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गड्ढे और खतरों के खिलाड़ी

अब हम आजाद हैं और भारतीयों को दूसरे भारतीयों को मारने की पूरी आजादी मिल गई है, जो पहले सिर्फ अंग्रेज अफसरों को थी
अब लोग विशुद्ध बेईमानी, बजरी और रेत से काम चला लेते हैं

भारत की सड़कों पर चलते हुए डर पहले भी लगता था। भारत की सड़कों पर चलते हुए या गाड़ी चलाते हुए ऐसा लगता है कि आप डिस्कवरी या नेशनल जियोग्राफिक के किसी शो का हिस्सा हैं। सड़कों पर इतने बड़े और गहरे गड्ढे हैं जैसे अफ्रीका के किसी जंगल में हों। उनसे भी बड़े गड्ढे वे हैं जो कार की ड्राइविंग सीट पर बैठे होते हैं, जिन्हें मोहल्ले की सड़क और एफ वन ट्रैक के बीच फ़र्क़ नहीं नजर आता। भारत की सड़कों पर हमेशा से ही खतरों के खिलाड़ी किस्म के कार्यक्रम के हिस्सेदार होने का अनुभव होता रहता है और घर पहुंचकर आप हमेशा राहत की सांस लेते हैं कि किसी खुले मैनहोल, विशालकाय गड्ढे या खूंखार ड्राइवर के शिकार नहीं हुए। लेकिन अब इसमें एक डर और शामिल हो गया है। मौसम विभाग का कहना है कि इस साल औसत से कम बारिश हुई है लेकिन इसी बारिश में इतनी सड़कों के धंसने और इमारतों के गिरने की खबरें आ रही हैं कि ऐसा लगता है अगर सामान्य बारिश हो जाए तो पता नहीं क्या हो। अब सड़कों पर चलते हुए एक डर यह लगता है कि ऐसा न हो कि सड़क धसक जाए और आप तीस या चालीस फीट नीचे पहुंच जाएं या बगल की इमारत भरभरा कर गिर जाए और आपको ढूंढने का काम एनडीआरएफ की टीम को करना पड़े।

सड़क सरकार बनाती है और इमारतें बिल्डर और ठेकेदार बनाते हैं, इससे पता चलता है कि सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों में हमने एक जैसी तरक्की की है। आज़ादी के इकहत्तर साल बाद हमारे सरकारी महकमों और निजी ठेकेदारों ने खुद को जरा सी भी ईमानदारी से सड़कों को जरा सी कोलतार से और इमारतों को सीमेंट से पूरी तरह आजादी दिलवा दी है। अब लोग विशुद्ध बेईमानी, बजरी और रेत से काम चला लेते हैं। हमारी आजादी के आंदोलन के नेता समझदार थे जिन्होंने यह तय किया कि पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री शाहजहां के बनवाए साढ़े तीन सौ साल पुराने लालक‌िले से झंडा फहराएंगे। शायद उन्हें यह अंदेशा था कि लालक‌िला तो साढ़े तीन सौ साल बाद भी मजबूत और सुरक्षित होगा लेकिन आजादी के सत्तर साल बाद ठेकेदार जो कुछ बनाएंगे, उसका एक बारिश में भी भरोसा नहीं है। बडी मेहनत से हमें आजादी मिली है। कम से कम पंद्रह अगस्त को झंडा वंदन तो निर्विघ्न हो जाए। बाकी तीन सौ चौंसठ दिन तो वही दोषियों को बख्‍शा नहीं जाएगा, कानून अपना काम करेगा, क‌िस्म के बयानों की जरूरत रोज पड़ती रहती है। अब भारत की सड़कों पर एक खतरा और मंडराने लगा है। आजादी के लगभग सत्तर साल बाद लोगों ने यह पता लगाया कि किसी को पीट-पीट कर मार डालने में बड़ा सुख है। अंग्रेजी राज में अंग्रेज भारतीयों को मारते थे आम तौर पर यह हक अंग्रेज अफसरों को होता था। वह गुलामी का जमाना था और भारतीय इस गुलामी से बड़े पीड़ित थे। अब हम आजाद हैं और भारतीयों को दूसरे भारतीयों को मारने की पूरी आजादी मिल गई है, जो पहले सिर्फ अंग्रेज अफसरों को थी। हमारे कई आजादीपसंद नेताओं को भी अब तक लगता था कि जो आजादी हमें मिली है वह अधूरी है।

अब वे भी खुश हैं और पीटने वालों को हार पहना रहे हैं और उनका उत्साह बढ़ाने वाले बयान दे रहे हैं। जो मर रहे हैं या जिन्हें पीटे जाने का अंदेशा है उन्हें पीटने वाले लोगों की यह खुशी बर्दाश्त नहीं हो रही है, स्वार्थी कहीं के। लेकिन कोई बात नहीं। मुगल बादशाह का बनाया लालक‌िला मजबूत है, वहां पहुंचने वाले वीआईपी लोगों की सुरक्षा भी चाकचौबंद है। सड़कों, इमारतों, धर्म और राजनीति के ठेकेदारों ने भले ही स्वतंत्रता के मायने बदल डाले हों, स्वतंत्रता दिवस तो अपना है, अपना ही रहेगा।

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