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गोलमेज से निकले सहमति के संकेत

कश्मीर पर एक स्वीकार्य समाधान तक जल्द से जल्द पहुंचना हमारे हित में
विचार-विमर्शः (बाएं से) नईमा मेहजूर, आगा रुहुल्ला मेहदी, लेफ्टिनेंट जेनरल (रिटायर) डी.एस. हुड्डा, शेषाद्रि चारी, बरखा दत्त, पी. स्टोबडन, गौहर गिलानी, अब्दुल मजीद बांडे और बशारत अली

हाल में दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग में सुरक्षा बलों की गोली से मारे गए लश्कर-ए-तैयबा के एक आतंकवादी के जनाजे में उमड़ा जन-सैलाब फिर वही अफसाना दोहरा गया, जिससे हम पहले ही वाकिफ हैं, मगर वह एहसास फिर भी गायब हैः कि बाज वक्त में इस खूबसूरत वादी के लोगों से बाकी देश और दिल्ली के हुक्मरानों की दूरी कितनी बढ़ गई है। जनाजे में उमड़ी भीड़ इस बात का भी प्रमाण थी कि सुरक्षा बलों की कोई भी ‘कामयाबी’ हमें किसी प्रभावशाली नतीजे के करीब नहीं ले जा रही।

इन ‘कामयाबियों’ से कुछ हासिल हो रहा है तो यही कि स्‍थानीय असंतोष की हूक तेज हो उठती है। दोनों तरफ बढ़ रही हताहतों की संख्या देश को ही छलनी कर रही है। निराशा और हिंसा का यह कुचक्र दूर तलक फैल चुका है।

असल में, दुनिया की कुछ समस्याएं ऐसी हैं जो लंबे अरसे से समाधान से मुंह मोड़ती रही हैं। दशकों से उत्तर और दक्षिण कोरिया आमने-सामने हैं, लेकिन अलग-थलग पड़े प्योंग्यांग के शासक किम जोंग उन और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच एक शिखर सम्मेलन से अब बर्फ पिघलती नजर आ रही है। उत्तरी आयरलैंड और बोस्निया जैसे विवाद सुलट चुके हैं। लेकिन, दुर्भाग्य से अड़ियल रवैए के कारण लंबे समय से दुनिया की जिन दो समस्याओं का समाधान नहीं हो पाया है, उनमें से एक कश्मीर है। दूसरे, गाजा पट्टी का विवाद है, जो फलस्तीनियों और इजरायलियों के प्रचंड गतिरोध का प्रतीक है।

गतिरोध से ताकत कम होती है और खुद की हार होती है। इसलिए, कश्मीर के लिए एक स्वीकार्य समाधान तक जल्द से जल्द पहुंचना हमारे हित में होगा। भारत को वास्तव में एक लोकतांत्रिक देश के तौर पर समृद्ध होना है तो वह अपनी आबादी के अच्छे-खासे हिस्से कश्मीरियों को हमेशा के लिए अलगाव और निराशा के भंवर में नहीं छोड़ सकता। समाधान वक्त की जरूरत है।

लेकिन इसके लिए ‘कश्मीरियत’ और ‘हीलिंग टच’ जैसे ‌घिसे-पिटे मुहावरों से परे जाकर कारगर उपाय तलाशने की दरकार है। अब तक के कदम नतीजे देने में नाकाम रहे हैं और हम ऐसी स्थिति में फंस गए हैं जहां दूसरे पक्ष के साथ सख्ती में ही समाधान दिख रहा है। सार्वजनिक बहसों और टीवी के प्राइम टाइम में सद्‍भावना की बची-खुची जगह नफरत ने ले ली है। कश्मीरियों के साथ किसी तरह की सहानुभूति को हममें से कई विश्वासघात और देशद्रोह के तौर पर देखते हैं। भावनाएं भड़काने वालों के कारण अविश्वास और संदेह दूसरी तरफ भी है। इसलिए, यह नई पहल, नए अफसाने और नए मुहावरे गढ़ने का वक्त है, ताकि अलगाव महसूस कर रहे लोगों में आशा का संचार हो सके और सरकार कारगर कदम उठा सके; जिससे कि कश्मीरी मुस्लिम से लेकर कश्मीरी पंडित तक, सरकार विरोधियों से लेकर पाकिस्तान तक, सभी पक्षों में सहमति बने।

आउटलुक ने इसी मकसद से दिल्ली में ईमानदार बहस की कोशिश की। समाज के विभिन्न तबकों- आरएसएस, नेशनल कॉन्‍फ्रेंस, पीडीपी, हुर्रियत, सेना और कश्मीर मामलों के जानकार पैन‌ल में शामिल थे। इसमें असहमतियों के बीच ऐसे सुझाव भी आए जो सहमति के शुरुआती संकेत माने जा सकते हैं।

आज संभव समाधान

दिल्ली में 28 जून को आउटलुक गोलमेज कॉन्फ्रेंस में कश्मीर समस्या से जुड़े हर पक्ष और विचार से जुड़े आठ लोग आमने-सामने बैठे और हर पहलू की चीर-फाड़ करके आज के संदर्भ में संभव समाधान पर अपना नजरिया पेश किया। धुर विरोधी वैचारिक पृष्ठभूमियों के ये आठ लोग आरएसएस के मुखपत्र के पूर्व संपादक तथा भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्रि चारी, सेना की उत्तरी कमान के पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर) डी.एस. हुड्डा, नेशनल कॉन्फ्रेंस के तीन बार के विधायक आगा रुहुल्ला मेहदी, पीडीपी नेता नईमा मेहजूर, वकील अब्दुल मजीद बांडे, पत्रकार गौहर गिलानी, बुद्घिजीवी बशारत अली और रणनीति विशेषज्ञ प्रोफेसर पी. स्टोबडन थे। बातचीत का संचालन टीवी एंकर बरखा दत्त ने किया। इस विस्तृत बहस से हर एक के नजरिए से संभव समाधान पर एक नजरः

