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ध्रुवीकरण का एक और दांव

असली मुद्दा दबा, अब बन सकता है असम के बाहर भी राजनैतिक जोर-आजमाइश का मसला
पहचान खोने का डरः असम के नवगांव में एनआरसी ड्राफ्ट में अपना नाम खोजते लोग

असम की राजनीति में बांग्लादेशी हमेशा से महत्वपूर्ण मुद्दा रहे हैं, चाहे वे वैधानिक या अवैध तरीकों से आकर बस गए हों। यह मसला इतना संवेदनशील और सनसनीखेज है कि इससे कई पूर्व छात्र नेता हीरो बन गए तो कई दिग्गज बियाबान में ढकेल दिए गए। यह असम में तीखे ध्रुवीकरण का सबब बनता रहा है। लेकिन, अब राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) इसे राष्ट्रीय मुद्दे में तब्दील कर सकता है और “अवैध बांग्लादेशियों” का मुद्दा 2019 के आम चुनावों के लिए देश भर में धमक दिखा सकता है। भाजपा ने इसकी जोरदार कोशिश भी शुरू कर दी है तो विपक्ष भी संभावना भांपकर तेवर दिखाने लगा है।

एनआरसी की अंतिम मजमून रिपोर्ट 30 जुलाई को जारी होते ही सबसे पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा, “यह लोगों को बांटने की भाजपा की साजिशी रणनीति का हिस्सा है।” अगले दिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पत्रकारों से कहा, “इस पर अक्षरशः अमल किया जाएगा।” उन्होंने कांग्रेस और ममता बनर्जी की चिंताओं को “वोटबैंक” की राजनीति से प्रेरित बताया। उन्होंने अवैध बांग्लादेशियों और रोहिंग्या प्रवासियों को राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा और भारतीय लोगों के अधिकारों का हनन बताकर साफ कर दिया कि भाजपा इसे देशव्यापी मुद्दा बनाने और इस पर विपक्ष को घेरने की मंशा रखती है।

हालांकि, एनआरसी की यह मजमून रिपोर्ट 1951 की पहली रिपोर्ट का अद्यतन रूप है और आपत्तियों के निपटारे के बाद अंतिम रिपोर्ट 31 अगस्त को जारी होगी। लेकिन इसमें 3.29 करोड़ आवेदकों में से 40 लाख लोगों को शामिल न करने से विवाद भड़क उठा है। विपक्ष मुसलमानों और बंगालियों के साथ भेदभाव का आरोप लगा रहा है। एनआरसी मसौदे पर संसद में आरोप उछले तो केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सफाई दी कि आपत्तियों के निपटारे में उचित प्रक्रिया का पालन किया जाएगा।

दरअसल, एनआरसी की प्रक्रिया ही सवालों के घेरे में है। दनादन कई बड़ी गलतियां सामने आ गईं। मसलन, जुड़वा बहन-भाइयों में एक का नाम शामिल है तो दूसरे का नहीं, सात पूर्व सैनिकों के नाम भी गायब हैं। दो मौजूदा विधायकों के नाम भी एनआरसी की सूची में नहीं हैं। पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के वंशजों की भी यही शिकायत है। ये तो महज कुछेक उदाहरण भर हैं। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दल इन गलतियों का हवाला देकर एनआरसी तैयार करने में बंगाली और मुसलमानों के साथ भेदभाव करने का आरोप लगा रहे हैं। ममता बनर्जी ने एनआरसी से गृह युद्ध की आशंका जताई और सूची से बाहर रह गए 40 लाख लोगों को आश्रय देने का वादा किया।

शाह ने भी फौरन मोर्चा संभाला। संसद में विपक्ष के ‌हंगामे के कारण अपनी बात नहीं कह पाए तो कुछ घंटों के भीतर ही प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और कहा कि विपक्ष के नेताओं को “अवैध बांग्लादेशियों के अधिकारों की चिंता खाए जा रही है।” भाजपा इस मुद्दे को राष्ट्रवाद के अपने एजेंडे के साथ जोड़ने की जुगत भिड़ा रही है। शाह ने कहा कि कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने 2005 में एनआरसी की प्रक्रिया शुरू की थी, लेकिन “अवैध बांग्लादेशियों को बाहर निकालने का उसमें साहस नहीं था।”

सूत्रों के मुताबिक, भाजपा का अगला निशाना पश्चिम बंगाल में “अवैध प्रवासियों” पर है। उसे उम्मीद है कि 2019 के आम चुनावों में यह मुद्दा उसे लाभ दिला सकता है। भाजपा से जुड़े सूत्रों के मुताबिक अवैध बांग्लादेशियों का मामला हर जगह जोर-शोर से उठाया जाएगा, चाहे गुवाहाटी हो या फिर गुड़गांव या मुंबई। दिल्ली में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “वे हर जगह हैं और उनकी संख्या बढ़ रही है। ज्यादातर लोग उन्हें बाहर करना चाहते हैं।” हालांकि, भाजपा नेता यह नहीं बता रहे हैं कि उन लोगों का क्या होगा, जो कानूनी और आधिकारिक दस्तावेजों के बावजूद असम में बाहरी घोषित  हो सकते हैं। लेकिन, यह अभी दूर की कौड़ी है।

