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गांधी, राष्ट्रवाद और संघ

संघ और भाजपा के नेता अकसर ‘राष्ट्रपिता’ कहने पर भी सवाल उठाते रहते हैं
गांधी जी और राष्ट्रीय प्रश्न?

अगले वर्ष राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती मनाने के लिए एक साल तक उनके जीवन और विचार पर केंद्रित कार्यक्रम आयोजित होते रहेंगे और उनका अनेक दृष्टिकोणों से आकलन किया जाएगा। इसकी शुरुआत करते हुए गत एक अक्टूबर को सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) की ओर से एक व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया जिसका उद्घाटन मध्यकालीन भारत के मूर्धन्य इतिहासकार प्रोफेसर इरफान हबीब ने “गांधी जी और राष्ट्रीय प्रश्न” विषय पर अपने व्याख्यान से किया। इसमें उन्होंने विस्तार से गांधी जी के वैचारिक विकास की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला और कहा कि फ्रांस की क्रांति के साथ आधुनिक राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणाएं उभरीं और यूरोप में विभिन्न राष्ट्रों का उदय हुआ। लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद के उदय और विकास की कथा इससे बुनियादी तौर पर भिन्न है, क्योंकि वह ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ चले स्वाधीनता संघर्ष के दौरान विकसित हुआ। एक राष्ट्र के रूप में भी भारत इसी दौरान अस्तित्व में आया, न कि ऋग्वेदकाल में जैसा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दावा करता है।

संघ और उससे जुड़े व्यक्ति और संगठन इसी तरह के और भी तमाम दावे करते रहते हैं जिनके मूल में वर्तमान को सुदूर अतीत में तलाशने की प्रवृत्ति है। क्योंकि ‘रामायण’ में पुष्पक विमान का उल्लेख है, इसलिए उस काल में आकाशचारी विमान हुआ करते थे। क्योंकि गणेश का सिर हाथी का है इसलिए प्राचीन काल में प्लास्टिक सर्जरी थी। महाभारत युद्ध में ब्रह्मास्‍त्र और अनेक प्रकार के अन्य अस्‍त्र-शस्‍त्रों के प्रयोग का वर्णन मिलता है, इसलिए उस समय नाभिकीय अस्‍त्र भी हुआ करते थे। यह सूची काफी लंबी है। इसी प्रवृत्ति का परिणाम है कि ऋग्वेद में ‘राष्ट्र’ शब्द होने के कारण संघ की विचारधारा से प्रभावित लोग मानते हैं कि आधुनिक अर्थ में हम जिसे ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ समझते हैं, वह ऋग्वेदकाल में भी अस्तित्व में था।

दिलचस्प बात यह है कि इरफान हबीब को चुनौती देते हुए हिंदी के एक अवकाश प्राप्त प्रोफेसर अजय तिवारी ने एक लेख लिखकर उन्हीं पर यह आरोप लगा दिया है कि “इरफान हबीब परोक्षतः संघ की ही मदद करते हैं।” तिवारी, जिन्हें विवादास्पद परिस्थितियों में दिल्ली विश्वविद्यालय से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेनी पड़ी थी भी ऋग्वेद में राष्ट्र के उल्लेख का जिक्र करते हुए कहते हैं कि “अहं राष्ट्री संगमनी जनानाम्—ऋग्वेद का यह कथन राष्ट्र के अस्तित्व का प्राचीनतम उल्लेख है। महाभारत में द्राविड़ से उत्कल तक का मानचित्र उसी ‘राष्ट्र’ का वर्णन है जिसके आधार पर भारत की संकल्पना हमारे सामने है। इस भारत राष्ट्र के बिना तुलसीदास यह कभी न कह पाते कि ‘भलि भारत भूमि भले कुल जन्म समाज सरीरु भले लहि कै।’ यहां स्पष्ट रूप में राष्ट्रीयता का बोध होता है।” यानी राष्ट्र और राष्ट्रीयता की अवधारणाओं का, अंग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ हुए संघर्ष और स्वाधीनता आंदोलन के साथ कोई संबंध नहीं है।

