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भितरघात इधर भी, उधर भी

प्रदेश में सात दिसंबर को होने हैं विधानसभा चुनाव, भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए अंदरूनी गुटबाजी बन सकती है परेशानी का सबब
दांव पर साखः भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मदनलाल सैनी (दाएं) के साथ राजे

राजस्थान में सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस के बीच चुनावी जंग चरम पर है। यह जंग इन पार्टियों के भीतर भी बदस्तूर दिखती है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को फिर मुख्य चेहरे के रूप में पेश किया है, क्योंकि पार्टी राजे को नाराज करने का जोखिम मोल नहीं ले सकती। इसके बावजूद पार्टी में दो समानांतर धाराएं बहती हुई दिखती हैं। विपक्षी दल कांग्रेस में यह और भी पेचीदा है। पार्टी प्रदेश कांग्रेस प्रमुख सचिन पायलट और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच साफ बंटी दिखती है। पार्टी की मुश्किलें तब और बढ़ गईं, जब बीकानेर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की भीड़ भरी सभा से उत्साहित प्रतिपक्ष के नेता रामेश्वर डूडी ने भी अपना दावा पेश कर दिया। बीकानेर डूडी का अपना गृह जिला है और वे राजनैतिक तौर पर प्रभावशाली किसान वर्ग से ताल्लुक रखते हैं।

सत्ता विरोधी रुझान का सामना कर रही भाजपा ने गिले-शिकवे भुलाकर मुख्यमंत्री राजे को फिर नेता के रूप में पेश करना ही ठीक समझा। लेकिन यह इतना सरल भी नहीं है, क्योंकि इससे पहले जब दिल्ली ने प्रदेश अध्यक्ष के रूप में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र शेखावत की ताजपोशी का मन बनाया तो मुख्यमंत्री ने इसे स्वीकार नहीं किया और केंद्रीय नेतृत्व को खाली हाथ लौटा दिया। केंद्रीय आलाकमान ने हाशिए पर बैठे बुजुर्ग नेता मदनलाल सैनी को राजस्थान भाजपा का अध्यक्ष नियुक्त कर बीच का रास्ता निकाला। लेकिन कुछ समय बाद ही पार्टी ने शेखावत को चुनाव प्रबंध समिति का संयोजक नियुक्त कर दिया।

पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब-जब राजस्थान आए, मुख्यमंत्री राजे के नेतृत्व और सरकार के कामकाज की तारीफ करते रहे हैं। मगर, विश्लेषकों की नजर इस पर भी है कि पिछले कुछ दिनों में पार्टी अध्यक्ष शाह मुख्यमंत्री राजे के साथ कभी भी मंच साझा करते नहीं दिखे। भाजपा प्रवक्ता मुकेश पारीक कहते हैं, “इसमें कोई सच्चाई नहीं है। पूरी पार्टी एकजुट और एकमत है। इस तरह का दुष्‍प्रचार केवल कांग्रेस फैला रही है।”

भाजपा को करीब से जानने वालों के मुताबिक, पिछले विधानसभा चुनाव में पूरी कमान राजे के हाथ में थी। इस बार चीजें दिल्ली तय कर रही है। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, वी. सतीश और मुरलीधर राव निर्णायक भूमिका में हैं। उधर, कांग्रेस में स्थितियां और भी जटिल हैं। पार्टी के एक नेता ने कहा कि कांग्रेस की समस्या तब ज्यादा बढ़ जाती है, जब सत्ता आती हुई दिखती है। सत्ता के लिए उतावली कांग्रेस में गुटबाजी तो पहले भी रही है। इस बार यह अधिक उभर कर सामने आई है। पार्टी में टिकट के आकांक्षी एक नेता का कहना है कि ऐसा पहली बार हो रहा है, जब यह पूछा जा रहा है कि आपकी वफादारी किस नेता के साथ है। राज्य में चुनाव की चर्चा शुरू होने के बाद आए चार चुनावी सर्वेक्षणों में सत्ता के दावेदार तीन प्रमुख नेताओं की लोकप्रियता को नापने का प्रयास किया गया। इन चारों में गहलोत को अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों से बहुत आगे बताया गया। एक और सर्वे आया, जिसमें पायलट को सब पर बढ़त लेते दिखाया गया। इस सर्वे का बहुत प्रचार हुआ। तभी गहलोत ने मीडिया से बातचीत में कहा, “हम राहुल जी के नेतृत्व में चल रहे हैं। हमें लॉबिंग करने या पब्लिक रिलेशन एजेंसी हायर करने या सर्वे में नाम ऊपर-नीचे करने की जरूरत नहीं है।”

