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मेडल बरसेंगे पर कोशिश तो हो

जरूरत है खेल को राष्ट्र-निर्माण और राष्ट्र-गौरव के प्रतीक के रूप में स्वीकार करके कदम बढ़ाने की
ओलंपिक खेलों के आयोजन का दमखम रखने वाले श्‍ाहर की जरूरत

जकार्ता में 2018 के एशियाई खेल कई मायने में यादगार रहेंगे। नए सितारे क्षितिज पर चमके। जिनसे बड़ी आशा थी, वे खेत रहे। आंकड़ों में जो रुचि रखते हैं, उन्हें यह जरूर खला होगा कि चीन तो छोड़िए, जापान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, उज्बेकिस्तान, ईरान और ताइवान जैसे छोटे देश भी हमसे ज्यादा मेडल जीत गए।

यह कोई नई बात नहीं है। ऐसा दशकों से चलता आ रहा है। पहले एक प्रतिशत की वार्षिक आर्थिक विकास दर का ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ कहकर मजाक उड़ाया जाता था। उसे तो हम पीछे छोड़ आए। एक और चुनौती यह है कि अंतरराष्ट्रीय खेलों में मेडल की संख्या कैसे बढ़ाई जाए?

मेरा मानना है कि यह कोई मुश्किल काम नहीं है। जरूरत है खेल को राष्ट्र-निर्माण का कारगर हथियार बनाने और राष्ट्र-गौरव के प्रतीक के रूप में स्वीकार करने की और उसी हिसाब से संसाधन और जोर लगाने की। ओलंपिक और एशियाड कोई खेल-वेल नहीं हैं। यह तो एक प्रतीकात्मक अंतरराष्ट्रीय युद्ध है, जो देश अपने तेज-तर्रार और प्रशिक्षित खिलाड़ियों को मैदान में उतारता है, मेडल जीत ले जाता है। बाकी झेंप मिटाने के लिए तरह-तरह के बहाने गढ़ते हैं।

हरियाणा ने पाई (पार्टिसिपेशन, इंक्लूजन और एक्सीलेंस) मॉडल लागू किया। ‘प्ले फॉर इंडिया’ का नारा दिया। इसका परिणाम यह रहा कि मैदान कोई हो, देश की दो प्रतिशत आबादी और भौगोलिक क्षेत्र वाला राज्य वर्षों से देश के लिए एक तिहाई मेडल जीतता आ रहा है!

पार्टिसिपेशन की बात राष्ट्रीय फिटनेस अभियान से शुरू होनी चाहिए। करोड़ों लोग मोटापे, हृदय रोग, डाइबिटीज, ब्लड प्रेशर और डिप्रेशन की चपेट में है। स्पोर्ट्स की सुविधाओं और प्रोत्साहन के अभाव में बच्चे-युवा बीमारी-शराब-ड्रग्स-फसाद के ग्रास बन रहे हैं। खेलों से लोग टीम भावना, अनुशासन, शारीरिक श्रम के प्रति सम्मान, प्रतिस्पर्धा, निष्ठा, जूझारूपन जैसे गुण सीखते हैं। एक युवा देश की सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है, या तो लोगों को खेलों में लगाएं या फिर जेल और अस्पताल बनाना शुरू कर दें।

इंक्लूजन का अर्थ हर किसी को खेलों की सुविधा और प्रेरणा मुहैया कराना है, चाहे वे किसी भी तबके के हों। हरियाणा में फेयरप्ले प्रोग्राम के तहत अनुसूचित जाति के खिलाड़ियों को स्कॉलरशिप मिलती है। दिव्यांग खिलाड़ियों को दी जाने वाली सुविधाएं और इनामी राशि सामान्य खिलाड़ियों की तरह ही हैं। देश में अभी भी मुख्यधारा में उपलब्ध अवसर पढ़ने-लिखने-बोलने और रसूख वालों तक सीमित हैं। शारीरिक क्षमता वाले कमर-तोड़ मेहनत के बाद भी बमुश्किल पेट भर पाते हैं। जिन्हें यह स्थिति मंजूर नहीं, वे अलगाववाद, हिंसक प्रतिरोध और अपराध की दुनिया में अपना भविष्य तलाशते हैं। खेलों को एक सर्विस सेक्टर इंडस्ट्री की तरह विकसित करना ठीक रहेगा। स्वतः दर्जनों उद्योगों जैसे कि इवेंट मैनजमेंट, स्पोर्ट्स इक्विप्मेंट, ट्रांसपोर्टेशन, हॉस्पिटैलिटी, स्पोर्ट्स मैनजमेंट में नए रोजगार पैदा होने लगेंगे। पूर्व खिलाड़ियों की री-स्किलिंग कर उन्हें खेलों को बढ़ावा दिए जाने वाले काम में लगाया जाना चाहिए।

स्पोर्टिंग एक्सीलेंस का स्तर ऊंचा उठाने के लिए जरूरी है कि विभिन्न आयु-वर्ग में ग्रास-रूट स्तर पर सालभर स्पर्धाएं जारी रहें। जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को भी पहचान-इनाम मिले, इसके लिए खेलों का व्यवसायीकरण हो। प्रतिभावान खिलाड़ियों की छोटी आयु में पहचान कर उन्हें ओलंपिक जैसी बड़ी लड़ाई के लिए तैयार किया जाए। स्पोर्ट्स स्कॉलरशिप के जरिए हर बच्चे को फिटनेस के लिए ही सही, खेलने के लिए प्रेरित किया जाए। जीतने में मौके जितने होंगे, खेलने में लोगों की रुचि भी उतनी ही ज्यादा होगी।

उपलब्धियों से उपजे उत्साह का इस्तेमाल ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को खेलों में लगाने के लिए करना चाहिए। चाइनीज एथलेटिक्स एसोसिएशन ने ‘आइ रन फॉर ओलंपिक’ के नाम से एक अभियान चलाया हुआ है। इसके तहत वे दो अप्रशिक्षित मैराथन दौड़ने वालों को 2020 तोक्यो ओलंपिक में भेजने की बात कह रहे हैं। चीन के राष्ट्रपति ने कहा है कि 2022 के विंटर ओलंपिक के क्रम में 30 करोड़ नए लोगों को विंटर स्पोर्ट्स के लिए प्रेरित किया जाएगा। बात साफ है कि मेडल की सार्थकता इस बात में है कि वह और कितने लोगों को खेलों से जोड़ता है।

आर्थिक क्षेत्र में एक मान्यता है कि भारत मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बाइपास कर प्राइमरी सेक्टर से सीधे सर्विस सेक्टर में प्रवेश कर गया है। खेलों में भी मेडल की संख्या को छोड़ हमें खेलों के जरिए लोगों के फिटनेस स्तर को ठीक करने में जुटना चाहिए।

साल 2022 तक इसरो ने आदमी को अंतरिक्ष में भेजने की ठानी है। क्या ही अच्छा हो कि दिल्ली से सटे केएमपी एक्सप्रेस पर एयरपोर्ट के इर्द-गिर्द एक नया शहर बसाया जाए, जो ओलंपिक खेलों के आयोजन का दमखम रखता हो। फिर बड़े खेलों की मेजबानी की दावेदारी जोर-शोर से ठोकी जाए।

आखिर बड़ी सोच ही देश को बड़ा बनाएगी!

(लेखक आइपीएस अधिकारी हैं। 2008-12 में हरियाणा के स्पोर्ट्स डायरेक्टर रहे हैं । अपने अनुभवों पर ‘से यस टु स्पोर्ट्स’ नाम की चर्चित पुस्तक लिखी है)

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