भाषा, समाज और संस्कृति की विकास प्रक्रिया से परिचित लोग जानते हैं कि समय के साथ-साथ शब्दों के अर्थ भी बदलते हैं। क्या आज ‘गोत्र’ का वही अर्थ है जो वैदिक समाज में था? क्या ऋग्वैदिक मंत्रद्रष्टा उसी अर्थ में राष्ट्र शब्द का प्रयोग करते हैं जिस अर्थ में हम आज करते हैं? महाभारत के’शांति पर्व’ में युधिष्ठिर और भीष्म के बीच हुए लंबे संवाद में भी राष्ट्र शब्द का प्रयोग हुआ है। लेकिन केवल राजा के राज्य के अर्थ में, आज के आधुनिक राष्ट्र-राज्य के अर्थ में नहीं- “एवं मयूरवद्राजा स्वराष्ट्रं परिपालयेत्।” यहां स्वराष्ट्र अपने राज्य के लिए कहा गया है, इसका आधुनिक राष्ट्र की परिकल्पना से दूर-दूर का संबंध भी नहीं है।

कोई पूछ सकता है कि यदि राष्ट्र और राष्ट्रीयता का बोध ऋग्वेद और महाभारत से होता है, तो फिर भारत के राजे-महाराजे, बादशाह और नवाब इस बोध से क्यों वंचित रहे और अंग्रेज उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ इतनी आसानी के साथ इस्तेमाल करने में सफल कैसे हो गए? यही नहीं, 1947 में जब अंग्रेजों ने भारत से अपना पल्ला झाड़कर कहा कि अब सभी रियासतें स्वतंत्र और सार्वभौम हैं, तो जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद, त्रावणकोर-कोचीन और जूनागढ़ जैसे अनेक राज्य स्वाधीन राज्य होने का सपना कैसे देखने लगे थे? प्राचीन काल से चला आ रहा “राष्ट्रीयता का बोध” तब कहां चला गया था? 

सच्चाई यह है कि हर चीज का मूल ऋग्वेद और पुराणों में खोजने वाले राष्ट्रवाद का स्रोत भी उन्हीं में ढूंढ़ते हैं। लेकिन यह शायद पहली बार हुआ है जब किसी ने इरफान हबीब पर संघ को मदद करने का आरोप लगाया हो और वह भी तब जब आरोप लगाने वाला व्यक्ति स्वयं संघी मानसिकता से ग्रस्त है। इस मानसिकता को यूं भी गांधी से खासा परहेज है। समय-समय पर संघ और भाजपा के नेता यह सवाल उठाते रहते हैं कि भारत राष्ट्र तो प्राचीन काल से अस्तित्व में है, फिर महात्मा गाँधी को ‘राष्ट्रपिता’ कैसे कहा जा सकता है? उन्हें तो हद से हद ‘राष्ट्रपुत्र’ कहा जा सकता है। 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने यही सवाल उठाया था। जब पता चला कि आजाद हिंद फौज के रेडियो से प्रसारित भारतवासियों के नाम अपने संबोधन में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहा था, तो सभी बगलें झांकने लगे। इस समय स्थिति यह है कि गांधी न निगलते बन रहे हैं, न उगलते। एक ओर उनकी स्मृति का सम्मान करने का दिखावा हो रहा है, दूसरी ओर उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे के महिमामंडन के प्रयास भी धूमधाम से चल रहे हैं।

सभी राष्ट्रवादियों का कर्तव्य है कि ऐसे में राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद तथा उनके विकास में स्वाधीनता आंदोलन और उसके सर्वमान्य शीर्षस्थ नेता महात्मा गांधी के योगदान का संतुलित विश्लेषण किया जाए।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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