Advertisement

कृषि संकट से बढ़ी तपिश

खेती की बदतर स्थिति और रोजगार की कमी ने मराठा समुदाय के दर्द को दोगुना किया
मोर्चाबंदीः लंबे अरसे से ओबीसी के तहत आरक्षण की मांग को लेकर जुलाई और अगस्त में सड़कों पर उतरे मराठा

महाराष्ट्र में पहले जुलाई के अंत और फिर अगस्त के दूसरे सप्ताह में मराठों ने राज्यव्यापी बंद की घोषणा की। इस दौरान प्रमुख राजमार्गों को ब्लॉक कर दिया गया। स्कूल, कॉलेज और व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रहे। राज्य भर में सरकारी बसों, निजी कारों और औद्योगिक इकाइयों पर हमले हुए। औरंगाबाद में एक युवक की आत्महत्या के बाद लोग सड़कों पर आ गए और विभिन्न दलों के सात विधायकों ने इस्तीफा दे दिया, जिनमें सत्तारूढ़ दलों के तीन (दो भाजपा और एक शिवसेना) और विपक्षी दल के चार (दो कांग्रेस और दो राकांपा) विधायक शामिल थे। यह पिछड़े मराठों को सरकारी नौकरियों, शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण और अन्य लाभ देने की मांग को लेकर दबाव बनाने के लिए किया गया। इससे यह अंदाजा फौरन लग जाता है कि इससे राजनैतिक समीकरणों में किस तरह उलट-पुलट की संभावना जुड़ी हुई है। महाराष्ट्र में राजनीतिक रूप से प्रभावशाली मराठा समुदाय की संख्या राज्य की कुल आबादी का लगभग 32 फीसदी है और आरक्षण की उनकी यह मांग लगभग दो दशक पुरानी है। दिलचस्प है कि 2014 से बॉम्बे हाइकोर्ट में मामला लंबित होने के बावजूद देवेंद्र फड़नवीस सरकार ने पिछले साल अगस्त में नौकरियों और शिक्षा में 16 फीसदी आरक्षण का आश्वासन दिया था। पिछली कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सरकार ने भी इस समुदाय को लुभाने के लिए 2014 में विधानसभा चुनावों से पहले इतने ही कोटा की पेशकश की थी। तब भी पिछड़ेपन से संबंधित कोई ठोस सरकारी डेटा दिए बिना ही कोटे की बात कही गई थी। मराठा संगठन के प्रमुख वीरेंद्र पवार कहते हैं, “मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने हमें बेवकूफ बनाया है। अगर वह हमारी दुर्दशा के बारे में गंभीर होते, तो अब तक सामाजिक-आर्थिक सर्वे पूरा कर अदालत में पेश कर दिया गया होता।”

लोकसभा और विधानसभा चुनाव अगले साल होने हैं, इसलिए भाजपा की अगुआई वाली सरकार कोई रास्ता तलाशने के लिए दबाव में है। नौकरी और शिक्षा में कोटा का वादा करने के अलावा फड़नवीस सरकार ने 1,300 करोड़ रुपये के कोष का गठन कर मराठा छात्रों के लिए छात्रवृत्ति की शुरुआत की। युवाओं के लिए हॉस्टल और ब्याज मुक्त ऋण का भी वादा किया। पहले दो वादे पिछले साल ही लागू किए गए। लेकिन, हॉस्टल का निर्माण नहीं हुआ है। पवार कहते हैं, “सरकारी मदद में अक्सर देरी से ज्यादातर कॉलेज गरीब छात्रों को शुल्क जमा करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। गरीब परिवारों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे फीस दे सकें। ब्याज मुक्त कर्ज की तरह हॉस्टल का भी वादा कागजों में ही है। बैंक बिना गारंटर के ऋण नहीं दे रहे।”

महाराष्ट्र के शिक्षा मंत्री विनोद तावड़े का दावा है, “हमें किसी जिले से हॉस्टल का प्रस्ताव नहीं मिला, इसलिए सरकारी सहायता नहीं दी जा सकती थी। जब प्रस्ताव आएंगे तो हम कदम उठाएंगे।”

दरअसल, अतीत में मराठाओं की पृष्ठभूमि योद्धाओं और शासकों की थी। अधिकांश कॉलेज, चिकित्सा संस्थान और सहकारी समितियों पर भी इसी समुदाय का नियंत्रण था। अधिकांश मुख्यमंत्री और अन्य बड़े नेता भी इसी समुदाय से आते हैं। दो दशकों में ज्यादातर चीजें तेजी से बदल गईं। मराठा आंदोलन के पीछे कृषि संकट को मुख्य वजह मानने वाले समाज विज्ञानी अब्दुल शबान कहते हैं, “यह समुदाय आज व्यापक तौर पर कृषि से जुड़ा है और देश भर में खेती की हालत दयनीय है। जोत का आकार भी कम होता जा रहा है।”

