपरा और प्रथाओं में ढल गया। यही नहीं, आज यह तीर्थयात्रा से कहीं ज्यादा राज्य नियंत्रित अरबों रुपये के उद्यम में तब्दील हो गया है।

मनगढ़ंत रीति-रिवाज

10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध 1991 में एक अदालती फैसले के जरिए तामील किया गया। दलील यह थी कि मासिक धर्म के कारण 41 दिन की शुद्धता का पालन नहीं हो सकेगा और यह कि ब्रह्मचारी अय्यपा युवा स्त्रियों से दूर रहते हैं। लेकिन इस प्रतिबंध का न तो अनुष्ठानिक पवित्रता से कोई नाता था और न ही कोई वैज्ञानिक औचित्य है। यह सही है कि सवर्ण घरों में माहवारी छूत मानी जाती है और महिलाएं इस दौरान किसी भी पवित्र जगह पर नहीं जाती हैं। लेकिन माहवारी आदिवासियों के लिए शुभ और प्रजनन क्षमता का प्रतीक है। '60 के दशक तक आदिवासी हर उम्र की महिलाओं और बच्चों के साथ मंदिर में जुटते रहे हैं। इस बात के अभिलेखीय सबूत भी हैं कि त्रावणकोर क्षेत्र की सवर्ण युवा महिलाएं '80 के दशक तक मंदिर में प्रवेश पाया करती थीं।

अभी कुछ समय पहले तक सबरीमला मंदिर में वैदिक ब्राह्मणों की रीति-नीति से पूजा-अर्चना नहीं हुआ करती थी, जो दूसरे मंदिरों में पवित्रता या शुद्धता बनाए रखने के लिए नंबूदिरी ब्राह्मण किया करते हैं। इसलिए वैदिक परंपरा वाले नंबूदिरी ब्राह्मणों के तंत्री परिवारों ने जंगल में बसे अय्यन और करुप्पास्वामी जैसे अवर्ण देवताओं वाले इस मंदिर को कभी महत्व नहीं दिया। उनका मानना था कि यह मंदिर अष्टबंध (आठ अनुष्ठान वाले बंधन कर्म) के लिए योग्य नहीं है या पौराणिक संस्कारों के मुताबिक शुद्धिकरण के लिए उपयुक्त है। कोई भी चकित होगा कि 18 पहाड़ों में फैली अय्यपा मंदिर की सीमा की वैदिक कर्मकांडों के मुताबिक शुचिता को भला कैसे बरकरार रखा जा सकेगा। यह संयोग नहीं है कि दक्षिण कर्नाटक के एक प्रवासी पोट्टी परिवार तझमोन को अयप्पा मंदिर के रीति-रिवाजों का अधिकारी बनाया गया है, जिसे वैदिक कर्मकांडों का बेहद कम ज्ञान है। इधर मंदिर के बारे में किंवदंतियां और प्रथाएं हाल के दिनों में ही गढ़ी गई और बनाई गई हैं। अनुष्ठानों की परंपरा के बारे में कुछ भी स्थायी नहीं है क्योंकि हर परंपरा में नई व्याख्याओं और नई किंवदंतियों का घालमेल होता है और नया स्वरूप उभरता जाता है, जबकि हम समझते हैं कि ये सदियों से जारी हैं। सबरीमला परंपरा भी इस सर्वस्वीकृत समाजशास्‍त्रीय परिघटना का कोई अपवाद नहीं है।

सवर्णों का वर्चस्व

नई परंपराओं के निर्माण की प्रक्रिया में एक स्पष्ट रुझान रहा है कि उनमें भेदभावमूलक सवर्ण मूल्यों का वर्चस्व बढ़ता गया है। यह सबरीमला की दुर्गम और कठिन यात्रा के दौरान तीर्थयात्रियों के बीच एकता और सार्वभौमिक बंधुत्व की भावना के विपरीत है। कुछ प्रक्रियाओं के जरिए अब तो सबरीमला की सर्वधर्म समभाव और सेकुलर परंपराओं को भी तोड़ने की कोशिश हो रही है जो अयप्पा परंपरा के एक मुसलमान वावर और अर्तुंकल चर्च के आपसी संबंधों से बनता रहा है। उस तीर्थयात्रा में विभिन्न जातियों और धार्मिक पहचानों के समागम की स्वतंत्रता और उदारता पर भी चोट की जा रही है। तथ्य यह है कि सबरीमला सभी जातियों, पंथों और धर्मों के लोगों के लिए खुला रहा है लेकिन नए नियमों और ‘प्रथाओं’ से इस पर अंकुश लगाने की कोशिश हो रही है। तीर्थयात्रा के दौरान, भक्त सबरीमला के रास्ते में वावर मस्जिद और अर्तुंकल चर्च में भी जाते रहे हैं।

