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देखिए कब चेतती है सरकार

रुपये को संभालिए वरना हर पांच फीसदी की गिरावट से खुदरा महंगाई दर 0.20 फीसदी बढ़ जाएगी
सरकार रुपये की गिरावट को संकट के तौर पर देखे तो चीजें बदल सकती है

यह सबको पता है कि प्याज के दाम सरकारें बना और गिरा सकते हैं। बीस साल पहले भाजपा ने यह महसूस किया, जब प्याज के दाम बढ़ने की वजह से वह दिल्ली में विधानसभा चुनाव हार गई थी। 1980 में भी जनता पार्टी के साथ यही हुआ था जब प्याज के दामों को लेकर लोग शिकायत कर रहे थे।

अब 2018 में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ रहे हैं और मोदी सरकार के लिए ये ‘ओनियन प्राइस मोमेंट’ हो सकता है। हालांकि, हमारी नजर में ज्यादा बड़ा खतरा है लगातार रुपये का गिरना। रुपया कमजोर होने से न सिर्फ तेल बल्कि सारे आयात महंगे हो जाते हैं और इसका असर बड़े पैमाने पर होता है। रिजर्व बैंक ने अप्रैल की मौद्रिक नीति में आकलन किया था कि रुपये में पांच फीसदी की गिरावट से खुदरा महंगाई दर 0.20 फीसदी बढ़ जाएगी। अब तक इस साल रुपये में 12 फीसदी की गिरावट हुई है। महंगाई से अलग रुपये की गिरावट से जुड़े दूसरे मुद्दे हैं। भारत का शार्ट टर्म लोन मार्च 2018 के हिसाब से 102 अरब डॉलर था, जो 64.7 रुपये प्रति डॉलर विनिमय दर के आधार पर था लेकिन अब रुपया डॉलर के मुकबाले 70.6 के स्तर पर आ गया है, इसकी वजह से 600 अरब रुपये का अतिरिक्त भार पड़ सकता है।

यह समझना जरूरी है कि पेट्रोल-डीजल को छोड़कर दूसरी कई कैटेगरी में महंगाई की स्थिति अब ठीक है। अगर हम इसे 1998 (दिल्ली चुनाव, जब प्याज का दाम बड़ा मुद्दा था) और 1980 (लोकसभा चुनाव) की डबल डिजिट महंगाई दरों से तुलना करें तो कुल महंगाई आज चार फीसदी (अगस्त में 3.7%) के आसपास है।

आइए इस बारे में कुछ आंकड़ों को समझने का प्रयास करते हैं। खुदरा महंगाई के आंकड़ों के अनुसार, इस साल जनवरी और अगस्त के बीच पेट्रोल और डीजल के दाम क्रमश: 10 फीसदी और 18 फीसदी बढ़े हैं। इसी समय में खाद्य पदार्थों के दाम केवल 0.6 फीसदी ही बढ़े हैं। पिछले पांच साल में ईंधन महंगाई कभी इतनी ज्यादा नहीं रही। लेकिन इसी समय पिछले पांच साल में खाद्य वस्तुओं महंगाई इतनी कम नहीं रही, जितनी आज है। कहने का यह मतलब नहीं है कि औसत भारतीय ग्राहक ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी से प्रभावित नहीं होता। महीने का बिल बढ़ जाता है। जब ईंधन के दाम सुर्खियों में हैं तो खाद्य पदार्थों की महंगाई दर के ट्रेंड पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है और इसकी वजह से पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों से हो रही तकलीफों में कमी आ सकती है। आखिरकार औसत भारतीय ग्राहक का 40 फीसदी खर्च खाने पर होता है।

आलोचक तर्क दे सकते हैं कि दूसरे चरण में असर दिखेंगे। वह यह कि ईंधन के बढ़ते दाम ट्रांसपोर्टेशन की लागत बढ़ा देंगे, जिसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। यह कुछ हद तक सही है लेकिन हम पहले नतीजे पर पहुंचकर इसके असर को ज्यादा नहीं आंकेंगे। हाल ही के अध्ययन बताते हैं कि सामान्य महंगाई पर ईंधन के दामों का असर कम हुआ है।

मार्च 2018 में अपने अध्ययन ‘चेंजिंग डायनामिक्स ऑफ इन्फ्लेशन इन इंडिया’ में रवींद्र  ढोलकिया और विरिंची कडियाला कहते हैं कि पिछले पांच साल में महंगाई का डायनामिक्स काफी बदल गया है। वे विशेष रूप से इस तरफ इशारा करते हैं कि ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी का महंगाई पर असर कम हुआ है।

सितंबर 2017 में आइएमएफ की रिपोर्ट ‘ऑयल प्राइस एंड इन्फ्लेशन डायनामिक्स: एविडेंस फ्रॉम एडवांस्ड एेंड डेवलपिंग इकोनॉमिक्स’ में सैंग्यू चोई कहते हैं जब केंद्रीय बैंक महंगाई पर ध्यान देने का मन बनाता है (भारत के मामले में चार फीसदी) तो इससे मुद्रास्फीति को सपोर्ट मिलता है, जिससे तेल की कीमतों का असर महंगाई पर कम होता है।

इसे इस तरह देखें-अगर हम सब आशा करें कि केंद्रीय बैंक महंगाई दर को चार फीसदी से ज्यादा नहीं बढ़ने देगा और वेतन में डबल डिजिट बढ़ोतरी की मांग नहीं की जाएगी। मतलब यह कि लोग कम ‘आशा’ रखेंगे तो देश महंगाई की तरफ कम बढ़ेगा।

जिन कंपनियों ने विदेश से कर्ज लिया है उनका अतिरिक्त सर्विस भार, कर्ज की दर आर्थिक वृद्धि पर बड़ा असर डालेगी। संक्षेप में, तेल की बढ़ती कीमतें एक समस्या हैं लेकिन इस तरह की चीजों से हम 2017 यानी पिछले एक साल से निपट रहे हैं। इस समय बड़ी समस्या है रुपये की गिरावट जो अर्थव्यवस्था के दूसरे फैक्टर को बिगाड़ सकती है ।

हम इसे सरकार के लिए प्याज के दामों वाली स्थिति कहने की सीमा तक नहीं ले जाएंगे लेकिन इसे रोकने की जरूरत है। इससे पहले कि ये कभी न रुकने वाला चक्र बन जाए और रुपया फ्री फॉल की स्थिति में आ जाए।

इसके लिए पहला चरण तो यही होगा कि समस्या को ठीक से समझा जाए। अगर सरकार और रिजर्व बैंक अपना मन बदल लें और रुपये की गिरावट को एक संकट की तरह देखें जिसे दूर किए जाने की जरूरत है, तो ही चीजें बदल सकती हैं।‌ विकल्पों की कमी नहीं है। रुपये में उतार-चढ़ाव को रोकने के लिए कई सारे विकल्प हैं। देखते हैं कि कब सरकार हरकत में आती है।

(अभीक बरुआ एचडीएफसी बैंक के चीफ इकोनॉमिस्ट और तुषार अरोड़ा सीनियर इकोनॉमिस्ट हैं)

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