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दिल्ली के दरमियां देश

कृष्णा सोबती ने महीन पच्चीकारी से भाषा का सौंदर्य इतना ऊंचा कर दिया है कि गद्य भी पद्य जैसी लय पा जाता है
मार्फ़त दिल्ली

सबसे बुजुर्गवार रचनाकारों में कृष्णा सोबती की उपस्थिति हिंदी साहित्य के लिए एक आश्वस्ति की तरह है। इधर उनकी सक्रियता ने वह मिथक भी तोड़ दिया है कि उनका ‘कम लिखना भी एक विशिष्ट परिचय’ है। हाल ही में तो उनकी किताब गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान संवेदनाओं को झकझोर कर हमारी चेतना को चुनौती दे गई। साल भर में ही उनका संस्मरण मार्फ़त दिल्ली हमें उस पीड़ा और प्रतिश्रुति की याद दिला रहा है, जो बंटवारे और आजादी के वक्त एक राष्ट्र के रूप में आत्मसात की गई थी। जब वे लिखती हैं कि यह वह दास्तां है जो “दिल्ली दूर हो गई” तो ऐसा लगता है मानो हमें अपने पुरखों के संकल्पों की याद दिला रही है और आज के दौर के हालात से आगाह कर रही है। फिर, मानो चेतावनी भी देती हैं कि “इतना याद रहे, इसका (दिल्ली का) पानी किसी को गरदाता नहीं। बहुत भारी है पानी यहां का। हलका पड़ा नहीं कि आदमी गया नहीं।”

बंटवारे, आजादी और उसके आसपास दंगों के दिनों के दहशत भरे माहौल का वर्णन भी आज के हालात की याद दिला जाता है। इस मार्फ़त दिल्ली में देश की राजधानी की वह छवियां भी हैं, जो आजादी का शामियाना तान रही थीं और स्वतंत्रता सेनानियों के जयकारे के साथ देश भर से लोग अपनी-अपनी पोशाकों में आ पहुंचे थे। इसमें दिल्ली की हरियाली, जामुन के पेड़, पुराने खंडहर और पुरानी दिल्ली की रौनक की खनक भी है। ट्राम भी है और वह लाइब्रेरी स्पेशल बस भी, “उस जैसी बस हमने फिर बाहर के मुल्कों में ही देखी। नीचा फुटबोर्ड-बढ़ियां सीटें-रिसर्चरों के लिए किताबें रखने की जगह साफ-सुथरी, परदे। और रूट ऐसा कि किसी भी लायब्रेरी के सामने उतर जाइए। मॉरिसनगर से चलकर तीन मूर्ति तक। एक दिन खबर मिली कि सर्विस जारी है मगर खास वह वाली बस दिल्ली टूरिज्म को सौंप दी गई है।” शायद वह नागरिक सेवाओं के बदले व्यावसयिकता या बाजारबाद की ओर कदम बढ़ने के कुछ पहली मिसालों में होगी, और दिल्ली की फिजा में साहित्य, संस्कृति की घटती जगह की भी।

आज तो बाजारवाद के हल्ले में कॉफी हाउस, मंडी हाउस और ऐसे तमाम रेस्तरां उजड़ गए हैं या उजाड़-से हो गए हैं जहां कभी घंटों साहित्य, संस्कृति और राजनीति के चर्चे गुलजार रहा करते थे। कनॉट प्लेस का वह गेलॉर्ड और राजकमल अब कहां हैं, जहां “जैनेन्द्र, अज्ञेय, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, उपेंद्रनाथ ‘अश्क’, भगवती चरण वर्मा, नरेन्द्र शर्मा, वाचस्पति पाठक, यशपाल जैन, डॉ. मोतीचंद, देवेन्द्र सत्यार्थी-को हमने अलग-अलग शामों में कनॉट प्लेस के ‘राजकमल’ में ही देखा।”

मार्फ़त दिल्ली में इसके अलावा बहुत रसीले किस्से भी हैं और हमारी संस्कृति, समाज के अनोखे रंग भी हैं। एक किस्सा ‘पंडित माउंटबेटन की जय’ का सुनकर आपको सहसा शायद यकीन ही न आए। “हम जानते थे कि आज तो यह प्लाजा का खासुलखास टिकट है, इस एक ही टिकट में दर्शन करेंगे मीराबाई बनीं सुब्बालक्ष्मी के, लार्ड और लेडी माउंटबेटन और अपने प्रिय नेता जवाहरलाल नेहरू के। चार-छह पुलिसवाले इधर-उधर मंडरा रहे हैं, शायद दो-एक प्लेन कपड़े में खुफिया भी होंगे। हमारे सहकर्मी कैलाशपति पास आन खड़े हुए-देखिए पुराने साम्राज्यवाद की पुन: व्याख्या हो रही है। माननीय अतिथियों के सीढ़ियां चढ़ते हुए अचानक बिजली गुल हो जाती है-जो जहां खड़ा है, खामोशी से वहीं टिक गया। निश्‍चल खड़े हैं भारतीयों के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन और लेडी माउंटबेटन। दर्शनीय दंपती। साथ खड़े हैं नेहरू जी अपनी सफेद खादी पोशाक में। उनके साथ खड़ी हैं चौड़े पाट की दक्षिणी साड़ी में सुब्बालक्ष्मी। भीड़ जोश में आ गई। पंडित नेहरू की जय, पंडित माउंटबेटन की जय।” आज वीवीआइपी तामझाम और संगीनों की पहरेदारी में यकीन नहीं होता कि यह इसी देश का नजारा है।

सोबती जी के कथा शिल्प के बारे में तो क्या कहने। उन्होंने महीन पच्चीकारी से भाषा का सौंदर्य इतना ऊंचा कर दिया है कि गद्य भी पद्य जैसी लय पा जाता है। यह संस्मरण आज के दौर में हर किसी को पढ़ना चाहिए, ताकि वह जान सके कि हमारा प्रस्थान बिंदु क्या था और हम कहां पहुंचे हैं।

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