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सरकारी नीतियों की नाकामी से अर्थव्यवस्था हुई चौपट

नोटबंदी ने आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक अस्थिरता को बढ़ाया, शुरू में फेल होने का इल्म हुआ तो कैशलेस इकोनॉमी के लिए सरकार ने बनाया दबाव, असंगठित क्षेत्र को उबारे बिना संकट का नहीं निकलेगा समाधान
नोटबंदी से बढ़ी अस्थिरता

आठ नवंबर 2016 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी का ऐलान किया था, उसके कुछ दिन बाद ही सरकार को इसके फेल होने का इल्म हो चुका था। हाल में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया कि बंद किए गए 500 और 1000 रुपये के 99.3 फीसदी नोट वापस किए गए। वैसे, 99 फीसदी पुराने नोट वापस आने की बात पिछले साल की वार्षिक रिपोर्ट में ही सामने आ गई थी। 13 जनवरी 2017 तक ही बंद किए गए 98.8 फीसदी नोट वापस आ चुके थे। यह भी सबको पता है कि अभी तक जो पुराने नोट वापस नहीं आए हैं, वे भूटान, नेपाल और अन्य देशों में हैं। कुछ नोट ऐसे लोगों के पास भी रह गए हैं जो किसी कारण से तय समय सीमा में उसे लौटा नहीं पाए। शर्मिंदगी से बचने के लिए आरबीआइ एक साल से यह नहीं बता रहा था कि कितने पुराने नोट वापस आए। वापस हुए नोटों की दोबारा गिनती की बात कहकर लटकाए रखने की कोशिश कर रहा था, ताकि मामला ठंडा पड़ जाए।  

वह अनुमान गलत साबित हुआ कि नोटबंदी से मोटे तौर पर करीब तीन-चार लाख करोड़ रुपये के नोट सिस्टम में नहीं लौटेंगे, जिसे काला धन बताया जा रहा था। नोटबंदी से नकली नोट पर अंकुश लगाने का दावा भी पूरा नहीं हुआ। पिछले साल की रिपोर्ट में बताया गया था कि 40 करोड़ रुपये के नकली नोट पकड़े गए। मेरे अनुमान से कम से कम 10 हजार करोड़ रुपये के नकली नोट रहे होंगे। यानी अधिकांश नकली नोट भी सिस्टम में आ गए।

इसका पता सरकार और आरबीआइ को पहले से ही था। इसलिए, नोटों की दोबारा गिनती का बहाना बनाया जा रहा था, जबकि आरबीआइ के पास एक साथ इतने नोट रखने की क्षमता ही नहीं है। जब नोट धड़ाधड़ वापस आने लगे तो नवंबर 2016 में ही यह बात सामने आ गई थी कि नोटों को श्रेड (टुकड़े-टुकड़े) कर केरल की एक कंपनी को बोर्ड वगैरह बनाने के लिए दिया जा रहा है। जब शुरुआत में ही नोट नष्ट करने शुरू कर दिए गए थे तो दोबारा गिनती या नकली नोट छांटने की बात कहां से आई। जाहिर है, मामले को लंबा लटकाने के लिए बहाना बनाया जा रहा था।

काला धन भी सिस्टम में शामिल

करीब-करीब सारे नोट वापस आने का मतलब है कि जो काला धन था, वह भी नए नोट में बदल गया और नगदी उपलब्‍ध होने के कारण काली कमाई भी पहले की तरह ही चल रही है। इस समय तो नोटबंदी के वक्त से ज्यादा करेंसी हो चुकी है।

नोटबंदी के जरिए काले धन की अर्थव्यवस्‍था को खत्म करने की जो सोच थी, उसका आधार यह था कि काला धन नगदी में है। सो, अगर सिस्टम से नगदी हटा ली जाए तो काला धन समाप्त हो जाएगा। लेकिन यह गलत धारणा है। कालाधन लोग तरह-तरह से रखते हैं। मसलन, रियल एस्टेट, सोना-चांदी, शेयर वगैरह में निवेश के जरिए। मेरे हिसाब से काले धन का एक फीसदी ही नगदी में था। नोटबंदी से वह भी सिस्टम में लौट आया।

अब नाकामी छिपाने के लिए सरकार उन लोगों को नोटिस जारी करने का हवाला दे रही है जिनके खाते में नोटबंदी के बाद पांच लाख रुपये से ज्यादा जमा हुए। ऐसे 18 लाख से ज्यादा नोटिस जारी किए गए हैं। लेकिन, सवाल यह है कि क्या आयकर विभाग के पास 18 लाख अकाउंट ऑडिट करने की क्षमता है?

