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आसान नहीं पाक राह

खस्ताहाली की कगार पर खड़े पाकिस्तान में इमरान खान के लिए फौज की मर्जी से आगे जाना मुश्किल
नई फिजाः कराची में जीत का जश्न मनाते इमरान के समर्थक

आखिरकार इस बार चुनावों में पाकिस्तान की सियासत में भुट्टो और शरीफ खानदान के लंबे दबदबे को खत्म करने में कामयाब रहने के बाद क्रिकेटर से नेता बने इमरान खान देश की कमान संभालने वाले हैं। वे 14 अगस्त को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। उनकी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी (पीटीआइ) ने शपथ ग्रहण की तारीख करीने से चुनी है। जब पाकिस्तान के लोग मुल्क की स्‍थापना का 71वां जश्न मना रहे होंगे तो इमरान खान “नया पाकिस्तान” बनाने का वादा करने वाले इमरान खान इसे भ्रष्टाचार के पाकिस्तान” बनाने के अपने वादे के साथ लोगों को नया सबेरा लाने का एहसास दिलाएंगे। वे भ्रष्टाचार  के सियासी अतीत से मुल्क को छुटकारा दिलाकर सुरक्षा, खुशहाली और इंसाफ के नए दिनों की शुरुआत करने का भरोसा दिलाएंगे।

हालांकि, ये सियासी रस्म-अदायगियां हर नई सरकार करती ही है। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। इमरान ऐसी कई चुनौतियों से रू-ब-रू हैं, जिनका हल आसान नहीं है।

वे एक ऐसे चुनाव के बाद देश की कमान संभालने जा रहे हैं जिसकी निष्पक्षता पर गंभीर सवाल हैं। इस तरह के आरोप नई सरकार की वैधता पर सवाल खड़े करते हैं। हालांकि, इमरान और उनके समर्थक इन आरोपों को यह कहकर खारिज करने की कोशिश करेंगे कि चुनाव हारने पर उसकी निष्पक्षता को लेकर सवाल उठाना परंपरा बन चुकी है। लेकिन, पाकिस्तान के सामने सबसे बड़ा संकट आर्थिक मोर्चे पर है, जिससे निपटना इमरान के लिए यकीनन चुनौतीपूर्ण होगा। आर्थिक संकट के अलावा कई अन्य मसले भी हैं जो नई सरकार के लिए मायने रखेंगे। इन समस्याओं से निपटने में पीटीआइ के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार की काबिलियत से ही यह तय होगा कि पाकिस्तान कितना स्थिर और कामयाब होगा।

न केवल पाकिस्तान के भीतर बल्कि बाहर भी आम धारणा यही है कि इमरान फौज की मदद से सत्ता में आए हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि उन्हें देश के ताकतवर फौजी हुक्मरानों का समर्थन हासिल है। यह भी उतना ही सच है कि पाकिस्तान में जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, सभी को सेना का समर्थन हासिल रहा। सेना के समर्थन के बिना सत्ता में बने रहना मुमकिन भी नहीं है। यही कारण है कि पाकिस्तान के सात दशक के इतिहास में कोई भी प्रधानमंत्री पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। जबकि सैन्य जनरल लंबे समय तक सत्ता में रहे और 71 साल के इतिहास में 30 साल से ज्यादा शासन सैन्य जनरलों ने किया है।

यही वह कारण है कि पाकिस्तानी राजनीति के अधिकांश जानकार सेना और सरकार के संबंधों में किसी तरह के मौलिक बदलाव की उम्मीद नहीं करते। परंपरा से सुरक्षा और विदेश नीति फौज ही तय करती रही है। भारत के संदर्भ में यह बात खास मायने रखती है कि इमरान जो कहेंगे या करेंगे, वह फौज की मंजूरी के बाद ही हो पाएगा।

कई भारतीय नीति-नियंताओं का मानना है कि तीन बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे नवाज शरीफ से फौज के रिश्ते तब खराब हुए जब वे उसकी अनदेखी करके भारत पहुंचे। अतीत से सबक लेकर शरीफ ने भारत के साथ मजबूत संबंध बनाने की जो उत्सुकता दिखाई, उसने सैन्य जनरलों को असहज कर दिया, खासकर 2015 में शरीफ के जन्मदिन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अचानक लाहौर पहुंचने जैसी घटनाओं ने। ऐसे में निश्चित रूप से पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री इमरान खान भारत से जुड़े मामलों में सावधानी बरतेंगे।

इसके अलावा संसद में पार्टी की स्थिति भी इमरान के लिए चिंता का सबब बन सकती है। चुनावों में कथित तौर पर सेना के समर्थन के बावजूद इमरान की पीटीआइ बहुमत हासिल करने में नाकाम रही। सरकार बनाने के लिए उसे निर्दलीय और छोटी पार्टियों की मदद लेनी पड़ी है। इसके कारण महत्वपूर्ण मसलों पर वे मन की नहीं कर पाएंगे और उन्हें सहयोगियों पर आश्रित रहना होगा।

