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भारी पड़ी सरकार की चूक

डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी और रुपये का टूटना किसान से लेकर उद्योग जगत तक सब पर भारी
रुपये में गिरावट धीरे-धीरे होती तो इकोनॉमी झटके सहने के लिए तैयार रहती

रुपये का रिकॉर्ड स्तर पर गिरना और बढ़ती पेट्रोल-डीजल की कीमतों ने अर्थव्यवस्था के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है। खास तौर से डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी कई स्तर पर परेशानियां खड़ी कर रही है। डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी का किसान से लेकर उद्योग जगत तक सब पर असर पड़ रहा है। ट्रांसपोर्ट लागत में डीजल की करीब 35-40 फीसदी तक हिस्सेदारी होती है। इसका सभी प्रमुख जगह पर असर होता है। ट्रांसपोर्ट का वास्ता तो जहां उत्पादन हो रहा है वहां से लेकर खरीदार तक से है। ऐसे में डीजल की महंगाई और चीजों में फैल जाती है। इसी तरह मिडिल क्लास जो ज्यादातर प्राइवेट ट्रांसपोर्टेशन का इस्तेमाल करता है, उसकी जेब पर भी पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी की वजह से असर हो रहा है। फिर रुपये के लगातार कमजोर होने से चालू खाते का घाटा बढ़ रहा है। यह सरकार के लिए अच्छे संकेत नहीं ला रहा है। हमारा आयात लगातार बढ़ रहा है, उसमें इलेक्ट्रॉनिक प्रोडक्ट्स का आयात काफी तेजी से बढ़ा है। यह एक नई चुनौती लेकर खड़ा हो गया है।

योजना आयोग में मेरे कार्यकाल के दौरान हम कच्चे तेल की कीमतों को 80 डॉलर प्रति बैरल के आधार पर तय करके पंचवर्षीय योजना का प्लान तैयार करते थे। अभी भी कच्चे तेल की कीमतें उस स्तर तक नहीं पहुंची हैं, जो खतरे को बढ़ा सकें। कच्चे तेल की कीमतें 2013 में 110 डॉलर प्रति बैरल के करीब थीं। यह मौजूदा सरकार के शुरुआती दौर में 40 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थी। ऐसे में वह दौर सरकार के लिए काफी राहत भरा था। अब ऐसा नहीं है। किसी भी स्थिति में 70-80 डॉलर प्रति बैरल के बीच कच्चे तेल की कीमतें होनी चाहिए। ऐसा इसलिए है कि अमेरिकी कंपनियों के लिए 60 डॉलर प्रति बैरल से कम पर कच्चे तेल का उत्पादन करना फायदेमंद ही नहीं होगा। ऐसे में सरकार को इस नई परिस्थिति के लिए पहले से तैयार होना चाहिए था।

अभी भी ऐसी कोई परिस्थिति नहीं खड़ी हुई है कि सरकार को तुरंत एक्साइज ड्यूटी में कटौती करनी पड़े। हमें पेट्रोलियम प्रोडक्ट की खपत में कमी करने की नीति पर काम करना चाहिए। हमें उसका कोई विकल्प लोगों को देना होगा, जिससे पेट्रोलियम प्रोडक्ट पर निर्भरता कम हो।

जहां तक बढ़ती महंगाई का सवाल है, तो उसका स्वरूप बदल रहा है। जैसे-जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है, वैसे-वैसे यहां महंगाई का स्वरूप भी बदल रहा है। खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई दर काफी कम है। अभी फूड और पेट्रोलियम उत्पादों को छोड़कर गैर खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर 5.5 फीसदी के करीब है। सर्विस और पेट्रोलियम सेक्टर की महंगाई दर 6.0- 6.5 फीसदी है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर 4-4.5 फीसदी पर है। आदर्श स्थिति में मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में महंगाई तीन फीसदी और खाने-पीने की चीजों की कीमतों की महंगाई दर 5-5.5 फीसदी होनी चाहिए। अभी खाने-पाने की महंगाई दर काफी कम होने से किसान के साथ ग्रामीण क्षेत्र में दूसरे उद्योग धंधों के बिजनेस पर भी नकारात्मक असर होगा।

ऐसे में महंगाई के मौजूदा आंकड़े पूरी तरह से सही तस्वीर नहीं पेश करते हैं। मेरा मानना है कि कुछ ऐसा हो रहा है, जिससे अभी सही आंकड़े सामने नहीं आ रहे हैं। सर्विस सेक्टर में महंगाई तेजी से बढ़ रही है, खास तौर से वहां जहां हुनरमंद लोगों की जरूरत है। जिस तरह से कुछ लोगों की सैलरी बढ़ी है, वह लागत पर असर डाल रही है। इससे सर्विस सेक्टर पर बोझ बढ़ रहा है। हालांकि, सैलरी को लेकर कोई ठोस आंकड़े 2009 के बाद नहीं आ रहे हैं, क्योंकि उस समय की क्राइसिस के बाद लेबर ब्यूरो का फोकस रोजगार के आंकड़ों पर चला गया। ऐसे में इसका सही-सही अनुमान लगाना मुश्किल है।

पेट्रोलियम प्रोडक्ट से ज्यादा रुपये में गिरावट बड़ी चिंता का विषय है। अभी जिस तरह से रुपया गिर रहा है, वह होना तो चाहिए था। लेकिन जितने कम समय में रुपये में तेजी से गिरावट आई है, वह कहीं से सही नहीं है। रुपया अभी डॉलर के मुकाबले 72 के स्तर पर है। यह मेरे हिसाब से सही है। लेकिन रुपये में यह गिरावट पिछले पांच साल में धीरे-धीरे आनी चाहिए थी। अगर ऐसा होता तो इकोनॉमी इस झटके को सहने के लिए तैयार रहती। लेकिन जिस तरह से एक झटके में रुपया गिरा है, उसने एक बड़ा झटका दिया है। सरकार को इस समय घबराना नहीं चाहिए, वह चुनावों को देखते हुए ज्यादा घबराई है।

अभी पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बेस इफेक्ट काम कर रहा है। हालांकि, यह बात साफ है सरकार के स्तर पर मैनेजमेंट करने में जरूर चूक हुई है, क्योंकि जब तेल की कीमतें कम थीं, तब सरकार ने ध्यान नहीं दिया कि 2014 में महंगाई दर दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में 3-3.5 फीसदी ज्यादा थी। उस समय रुपया हर साल 2-2.5 फीसदी डॉलर के मुकाबले कमजोर होना चाहिए था। उस समय तो आपने किया नहीं और अब एक झटके में कमजोर कर दिया। यह कदम कहीं न कहीं सरकार की दूरदर्शिता पर सवाल खड़े करता है।

(लेखक भारत सरकार के चीफ स्टैटिस्टेशियन रहे हैं। यह लेख प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत के आधार पर है)

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