आयकर विभाग हर साल तीन-चार लाख अकाउंट का ही ऑडिट कर पाता है। ऐसे में सामान्य ऑडिट के साथ अतिरिक्त 18 लाख अकाउंट का ऑडिट पूरा होने में कई साल लगेंगे। एक खाते में पांच लाख रुपये से ज्यादा जमा होने का मतलब यह भी नहीं है कि वह कालाधन है। जो पैसा जमा किया गया, उसमें कितना कालाधन है यह पता करने में कई साल लगेंगे। फिलहाल, इससे अतिरिक्त कर उगाही की कोई गुंजाइश नहीं है। यह भी देखा गया है कि आयकर विभाग जितने मामलों को अदालत में ले जाता है, उसमें से करीब पांच फीसदी मामलों में ही उसे सफलता मिलती है।

सरकार का यह भी कहना है कि नोटबंदी के बाद टैक्स रिटर्न फाइल करने वाले बढ़े हैं। लेकिन, इससे ज्यादा टैक्स मिलने का दावा नहीं किया जा सकता। ऐसा पहले भी हो चुका है। 2012-13 में 2.7 करोड़ लोगों ने टैक्स रिटर्न फाइल किया। लेकिन, इनमें से 1.7 करोड़ लोग ही इफैक्टिव टैक्सपेयर्स थे यानी जिन्होंने ठीकठाक रकम  का टैक्स के तौर भुगतान किया था।

कैशलेस इकोनॉमी का शोशा

हर मोर्चे पर फेल होने के बाद सरकार डिजिटाइजेशन या कैशलेस इकोनॉमी की बात करने लगी। लेकिन, संगठित क्षेत्र में पहले से ही नगदी का कम इस्तेमाल होता है। असंगठित क्षेत्र जहां ज्यादातर लेनदेन नगद में होता है, उसे इससे बड़ा झटका लगा। असल में, जब तक लोगों को सहूलियत नहीं होगी, तकनीक के इस्तेमाल को लेकर वे सहज और सुरक्षित महसूस नहीं करेंगे तब तक डिजिटाइजेशन पूरी तरह संभव नहीं है। साइबर ठगी की बढ़ती घटनाओं से भी लोगों में घबराहट है। ऐसे में कैशलेस इकोनॉमी के लिए दबाव बनाने या डर पैदा करने से नकारात्मक प‌रिणाम दिखेंगे।

हमारी अर्थव्यवस्‍था में असंगठित क्षेत्र का हिस्सा 45 फीसदी है। सरकारी आंकड़े संगठित क्षेत्र के होते हैं। असंगठित क्षेत्र के सर्वे तीन साल या पांच साल पर होते हैं। लिहाजा, इस क्षेत्र को हुआ नुकसान जीडीपी के आंकड़ांे में दिखाई नहीं पड़ता। जब अगला सर्वे आएगा तब पता चलेगा कि असल में नोटबंदी से कितना नुकसान पहुंचा। हालांकि असंगठित क्षेत्र को लेकर नोटबंदी के बाद एसबीआइ, ऑल इंडिया मैन्यूफैक्चरर्स ऑर्गनाइजेशन के अलावा पंजाब, हरियाणा, दिल्ली के चैंबर ऑफ कॉमर्स या अन्य गैर-सरकारी संगठनों के जो सर्वे आए हैं, उन सभी में इस सेक्टर को 50 फीसदी नुकसान की बात कही गई है। नुकसान 50 के बजाय 10 फीसदी भी मान लें तो ग्रोथ रेट (-)4.5 फीसदी हो जाएगी। सरकारी आंकड़ांे पर आधारित संगठित क्षेत्र की ग्रोथ रेट भी छह-सात फीसदी से घटकर 3.5 फीसदी हो गई है। इस तरह नोटबंदी ने हमारी ग्रोथ रेट को एक फीसदी से भी नीचे पहुंचा दिया है। सात फीसदी से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्‍था का जो दावा है असल में वह घटकर एक फीसदी से भी कम हो चुकी है। यानी 150 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्‍था को नोटबंदी से कम से कम 10 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।

असंगठित क्षेत्र को नुकसान होने के क्या प्रमाण हैं? नोटबंदी के बाद सूरत और वडोदरा से डायमंड वर्कर, केरल से प्लांटेशन कर्मचारी, लुधियाना से होजरी और बाइसाइकिल इंडस्ट्री के 80 फीसदी लोग अपने गांव लौट गए। इसलिए मनरेगा के तहत काम की मांग तेज हो गई। इसी वजह से मनरेगा का आवंटन 2016 में 38 हजार करोड़ रुपये से बढ़कर अब 56 हजार करोड़ रुपये हो चुका है। मतलब कि लोग अभी भी मनरेगा से एक्सट्रा डिमांड कर रहे हैं और काम पर अब तक लौट नहीं पाए हैं।

