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यह तो संघीय सहकारिता नहीं

आपदा राशि पर विवाद से बचने के लिए नीति आयोग को संवैधानिक दर्जा दे केंद्र सरकार से मुक्त किया जाए
अलग-अलग पार्टियों की सरकारें होने से विवाद लाजिमी

केरल में जो प्राकृतिक त्रासदी हुई है, उसकी वजह से उसे हर तरह से मदद की जरूरत है। लेकिन इस समय भी मदद से ज्यादा जोर राजनीति पर है। देश में केंद्र और राज्य सरकार का स्ट्रक्चर ऐसा है कि राज्य को मदद के लिए केंद्र सरकार की ओर मुंह देखना ही पड़ेगा। हमारे पास ऐसी कोई संस्‍था नहीं है जो इस समय संवैधानिक दर्जा रखती हो और जो बिना किसी विवाद के राज्य को उसकी जरूरत के अनुसार आर्थिक मदद पहुंचा सके या दिला सके। संकट की घड़ी में बिना किसी विवाद के मदद पहुंच सके, इसके लिए सरकारिया आयोग ने अंतरराज्यीय परिषद के गठन का प्रस्ताव दिया था। लेकिन उसे भी अच्छी तरह से अमलीजामा नहीं पहनाया गया। अंतरराज्यीय परिषद को गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। वह उसी तरह हो गया जैसे खिलाड़ी को ही अंपायर बना दिया जाय। अंतरराज्यीय परिषद गृह मंत्रालय के अधीन होने से साफ है कि केंद्र के पास ही अथॉरिटी है। ऐसे में विवाद होना लाजिमी है, क्योंकि अलग पार्टियों की सरकारों के बीच राजनैतिक रुझानों को लेकर ठन सकती है।

पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के दौर में जब केंद्र और राज्य दोनों में कांग्रेस की ही सरकारें हुआ करती थीं, तब राहत राशि को लेकर किसी तरह का विवाद नहीं होता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार हुआ करती थी। लेकिन अब दौर बदल चुका है केंद्र और राज्य में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें कई बार रहती हैं। मौजूदा समय में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, जबकि केरल में वामपंथी मोर्चे की सरकार है, ऐसे में मदद को लेकर विवाद होने की संभावना ज्यादा है। पार्टियां राजनैतिक नफा-नुकसान में ही लगी रहेंगी। ऐसे में असल मुद्दे दूर हो जाते हैं, जिसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ता है।

विवाद की स्थिति पैदा न हो, इसके लिए जरूरी है कि केंद्र सरकार अहम कदम उठाए। सरकार को चाहिए कि वह नीति आयोग को केंद्र सरकार के अधीन न रखे। नीति आयोग को संवैधानिक दर्जा मिले। नीति आयोग ठीक उसी तरह काम करे, जैसे अभी केंद्रीय चुनाव आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को संवैधानिक अधिकार मिले हैं। अगर ऐसा होता है तो अंतरराज्यीय परिषद को नीति आयोग के तहत लाया जा सकता है। इससे मदद को लेकर जैसी परिस्थिति केरल के सामने खड़ी हुई है, वैसी स्थितियां नहीं खड़ी होंगी। साथ ही, इस तरह के आरोप भी नहीं लगेंगे कि केंद्र सरकार राज्य की अनदेखी कर रही है।

जहां तक आपदा सेस या अतिरिक्त शुल्क लगाकर पुनर्वास और राहत के लिए कोष तैयार करने की बात है तो यह कदम कारगर नहीं होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि अब राज्यों के पास ऐसा अधिकार नहीं है कि वह सेस लगा सकें। जीएसटी लागू होने के बाद यह फैसला जीएसटी काउंसिल को करना होगा। अगर जीएसटी काउंसिल सेस लगाने की अनुमति देती है तो राज्य जीएसटी (एसजीएसटी) में ही उसे लगाएगी। ऐसे में सेस का भुगतान तो पहले से पीड़ित लोगों को ही करना होगा। इसके अलावा सेस लगाने से एक नई परंपरा भी शुरू हो सकती है। दूसरे राज्य भी इस तरह की मांग करेंगे। आगे की परिस्थितियों को देखते हुए इस कदम से बचना चाहिए। इसके पहले गुजरात ने भूकंप के समय हुई तबाही से उबरने के लिए सेस लगाया था। लेकिन उस समय जीएसटी देश में लागू नहीं थी, ऐसे में अब राज्य के स्तर पर फैसला लेना संभव नहीं है। कुल मिलाकर सेस लगाना एक बेहतर विकल्प नहीं होगा।

इसी तरह आपदा के समय विदेश से मदद लेने की जहां तक बात है तो कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि सरकार मदद नहीं ले सकती है। लेकिन यूपीए सरकार के दौरान उत्तराखंड त्रासदी के समय यह बात तय हुई थी कि भारत अब ऐसा कोई गरीब देश नहीं है कि वह विदेश से मदद ले। उसके बाद से यह परंपरा बनी है। हालांकि, अगर सरकार चाहे तो विदेश से मदद ले सकती है लेकिन उसमें काफी सावधानी बरतनी चाहिए। इसके तहत राहत राशि की एक सीमा तय होनी जरूरी है। साथ ही सहायता राशि केवल आपदा तक ही सीमित होनी चाहिए, वरना उसका दुरुपयोग हो सकता है।

केरल की समस्या इस समय पूरे देश की है। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह इस समय राज्य सरकार के साथ मिलकर पहले वहां के जीवन को पटरी पर लाने के लिए उसे फौरी तौर पर ज्यादा से ज्यादा सहायता दे। उसके बाद रिकंस्ट्रक्शन के लिए कितनी राशि की जरूरत होगी, उसका कैलकुलेशन करना चाहिए। ऐसा होने से सही मायने में कोऑपरेटिव फेडरेलिज्म का मॉडल तैयार होगा। लेकिन इसके लिए मौजूदा केंद्र सरकार को साहसिक कदम उठाने होंगे, ताकि एक संवैधानिक संस्था खड़ी हो सके। इसके लिए मौजूदा समय में नीति आयोग एक बेहतर विकल्प है। उसे संवैधानिक दर्जा देकर एक नया सिस्टम तैयार हो सकेगा। इससे राज्य और केंद्र सरकार के बीच किसी भी तरह के विवाद की गुंजाइश बहुत कम रह जाएगी।

(लेखक चौदहवें वित्त आयोग के सदस्य रह चुके हैं। लेख प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है) 

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