सत्तारूढ़ भाजपा ने तुरंत इस मौके का इस्तेमाल कर लिया। केंद्रीय मंत्री गजेंद्र शेखावत ने टिप्पणी कर गहलोत को सलाह दे डाली कि वे पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वी से सर्वे मैनेज करना क्यों नहीं सीख लेते। पार्टी की यह गुटबाजी उस वक्त खुलकर सामने आई, जब गहलोत भरतपुर जिले के बयाना में सभा संबोधित कर रहे थे और एक गुट ने हूटिंग कर बाधा डाली।

राज्य कांग्रेस के महासचिव पंकज मेहता कहते हैं, “कांग्रेस के पक्ष में जबरदस्त माहौल है। पायलट  और गहलोत के एक साथ घूमने और सभाएं करने से जनता और कार्यकर्ताओं में मजबूत संदेश गया है।” पर जमीनी हकीकत कुछ और है। पार्टी में प्रतिस्पर्धी नेता इस बार सोशल मीडिया और प्रचार तंत्र का सहारा ले रहे हैं। इसमें अपनी छवि निर्माण के साथ प्रतिस्पर्धी की छवि मलिन करने का काम भी हो रहा है। पार्टी में आंतरिक संघर्ष का आलम यह है कि हर कमेटी के गठन में नेता अपने-अपने वफादारों को शामिल कराने के लिए मोर्चेबंदी किए हुए हैं, लेकिन इससे बड़ी लड़ाई टिकटों को लेकर होगी।

राजस्थान की राजनैतिक हकीकत यह भी है कि पिछले 25 साल से यह परंपरा बन गई है कि एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस की सरकार आती है। 1993 से यही क्रम बना हुआ है। 1993 में 95 सीटें जीत कर भाजपा ने निर्दलीयों की मदद से सत्ता पर कब्जा किया। लेकिन 1997 में चुनाव हुए तो कांग्रेस ने 153 सीटों पर बड़ी जीत दर्ज करके सत्ता में वापसी की। तब अशोक गहलोत पहली बार मुख्यमंत्री बने।

2003 के चुनाव में भाजपा ने 120 सीटें झटक कर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। लेकिन 2008 में फिर चुनाव हुए और कांग्रेस 96 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई। कांग्रेस ने बहुजन समाज पार्टी के सभी छह विधायकों को अपने साथ मिला कर सरकार का गठन कर लिया। 2013 के चुनाव में मोदी लहर ने कांग्रेस को करारी शिकस्त दी और भाजपा ने रिकॉर्ड 163 सीटों पर कमल का फूल खिला दिया।

हालांकि इस बार लड़ाई में एक और पेच की चर्चा है। भाजपा से दलितों की नाराजगी के मद्देनजर  बहुजन समाज पार्टी भी बढ़-चढ़कर दावा कर रही है। सो, यहां एक सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि क्या बसपा इस तस्वीर में कुछ उलटफेर कर सकती है। शुरुआत में लगा था कि बसपा और कांग्रेस में तालमेल हो जाएगा, लेकिन अब लगभग साफ हो गया है कि इसके लिए बसपा सुप्रीमो मायावती तैयार नहीं हैं या फिर कांग्रेस मांग के मुताबिक सीटें देने को तैयार नहीं है। बसपा अलग से न केवल तैयारी कर रही है, बल्कि अपने ही दम पर चुनाव लड़ने की दिशा में बढ़ रही है। कांग्रेस में दलित वर्ग के नेता और पूर्व मंत्री बाबूलाल नागर कहते हैं, “राजस्थान में दलित समुदाय को समझ में आ गया है कि बसपा को वोट देना अपना वोट खराब करना है।” लेकिन अलवर में कांग्रेस के अनुसूचित प्रकोष्ठ के अध्यक्ष खेमचंद धामानी कहते हैं कि बसपा से सुलह करना राजनैतिक अक्लमंदी होगी। अगर बसपा एक भी वोट काटेगी तो कांग्रेस का ही नुकसान होगा। अलवर लोकसभा उपचुनाव में बसपा ने अपना प्रत्याशी नहीं उतारा और इसका कांग्रेस को बड़ा लाभ मिला।

दलित अधिकार कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी कहते हैं कि राजस्थान में कांग्रेस दलितों के लिए स्वाभाविक पसंद है। मगर अब कांग्रेस को दलित मुद्दों पर जबानी जमा खर्च से ऊपर उठना होगा। वे कहते हैं, “जब नागौर के डांगावास में छह दलितों को मार डाला गया, तो कांग्रेस ने दलितों को उनके हाल पर छोड़ दिया।” वह यह भी कहते हैं कि पिछले चुनाव में दलित वर्ग मोदी लहर में फंस गया था। मगर पांच साल में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं कि अब कोई दलित भाजपा के प्रति सोच भी नहीं सकता।

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