अधिकतर जानकार मानते हैं कि इमरान खान के लिए सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक मोर्चे पर ही पैदा होगी। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) से फंड लाना उनकी सरकार के लिए शीर्ष प्राथमिकताओं में से एक हो सकती है।

आइएमएफ में विश्लेषक के तौर पर काम कर चुके पाकिस्तान योजना आयोग के पूर्व उप-प्रमुख  नदीम-उल-हक लिखते हैं, “आखिरकार आइएमएफ पाकिस्तान की मजबूरी है। बीते 30 साल में से 22 साल पाकिस्तान ने उससे मिले दर्जनों बेलआउट पैकेज पर गुजारा किया है।” 

चुनौती की तैयारीः इस्लामाबाद में सर्वदलीय बैठक में बोलते पूर्व प्रधानमंत्री गिलानी (बीच में)

आइए नजर डालें, आखिर पाकिस्तान का आर्थिक संकट कितना गंभीर है?

विशेषज्ञों की मानें तो पाकिस्तान भुगतान की समस्या से बुरी तरह जूझ रहा है। इसके कारण मुद्रा स्थायित्व, आयात के लिए जरूरी भुगतान और ऋण चुकाने की प्रक्रिया संकट में है। पाकिस्तान का बजटीय घाटा पिछले पांच साल में लगातार बढ़ता जा रहा है। बढ़ते-बढ़ते यह एक फीसदी से 10 फीसदी तक पहुंच गया है। तेल की बढ़ती हुई कीमतों के कारण आयात का बिल आसमान छू रहा है। पाकिस्तानी स्टेट बैंक के अनुसार मार्च से जुलाई 2017 के बीच पाकिस्तान आयात में ऊर्जा, मशीनरी और धातु का हिस्सा 70 फीसदी था। जबकि निर्यात में कपड़े का हिस्सा मामूली बढ़ा है। इसके कारण विदेशी मुद्रा भंडार करीब 10.3 अरब डॉलर घट गया। इससे देश के सिर्फ दो महीने के आयात को पूरा किया जा सकता है।

इसके साथ-साथ दिसंबर से चार बार रुपये का अवमूल्यन करने से मुद्रास्फीति नई ऊंचाइयां छू रही है। ठीक ऐसी ही समस्या पाकिस्तान ने साल 2013 में झेली थी जब आइएमएफ ने उसे 6.6 अरब डॉलर का ऋण दिया था। विशेषज्ञों की नजर में आज करीब 12 अरब डॉलर की जरूरत है। पाकिस्तान ने अपने पिछले ऋणों का ही भुगतान नहीं किया है, ऐसे में नए ऋण लेना मुश्किल हो सकता है।

आइएमएफ का सबसे बड़ा और प्रमुख सहयोगी अमेरिका है। ऐसे में मदद पाने के लिए पाकिस्तान को काफी हद तक अमेरिका की इच्छा पर निर्भर रहना होगा। ट्रंप ने जब से अमेरिका की कमान संभाली है दोनों देशों के रिश्ते सबसे बुरे दौर में हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए मिली मदद का सही तरीके से उपयोग नहीं करने को लेकर ट्रंप सार्वजनिक तौर पर पाकिस्तान की आलोचना कर चुके हैं। जाहिर है, अमेरिका मदद देने से पहले अफगानिस्तान में स्थिर सरकार और अपने सैनिकों की सुरक्षा के लिए तालिबान को साथ लाने में पाकिस्तान से और सक्रिय भूमिका की अपेक्षा रखेगा। विपक्ष में रहते हुए इमरान खान अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाके में अमेरिकी नीतियों के मुखर आलोचक रहे हैं। यहां तक कि उन्होंने अमेरिकी ड्रोन को मार गिराने की बात भी की थी। लेकिन अब प्रधानमंत्री के रूप में  उनका रवैया निश्चित तौर पर बदला होगा।

अमेरिका के साथ सहयोगी रिश्ता इमरान की जरूरत है। पाकिस्तान के सबसे करीबी सहयोगी चीन और अमेरिका के बीच ट्रेड वार से स्थिति और जटिल होती जा रही है। इन हालात में नियंत्रण रेखा पर भारत के साथ शांति बनाए रखकर इमरान कैसे आगे बढ़ पाएंगे, यह तो आने वाले दिनों में ही साफ होगा। लेकिन, इतना पक्का है कि राजनीति की पिच पर बाउंस और स्विंग क्रिकेट की पिच से कितनी अलग होती है, यह उनको जल्द ही समझ आ जाएगा।

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