असम में फाइनल ड्राफ्ट में जिनका नाम नहीं है वे लंबी लड़ाई की तैयारी में हैं, जिसकी शुरुआत चुनौती देने वाले फॉर्म से होगी। वकील सैयद बुरहानुर रहमान ने आउटलुक को बताया, “ऐसे लोग वैध दस्तावेजों के साथ सामने आएंगे। मेरा मानना है कि आधे लोगों से ज्यादा का नाम लिस्ट में आ जाएगा।” शेष बचे लोगों का क्या होगा? रहमान कहते हैं, “ऐसे लोगों के पास लिस्ट में अपना नाम डलवाने के लिए फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (एफटी) के पास अपील करने का विकल्प है। वहां भी कामयाबी नहीं मिलने पर गुवाहाटी हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दाखिल करने का विकल्प होगा।”

रहमान ने बताया कि सौ से ज्यादा एफटी में करीब 2.5 लाख मामले लंबित हैं। इससे अवैध प्रवासियों के मामलों की निपटाने की प्रक्रिया पूरी होने में और देरी हो सकती है। एनआरसी को पूरा करने के लिए केंद्र ने कोई समयसीमा भी तय नहीं की है।

जिन लोगों ने एनआरसी अधिकारियों से दोबारा संपर्क किया है उनमें रिटायर्ड फौजी अजमल हक भी हैं। लांसनायक इनामुल हक सहित छह दूसरे फौजियों ने भी दोबारा अपील की है। अजमल हक ने आउटलुक को बताया, “देश की सेवा करने के बाद क्या मुझे फॉर्म भरकर अपनी नागरिकता साबित करनी होगी? हम राष्ट्रपति को पत्र लिखने जा रहे हैं।” इससे पहले 2017 में भी फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ने हक को नागरिकता प्रमाणित करने के लिए नोटिस भेजा था। बाद में, असम पुलिस ने इसे “गलत पहचान” का मामला बताया।

फाइनल ड्राफ्ट में ऐसे व्यक्ति या उनके वंशज शामिल हैं जिनके नाम एनआरसी, 1951 में या 25 मार्च 1971 तक मतदाता सूची या इस समय सीमा के दौरान बने किसी अन्य स्वीकार्य दस्तावेज में थे।

प्रसिद्ध समाज विज्ञानी अमलेंदु गुहा के पोते नबारुण गुहा का नाम भी फाइनल ड्राफ्ट में नहीं है, लेकिन उनकी उम्मीदें कायम हैं। नबारुण ने बताया, “सूची में नाम न होना दुखद है। हम जन्म से भारतीय और असमी हैं। हमारे पास सभी जरूरी दस्तावेज हैं।”

उनका मानना है कि एनआरसी मुसलमानों और बंगालियों के खिलाफ नहीं है, जैसा कि कई लोग बता रहे हैं। उन्होंने बताया, “सूची से 40 लाख लोगों को बाहर रखने के बावजूद कोई तनाव नहीं है। राज्य में किसी तरह की हिंसक घटना नहीं हुई है।” नबारुण के परिवार के बाकी सदस्यों के नाम सूची में हैं।

असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने भी ड्राफ्ट जारी होने के बाद संयम दिखाने के लिए राज्य के लोगों को धन्यवाद दिया है। सोनोवाल ने कहा, “लोग एनआरसी के मसौदे का स्वागत कर रहे हैं, कुछ खास समूह के लोग अफवाह फैलाने और अस्थिरता लाने की कोशिश कर रहे हैं। असम के लोग हमेशा शांति और सद्‍भाव के साथ रहते हैं। हम किसी को कानून-व्यवस्था बिगाड़ने नहीं देंगे।”

हालांकि, उत्तेजना तब फिर पैदा हो सकती है जब तृणमूल की टीम असम पहुंचेगी। अभी तो तृणमूल सांसदों की पहली टोली को गुवाहाटी हवाई अड्डे पर रोक लिया गया। बंगालियों के साथ भेदभाव के ममता के आरोपों पर एनआरसी के समन्वयक प्रतीक हजेला ने गुवाहाटी में कहा कि नागरिकता के सबूत के तौर पर डेढ़ लाख में से लगभग एक लाख 35 हजार आवेदकों के दस्तावेज बंगाल सरकार ने नहीं देखे हैं।

असम और अन्य जगहों पर जिस तरह साजिश की बात की जा रही है, उससे लगता है कि एनआरसी पर राजनैतिक लड़ाई में उन लोगों की बात दब सकती है जिनके सामने बेघर होने या देश से निकाले जाने का संकट मंडरा रहा है। इसे केवल एक “चुनावी मुद्दा” बनाना, ऐसे लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ जैसा होगा। 

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