सबके साथ समभाव के बर्ताव, और ऐसी ही कुछ दूसरी परंपराओं के कारण कई बार अय्यपा को बौद्ध परंपरा से जोड़ा जाता है। हालांकि, ब्रह्मचर्य व्रत, ‘धर्म सस्ता’ और ‘सरनम’ के जप से ही इसे बौद्ध परंपरा से जोड़ने का कोई मामला नहीं बनता है। धर्म अस्ता तो हाल ही में प्रचलित हुई है और सरनम के जप का बौद्ध चरनम के साथ कुछ लेना-देना नहीं है जो संघ में भिक्षु व्रत की एक शपथ होती है। बौद्ध परंपरा का कोई पुरातात्विक साक्ष्य भी नहीं है। इसके अलावा, बौद्ध मठ अमूमन व्यापार मार्गों में होते हैं। दरअसल, बौद्ध पौराणिक कथाओं में अवलोकितेश्वरों में से एक, नीलकंठ, ने सह्य पर्वत को पवित्र किया था, इसी किंवदंती के आधार पर कुछ विद्वानों ने अय्यपा को नीलकंठ के साथ जोड़कर देखने का व्यर्थ प्रयास किया है। इसके अलावा, अय्यपा की मूर्ति में भी बौद्ध परंपरा के कोई चिह्न नहीं मिलते।

कोर्ट का फैसला

देवास्म बोर्ड द्वारा तीर्थयात्रियों की जरूरतों को पूरा करने के बहाने शहरी विकास के लिए बाघ संरक्षित वन में अतिक्रमण किया जा रहा है और वन पर्यावरण और नियमों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन किया जा रहा है। इसमें वनों की कटाई और भू-उपयोग परिवर्तन वगैरह शामिल है जबकि केरल वन अधिनियम 1961, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 और वन संरक्षण अधिनियम 1980 इसकी सख्त मनाही करता है। अदालती आदेशों का उल्लंघन सबरीमला में नया नहीं है। यहां सुप्रीम कोर्ट से लेकर तमाम अदालती आदेशों के खुल्लमखुल्ला उल्लंघनों का सिलसिला काफी लंबा है। सन्निधनम (मुख्य मंदिर परिसर) में अवैध निर्माण के खिलाफ न्यायालय के कई फैसले हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने 24 अक्टूबर 2005 को डब्ल्यूपी (सी) संख्या 202/95, डब्ल्यूपी (सी) 212/2001 और पत्र संख्या-एफसी संख्या 8-70 / 2005-एफसी केंद्र सरकार और राज्य सरकार को 31 अक्टूबर 2005 को जीओ (आरटी) 594/05 1995 के डब्ल्यूपी (सी) संख्या 202 में नंबर 1373 ने वन भूमि का भू-उपयोग बदलने पर प्रतिबंध लगा दिया है। देवास्म बोर्ड की लापरवाही भरी विकास योजनाओं के चलते पर्यावरण और वन मंत्रालय ने मास्टर प्लान तैयार किया और उसे बनाया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे लागू भी किया। यहां तक कि कोर्ट ने आदेश दिया कि सन्निधनम के करीब सभी गेस्ट हाउस, दान किए गए ढांचे और दूसरे निर्माण गिरा दिए जाएं। अदालत ने इस परिसर में और किसी निर्माण की अनुमति भी नहीं दी। सन्निधनम में जमीन के उपयोग के बंटवारे के साथ-साथ लीज की जमीन में भी बहुत पेच है। लीज की जमीन का कुल 14.6 फीसदी सिर्फ 9.5 फीसदी तीर्थयात्रियों के उपयोग के लिए निजीकरण किया गया है।

इसी तरह 3.4 फीसदी जमीन का निजीकरण सिर्फ 0.1 लोगों के उपयोग के लिए किया गया है! सन्निधनम में दान किए गए घरों को बनाने की अनुमति देने के पट्टे में भी नियमों का घोर उल्लंघन किया गया है। सार्वजनिक भूमि का उपयोग भी विसंगतियों से भरा पड़ा है। वीआइपी और संभ्रांत तीर्थयात्रियों ने सामान्य लोगों की कीमत पर अपनी निजी जरूरतों को पूरा करने के लिए सार्वजनिक स्थान का उपयोग किया है। यह सबरीमला की मूल परंपराओं को नष्ट करने का मामला ही है। आखिर उसमें तो सबके प्रति समभाव का संदेश था। जंगल की यात्रा में सामाजिक भेदभाव और अमीरी-गरीबी का फर्क मिट जाता था। और अब, सुप्रीम कोर्ट ने वहां हर उम्र की महिलाओं को प्रवेश का फैसला सुनाया है तो उसे जोरदार विरोध का सामना करना पड़ रहा है। त्रावणकोर के इस देवस्‍थल पर आधिपत्य के इतिहास से पूरी तरह बेखबर पंथलम घराने के लोग और अदालती फैसले के मर्म से पूरी तरह अनजान तझमोन तंत्री इस फैसले की अवहेलना पर उतर आए हैं। नेताओं की नजर तो वोटों पर है। उन्हें संविधान की अनदेखी का कोई ख्याल नहीं है। सबरीमला परंपरा बढ़ती रूढ़िवादिता और कट्टरता से मुखातिब है। उससे उदार और सामाजिक समरसता की पिछली परंपरा छूटती जा रही है।

(लेखक प्रख्यात इतिहासविद और समाज विज्ञानी हैं, वे कोट्टायम में एमजी विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement