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चुनावी जंग में आदिवासी रंग

आदिवासी शक्ति संगठन पिछले दो साल से तेजी से सक्रिय, मौजूदा राजनीतिक हालात में छोटे दल बिगाड़ सकते हैं बड़े दलों का खेल
यात्राओं और रैलियों से आदिवासी युवाओं को गोलबंद कर रहा जयस

मध्य प्रदेश में आदिवासी समुदाय और उनके नुमाइंदे अमूमन भाजपा और कांग्रेस के साथ दिखते रहे हैं। आदिवासी इलाकों में शानदार प्रदर्शन के ही बलबूते पहले कांग्रेस और पिछले कुछ दफे से भाजपा सत्ता की सीढ़ी चढ़ती रही है। लेकिन, इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह से आदिवासी, खासकर युवाओं की गोलबंदी हो रही है उसने चुनावी जंग को रोचक बना दिया है। इस समुदाय की बढ़ती राजनीतिक आकांक्षा कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए चुनौती साबित हो सकती है। मध्य प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में 47 सीटें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित हैं। फिलहाल इनमें से 32 सीटें भाजपा और 15 सीटें कांग्रेस के पास है। राज्य की साढ़े सात करोड़ की आबादी में करीब 20 फीसदी एसटी हैं और 19 जिलों में इनका प्रभाव है। झाबुआ, अलीराजपुर, धार, बड़वानी, डिंडौरी, मंडला, शहडोल, अनूपपुर, उमरिया जैसे कुछ जिलों की सभी सीटें एसटी के लिए ही आरक्षित हैं। आरक्षित सीटों के अलावा करीब 30 सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासी वोटर निर्णायक हैं।

भाजपा-कांग्रेस जैसे दलों ने इन्हें प्रतिनिधित्व तो दिया, लेकिन आदिवासी नेतृत्व को कभी बढ़ने नहीं दिया। यही कारण है कि आज आदिवासी युवा गुस्से में हैं। सामाजिक जागरूकता और अधिकारों के लिए 2012 में आदिवासी युवाओं ने जय आदिवासी युवा शक्ति (जेएवाईएस यानी जयस) बनाया। बीते दो साल में इस संगठन ने राज्य के आदिवासी इलाके में तेजी से अपनी पैठ बनाई है। जयस आदिवासियों के विस्थापन और पलायन के साथ उन्हें मूलभूत सुविधाएं और ‘पेसा’ कानून के तहत अधिकार न मिलने का मुद्दा उठा रहा है। इस संगठन के 90 फीसदी सदस्य युवा हैं। पिछले साल छात्र संघ चुनाव के बाद आदिवासी युवाओं का यह संगठन चर्चा में आया था। झाबुआ, अलीराजपुर, धार और बड़वानी जिले के कॉलेजों में हुए छात्र संघ चुनाव में उसने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को मात देकर 162 जगह जीत दर्ज की थी। भाजपा और कांग्रेस दोनों की नजर जयस पर है। 1990 के पहले तक आदिवासी कांग्रेस के साथ थे। तब भाजपा सामान्य वर्ग की पार्टी मानी जाती थी। फिर भाजपा ने रणनीति बदली और एससी-एसटी नेताओं को महत्व देकर कांग्रेस के इस वोट बैंक में सेंध लगाई। फिलहाल, भाजपा के 165 विधायकों में एक तिहाई से ज्यादा एससी-एसटी हैं।

जयस के अध्यक्ष 35 वर्षीय डॉ. हीरालाल अलावा आदिवासी बहुल जिले धार के कुक्षी कस्बे से ताल्लुक रखते हैं। 2016 में एम्स, दिल्ली से सहायक प्राध्यापक की नौकरी छोड़ उन्होंने अपने इलाके में क्लीनिक खोली। अब यात्राओं और रैली के जरिए आदिवासी युवाओं को गोलबंद कर रहे हैं। पिछले दो महीने के भीतर वे रतलाम और मंडला में बड़ी रैलियां कर चुके हैं। इन रैलियों ने शिवराज सिंह सरकार के कान खड़े कर दिए हैं। बीते तीन अगस्त को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने जयस के प्रतिनिधियों को मिलने के लिए बुलाया और नौ अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस पर राज्य के 20 जिलों में पहली बार छुट्टी की घोषणा की। डॉ. हीरालाल ने आउटलुक को बताया, “पिछले साल विश्व आदिवासी दिवस पर छुट्टी के लिए धरना देना पड़ा था, फिर भी हमारी मांग पूरी नहीं हुई थी।”