संगठित क्षेत्र में भी पूरी क्षमता के मुकाबले कामकाज कम हो गया और निवेश रुक गया। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) के आंकड़े बताते हैं कि अक्टूबर-दिसंबर 2016 में निवेश घटकर 1.36 लाख करोड़ रुपये हो गया था। इससे पहले के आठ साल इसी तिमाही में औसतन निवेश 2.5 लाख करोड़ रुपये था। डिमांड में कमी और पूरी क्षमता का इस्तेमाल न होने से निवेश में कमी आई। निवेश कम होने से रेट ऑफ ग्रोथ घट जाती है।

उत्पादन, रोजगार और निवेश में कमी से जो स्थिति पैदा होती है उसे ही हम मंदी कहते हैं। लिहाजा, नोटबंदी से अर्थव्यवस्‍था मंदी की तरफ चली गई। बैंकों से कर्ज उठान भी दिसंबर 2016 में साठ साल के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया था। कर्ज उठान गिरने का मतलब भी उत्पादन और निवेश में कमी है।

कुछ हद तक संगठित क्षेत्र नोटबंदी को इसलिए झेल पाया क्योंकि उसके पास अन्य संसाधन भी होते हैं। इससे एक तरफ संगठित क्षेत्र कुछ बढ़ा, दूसरी तरफ असंगठित क्षेत्र की परेशानी बड़ी होती गई। असंगठित क्षेत्र के गिरने से संगठित क्षेत्र को यह फायदा हुआ कि उसे एक और बाजार मिल गया। मसलन, ई-कॉमर्स छोटे दुकानदारों का काम छीनने लगा। लेकिन, संगठित क्षेत्र में भी केवल बड़ी कंपनियां ही बढ़ रही हैं। स्टॉक मार्केट भी इसलिए बूम कर रहा है, क्योंकि वह ऐसी कंपनियों को ही रिप्रजेंट करता है। एमसीए-21 के जिस डाटा के आधार पर हम जीडीपी का आकलन करते हैं उसमें सात-आठ लाख कंपनियां हैं। लेकिन, स्टॉक मार्केट में केवल आठ हजार कंपनियां ही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, वर्ल्ड बैंक जैसी एजेंसियां भी सरकारी आंकड़ांे पर निर्भर होती हैं, जिसमें असंगठित क्षेत्र शामिल नहीं है। यहां तक कि अपनी रिपोर्ट जारी करने से पहले ये एजेंसियां केंद्रीय वित्त मंत्रालय से सलाह-मशविरा भी करती हैं।

जाहिर है, नोटबंदी से फायदा हासिल करने वाला तबका काफी छोटा है। इसलिए, अर्थव्यवस्‍था में गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक एक फीसदी लोगों का 70 फीसदी संपत्ति पर नियंत्रण है। इसमें ब्लैक इकोनॉमी को भी जोड़ दें तो एक फीसदी लोगों के पास 85 फीसदी संपत्ति हो जाती है। इसी तरह एक फीसदी लोग 40-45 फीसदी कमाई कर लेते हैं।

अस्थिरता को बढ़ावा

इस बीच, एक नया विवाद विकास दर को लेकर खड़ा हो गया है कि यह यूपीए के जमाने में ज्यादा थी या अब। इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीय वजहों से 2012 में हालात बहुत बदतर हो चुके थे। निवेश की दर 38 फीसदी हो गई थी। लेकिन, 2014 में जब मौजूदा सरकार आई तो हालात काफी सुधर चुके थे और अर्थव्यवस्‍था आगे बढ़ने को तैयार थी। ग्‍लोबल क्राइसिस नहीं था और अमेरिका तथा यूरोप की अर्थव्यवस्‍था मंदी से उबरने लगी थी। इसके बावजूद निवेश की दर गिरकर 32 फीसदी पर आ गई है।

असल में, इस सरकार ने नीतिगत नाकामी से खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी ने अर्थव्यवस्‍था को धाराशायी कर दिया। असंगठित क्षेत्र की कमर टूटने से कामगारों, छोटे कारोबारियों, किसानों की स्थिति और खराब हो गई है। बीते दो साल से युवाओं, व्यापारियों और किसानों का विरोध इसी कारण से तेज हुआ है। कुल मिलाकर नोटबंदी ने हमारी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक अस्थिरता को बढ़ाने का काम किया है।

(लेखक जेएनयू में अर्थशास्‍त्र के प्रोफेसर रह चुके हैं। काले धन पर उनकी चर्चित किताबें हैं। लेख अजीत झा से बातचीत पर आधारित है)

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