स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के नेता राजू शेट्टी का कहना है कि प्रदेश में जिन इलाकों में मराठा ज्यादा हैं और उसमें भी पश्चिमी विदर्भ और मराठवाड़ा में कृषि संकट की वजह से यह समस्या बढ़ी है। 2014 में तत्कालीन कांग्रेस मंत्री नारायण राणे की अध्यक्षता वाली समिति के मुताबिक, सरकारी नौकरी में मराठों की संख्या केवल 15 फीसदी और उच्च एवं तकनीकी संस्थानों में दाखिला लेने वाले मराठों की संख्या 12 फीसदी है। लेकिन, आत्महत्या करने वाले किसानों में 36 फीसदी इसी समुदाय से थे।

इस रिपोर्ट के आधार पर विवादास्पद कोटा की बुनियाद बनी।

महाराष्ट्र देश में निवेश हासिल करने वाले शीर्ष राज्यों में एक है। इसके बावजूद खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में अवसरों की कमी से मराठों की दिक्कतें बढ़ी हैं। मराठा रैलियों में बड़ी संख्या में बेरोजगार युवाओं की भागीदारी देखी जा सकती है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के मुताबिक, फरवरी 2018 तक देश में लगभग 3.1 करोड़ युवा बेरोजगार थे, लेकिन इस दौरान लगभग छह लाख नौकरियां सृजित हुईं। रिपोर्ट के मुताबिक, महाराष्ट्र में बेरोजगारी 3.7 फीसदी है, जो मध्य प्रदेश (2.9 फीसदी), तमिलनाडु (2.3 फीसदी) और तेलंगाना (3.5 फीसदी) से अधिक है।

ऑल इंडिया फार्मर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अजीत नवले कहते हैं, “कोटा से शायद ही कोई राहत मिले, क्योंकि सरकारी नौकरियां बहुत कम हैं। सरकार को कृषि में अधिक निवेश कर शहरों से गांवों की तरफ ध्यान देने की जरूरत है।”

 “कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ठगा”

मराठा आंदोलन से जुड़े मुद्दे पर सकल मराठा समाज के संयोजक वीरेंद्र पवार से कंचन श्रीवास्तव ने बात की। कुछ अंशः

अतीत में मराठा योद्धा और शासक रहे हैं, जिनके पास काफी अधिक जमीनें थीं। आपको क्यों लगता है कि यह समुदाय पिछड़ गया है?

आजादी और खासतौर पर 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद हमारे समुदाय को बहुत नुकसान झेलना पड़ा। ओबीसी में कई ऐसे समुदाय भी जुड़ गए, जो आरक्षण के हकदार नहीं थे। मंडल आयोग ने सिफारिश की थी कि ओबीसी में विभिन्न जातियों को शामिल करने के लिए नियमित रूप से संशोधन होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

क्या कृषि और रोजगार संकट भी आपके समुदाय के पिछड़ेपन की वजह हैं?

कई पीढ़ियों से समुदाय के पास जमीनें कम होती गईं, जिससे खेती अलाभकारी पेशा बनती चली गई। त्रुटिपूर्ण और असंगत नीतियों या नीतियों के न होने से भी नुकसान पहुंचा। निर्यात पर बार-बार प्रतिबंध भी किसानों को प्रभावित करता है। वर्षों तक सरकारी नौकरियों में भर्ती पर रोक लगी रही और निजी क्षेत्र में भी नौकरियां अपर्याप्त हैं। आर्थिक पिछड़ेपन से ही सामाजिक पिछड़ापन आता है।

क्या कोटा से समस्या का समाधान हो जाएगा? जबकि गडकरी और अन्य लोगों ने भी कहा कि नौकरियां तो हैं ही नहीं।

हमने गडकरी और अन्य लोगों को नौकरियों की कमी के बारे में बात करते देखा। लेकिन, उसी समय मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जोर देते हैं कि सरकारी नौकरियां हैं। हम चाहते हैं कि वे खुद इस पहेली का हल निकालें और हमें सच बताएं।

आखिर आपके मुद्दे का समाधान क्या है?

ओबीसी आयोग की रिपोर्ट को छोड़कर कोई रास्ता नहीं है। इसे जल्द सार्वजनिक करना चाहिए। कांग्रेस-राकांपा और भाजपा-शिवसेना दोनों सरकारों ने कानूनी वैधता के बिना कोटा का वादा कर मराठा समुदाय को छलने का काम किया है।

आयोग की रिपोर्ट ही समाधान है, तो फिर आंदोलन करने की क्या जरूरत है?

2016 में हमारी मूक रैलियों की वजह कोपार्डी घटना थी (जिसमें दलित युवाओं ने एक मराठा लड़की के साथ गैंगरेप करने के बाद उसकी हत्या कर दी थी)। आरोपियों को सख्त सजा की मांग के अलावा, हमने अपनी मांगों में संशोधन किया और रैलियों के जरिए काफी अरसे से लंबित आरक्षण की मांग की। हालिया आंदोलन (इस जुलाई) उस वक्त शुरू हुआ जब फड़नवीस ने विधानसभा में घोषणा की कि सरकार 72 हजार पदों के लिए भर्ती शुरू करेगी।

Advertisement
Advertisement
Advertisement