जयस ने ‘अबकी बार आदिवासी सरकार’ का नारा दिया है। डॉ. हीरालाल का कहना है कि न तो भाजपा और कांग्रेस ने आदिवासियों की तरफ ध्यान दिया और न ही आदिवासी नेताओं ने समाज के हित में काम किया। उन्होंने बताया कि आरक्षित सीटों सहित 80 सीटों पर जयस के उम्मीदवार उतारने की योजना है। जयस की सक्रियता से आदिवासी वोट बैंक खिसकने की आशंका को देखते हुए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इस वर्ग को नए सिरे से साधने में लग गए हैं। हाल में भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के अध्यक्ष राम विचार नेताम भी भोपाल पहुंचे थे। अभी भाजपा के 32 आदिवासी विधायक हैं। इसलिए, जयस के बढ़ते दखल से भाजपा को ज्यादा नुकसान होने की आशंका है। यही कारण है कि शिवराज सरकार तेंदूपत्ता संग्राहकों को जूते-चप्पल, साड़ियां वगैरह बांटकर उन्हें लुभाने की कोशिश कर रही है। जयस को साधने में कांग्रेस की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के समर्थक लगे हुए हैं। जयस के लोग कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के संपर्क में भी हैं।

मतभेद भी उभरे

जयस के भीतर चुनावी मैदान में कूदने की बात को लेकर मतभेद की खबरें भी आने लगी हैं। हालांकि संगठन के लोग इसे अफवाह बता रहे हैं। आदिवासी युवाओं का जोश और जज्बा चुनाव तक ऐसा ही बना रहा तो चुनाव में आदिवासी रंग चढ़ने से नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं। अभी चुनाव में दो महीने का समय है, ऐसे में कई समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे। सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस मध्य प्रदेश में गुजरात का फॉर्मूला भी लागू कर सकती है।

सपाक्स (सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक समाज) भी अपना प्रभाव जमाने में लगा है। सपाक्स के संरक्षक पूर्व आइएएस अधिकारी हीरालाल त्रिवेदी का कहना है कि उनका संगठन राज्य की सभी 230 विधानसभा सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करने को सोच रहा है। सपाक्स से अधिकांश रिटायर्ड अधिकारी और बुद्धिजीवी जुड़े हुए हैं। सपाक्स जातिगत आरक्षण को युक्तियुक्त करने के मुद्दे पर आगे बढ़ रहा है। हीरालाल त्रिवेदी ने आउटलुक को बताया, “हम सामाजिक समरसता कायम करना चाहते हैं।”

वैसे, मध्य प्रदेश में कर्मचारी संगठनों का बड़ा वोट बैंक माना जाता है। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री रहते कर्मचारी नेताओं को काफी महत्व मिला था। वहीं, दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में अजाक्स जैसे कर्मचारी संगठन आगे आए। मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के साथ बसपा का भी प्रभाव है। खासकर एससी सीटों पर बसपा की पकड़ मानी जाती है। 2013 में वह भले सिर्फ चार सीटों पर जीतने में सफल रही हो, लेकिन कई सीटों पर उसके प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे थे। साथ ही, सात प्रतिशत के करीब वोट शेयर भी बरकरार रखा था। पिछले 20 साल से बसपा का वोट शेयर सात प्रतिशत के आसपास ही बना हुआ है। मध्य प्रदेश में एससी की करीब 18 प्रतिशत आबादी है। इनके लिए 35 सीटें आरक्षित हैं, जिनमें दो कांग्रेस, तीन बसपा और 30 भाजपा के पास हैं।

2013 के चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 45 फीसदी और कांग्रेस का 37 फीसदी के करीब रहा। ऐसे में कांग्रेस और बसपा के बीच चुनावी गठबंधन से समीकरण बदल सकते हैं। पिछले चुनाव में 44 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के बीच पांच हजार से भी कम वोटों का अंतर रहा था। वहीं, 14 सीटें तो ऐसी थीं, जहां अंतर तीन हजार से भी कम वोटों का था। 

मध्य प्रदेश का जो राजनीतिक परिदृश्य है उसमें छोटे दलों का भले ही बड़ा वजूद न हो, लेकिन इनमें बड़े दलों का खेल बिगाड़ने का माद्दा जरूर है। यही कारण है कि इन दलों और समाज के विभिन्न वर्गों की राजनीतिक आकांक्षाओं को नई ऊंचाई देने वाले नेताओं की सक्रियता इस बार के विधानसभा चुनाव को दिलचस्प बना सकती है।

पुरानी है आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग

मध्य प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग पहले भी उठती रही है, लेकिन कोई भी आदिवासी नेता इस कुर्सी तक नहीं पहुंच सका। 1980 में आदिवासी नेता शिवभानु सिंह सोलंकी के पक्ष में विधायकों की संख्या अधिक होने के बावजूद वे मुख्यमंत्री नहीं बन सके। संजय गांधी की पसंद के चलते अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री बन गए। शिवभानु सिंह सोलंकी को उप-मुख्यमंत्री का पद दिया गया। 1993 में दिग्विजय सिंह की सरकार में दो उप-मुख्यमंत्री बनाए गए थे। आदिवासी कोटे से प्यारेलाल कंवर को यह पद दिया गया, जबकि ओबीसी से सुभाष यादव उप-मुख्यमंत्री रहे। दिग्विजय सिंह के दूसरे कार्यकाल में आदिवासी नेता जमुना देवी भी उप-मुख्यमंत्री रहीं। शिवभानु सिंह सोलंकी और जमुना देवी दोनों धार जिले के रहने वाले थे। 

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