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आधार पर अभी भी सवाल

आधार के खिलाफ लड़ाई भी आइपीसी की धारा 377 जैसी है, आखिर में लोकतंत्र और लोग ही जीतेंगे
अब निजी कंपनियां लोगों से आधार नहीं मांग सकतीं

आधार पर सुप्रीम कोर्ट का हाल ही में सुनाया गया फैसला कई सारे सवाल खड़े करता है। इस फैसले से बेशक कई मुद्दों पर आम आदमी को राहत मिली है, लेकिन अभी कुछ मसले ऐसे हैं जिनका जवाब मिलना बाकी है।

मौजूदा सरकार ने आधार को मनी बिल के रूप में पारित कराया, जो सीधे-सीधे संसदीय प्रक्रिया का उल्लंघन था। यूपीए-2 के समय तो बिना कानून के ही इसे लागू किया गया। फिर 2016 में जब कानून लाया गया, तो संसद में ‘मनी बिल’ के रूप में पारित करा लिया गया। सभी कानूनी जानकारों का मानना है कि आधार अधिनियम को ‘मनी बिल’ का दर्जा नहीं दिया जा सकता। मनी बिल के सवाल पर न्याय पीठ के बहुमत के फैसले में कहा गया है कि उसकी धारा 57 को हटा दिया जाए तो आधार अधिनियम को मनी बिल माना जा सकता है, लेकिन पीठ के एक अन्य जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इसे मानने से इनकार कर दिया। उनकी राय में आधार विधेयक को मनी बिल नहीं बताया जा सकता है। ऐसे में सरकार के उस कदम पर सवाल तो उठते ही हैं।

इस फैसले में दूसरी अहम बात धारा 57 को असंवैधानिक करार दिया जाना है। इस मामले में लोगों को बहुत बड़ी राहत मिली है, अब निजी कंपनियां लोगों से आधार नही मांग सकती हैं। जिन लोगों की आधार संख्या को मोबाइल या बैंक खाते से लिंक कर दिया गया है, वे बैंक और मोबाइल कंपनी से इसे डी-लिंक करने की मांग कर सकते हैं। यह निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मीडिया में लगभग 250 खबरें प्रकाशित हुई हैं, जो आधार संख्या से जुड़ी जालसाजियों का ब्योरा देती हैं। लेकिन दुखद यह है कि जब ऐसी घटनाएं होती हैं, तो सरकार अपनी आखें बंद कर लेती है। अब अदालत के आदेश पर अमल कराने में लोगों और सरकार की बड़ी भूमिका रहेगी।

तीसरी अहम बात यह है कि सरकार ने जो आधार कानून बनाया था, उसमें आपके डाटा का दुरुपयोग होने पर कोई ऐसा प्रावधान नहीं था कि आप सीधे कार्रवाई की मांग कर सकें। आपको भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण  (यूआइडीएआइ) के जरिए ही शिकायत करनी पड़ती। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए बनाई गई धारा 47 को भी रद्द कर दिया है। अब आप भी कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं।

लेकिन आधार कानून की धारा 7 के मामले में सुप्रीम कोर्ट का बहुमत का फैसला निराशाजनक है। न्यायालय ने सरकार के पक्ष को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया, हालांकि देश के विभिन्न हिस्सों से जो खबरें आ रही हैं, उनसे यह पता चलता है कि सरकार का दावा सही नहीं है। उदाहरण के लिए, आधार की वजह से अब तक 30 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। आधार की तकनीक भी विश्वसनीय नहीं है। लोगों की उंगलियों का सत्यापन भी ठीक से नहीं हो पा रहा है। हालांकि फैसले के पक्ष में न्यायाधीशों ने “एक्सक्लूजन” पर काफी चिंता जताई है। उन्होंने सरकार का आश्वासन मानते हुए कहा कि लोगों के लिए दूसरे विकल्प खुले रहेंगे। लेकिन चिंता की बात यह है कि इन 30 मौतों में से 20 से ज्यादा सरकार के विकल्प वाले आदेश देने के बाद हुई हैं। इनमें से ज्यादातर मौतें भूख की वजह से हुई हैं। सच तो यह है कि सरकार के आदेश का जमीनी स्तर पर ठीक से पालन नहीं हो रहा है।

सरकार का दावा है कि कल्याणकारी योजनाओं में आधार संख्‍या सकारात्मक भूमिका निभाती है। वास्तव में, आधार के साथ जोड़ने से इन योजनाओं के लाभार्थियों को अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। बैंक खातों से आधार को लिंक करवाने के लिए बिचौलिए पैसा मांगते हैं, आधार के साथ लिंक करते समय गलतियां होने से पेंशन और मजदूरी भुगतान तक रुक जाता है। लोग आधार से लिंक करने में किसी कारणवश सफल नहीं हो पाते हैं, तो उनके नाम काट दिए जाते हैं। सरकार यह कह देती है कि इतने ‘फर्जी’ नाम हटा दिए गए हैं।

अपने असहमति के फैसले में जस्टिस चंद्रचूड़ ने लिखा है कि आधार कई सारे संवैधानिक टेस्ट पास नहीं कर पाता है। एक, सरकारी दलील है कि आधार के अलावा लोगों तक लाभ पहुंचाने का और कोई तरीका नहीं है। मगर, आधार की अनिवार्यता की वजह से लगभग 30 मौतें हो चुकी हैं। दूसरे, आधार ‘प्रपोरशनलिटी टेस्ट’ पर खरा नहीं उतरता। यानी, जो उसका उद्देश्य है, उसे हासिल करने के लिए सरकार जो कदम उठा रही है वह जरूरत से ज्यादा लोगों के निजता के मौलिक अधिकार का हनन करता है।

तीसरे, न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि आधार के मामले में “कानून का शासन” नियम पर खरा नहीं उतरता है। सुप्रीम कोर्ट 2013 से लगातार इसके इस्तेमाल पर रोक लगाता रहा है या इसे सीमित करता रहा है, लेकिन सर्वोच्च अदालत के अंतरिम आदेशों की हमेशा से खुली अवहेलना होती रही है।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि आधार कानून को मनी बिल के रूप में पारित करना “संविधान पर फ्रॉड है।” इस तरह कई मुद्दों पर न्यायाधीश ने आधार प्रोजेक्ट और सरकारी रवैए की कड़ी निंदा की है। उनकी राय से भविष्य के लिए उम्मीद जगती है। समलैंगिक संबंध को गैर-कानूनी करार देने वाली आइपीसी की धारा 377 के खिलाफ हुई लड़ाई से भी हम सीख सकते हैं। उसमें न्यायालय ने न केवल अपने फैसले को बदला, बल्कि लोगों से मांफी भी मांगी। 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे वैध ठहराया था। हालांकि 2009 में दिल्ली हाइकोर्ट इस धारा को खारिज कर चुकी थी। इसके बाद लोगों ने फिर से कोर्ट के दरवाजे खटखटाए, तब बात बनी। दूसरे, उसमें किसी भी राजनैतिक पार्टी ने लोगों का साथ नहीं दिया। आधार के खिलाफ लड़ाई भी धारा 377 जैसी ही है। आखिर लोकतंत्र और लोगों की जीत ही होगी।

(लेखिका आइआइएम अहमदाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

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