 

शेषाद्रि चारी, पूर्व संपादक, ऑर्गनाइजर

तीसरे पक्ष की मध्यस्‍थता अस्वीकार्य है। जम्मू–कश्मीर की चारों मुख्य पार्टियां पीडीपी, भाजपा, कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस मिलकर राज्यपाल के तहत प्रशासकीय काउंसिल बनाएं। किसी टिकाऊ समाधान की दिशा में यह पहला कदम है। भारतीय संविधान के तहत सब कुछ संभव है। वाजपेयी ने “इंसानियत के दायरे में जो मुमकिन हो” की बात कही थी, उसका भी प्रतिनिधित्व संविधान ही करता है। राजनीतिक समाधान को लेकर काफी बातें की जाती हैं। लेकिन, चुनाव से बेहतर राजनीतिक समाधान क्या हो सकता है। हर शख्स अपनी पसंद का नुमाइंदा चुन सकता है। समाधान का हर पहलू बैलेट बॉक्स से निकलता है।

अब्दुल मजीद बांडे, वकील

दमन, द्विपक्षीय तरीके और चुनिंदा सोच की नीति नाकाम हो चुकी है। मूल मुद्दे को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में पहचाना जाना चाहिए और सभी पार्टियों तथा पक्षों को शामिल करके राजनैतिक प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। तभी ऐसे मुकाम पर पहुंचा जा सकता है, जो सबको स्वीकार्य हो। बीते दस साल में अलगाववाद बढ़ा है। गुस्से की कुछ लोग बात करते हैं, लेकिन मूल मुद्दे की बात कोई नहीं करता। कोई भी दल चुनाव में इन चीजों को मुद्दा नहीं बनाता। बातचीत की राह पर केंद्र कभी दृढ़ता से आगे नहीं बढ़ा, निष्कर्ष तक पहुंचने का इरादा और साहस नहीं दिखाया। प्रक्रिया लगातार आगे बढ़ती रहनी चाहिए, तभी कुछ हासिल होगा।

डी.एस. हुड्डा, उत्तरी कमान के पूर्व प्रमुख

समाधान के पहले सड़कों पर शांति पूर्व शर्त है। आंदोलनरत असंतुष्ट नौजवानों के दिल जीतने की कोशिशें की जानी चाहिए और आतंकवाद की ओर चले गए स्‍थानीय लोगों का पुनर्वास किया जाना चाहिए। विकास पर जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के बीच अंतरराज्यीय बातचीत का आयोजन किया जाना चाहिए। बातचीत में दिल्ली, जम्मू-कश्मीर और कश्मीरी लोगों को तो शामिल किया जाना चाहिए मगर पाकिस्तान को कतई नहीं। लोग कहते हैं कि वहां कट्टरपंथ हावी है। लेकिन मैं यकीनी तौर पर यह नहीं बता सकता कि यह राजनीतिक है या मजहबी। हां, युवाओं में काफी गुस्सा जरूर दिख रहा है। इसके लिए जरूरी है कि हर बात के लिए सुरक्षा बलों को गुनहगार बताने की जगह कश्मीरियों के मन में उनकी सुरक्षा का भाव पैदा किया जाए।

आगा रुहुल्ला मेहदी, विधायक, नेशनल कॉन्फ्रेंस

कश्मीर के निर्वाचित प्रतिनिधियों की बात सुनी जाए, वरना चुनाव कराना बंद कीजिए। बतौर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सैन्य विशेषाधिकार (आफ्सपा) को धीरे-धीरे हटाने का प्रस्ताव दिया था। तत्कालीन गृह मंत्री उससे सहमत भी थे लेकिन सेना ने इनकार कर दिया। सुरक्षा बलों को हर कार्रवाई के लिए मुख्यमंत्री और कैबिनेट के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। बीते 30 साल से देखा जा रहा है कि सेना किसी आतंकी को जिंदा पकड़ सकती थी, तब भी उसे मार गिराया गया, क्योंकि उन्हें इसके लिए पैसे मिलते हैं। पाकिस्‍तान इसका फायदा उठा रहा है। कट्टरपंथ बढ़ रहा है। नई दिल्ली की गलत नीतियों के कारण ही आज ऐसे तत्‍वों को बल मिल रहा है। उदारवादी  आवाजों को प्रासंगिक बनाने के लिए तत्काल बातचीत शुरू की जानी चाहिए।

 

गौहर गिलानी, पत्रकार

केंद्र को खारिज, बचाव, हराने की नीति को छोड़कर स्वीकार, सम्मान और समाधान की नीति अपनानी होगी। हिंदुस्तान को तीसरे पक्ष की मध्यस्‍थता और ब्रे‌क्ज्टि जैसी रायशुमारी के लिए रास्ता खुला रखना चाहिए। जम्मू-कश्मीर में 1953 से पहले की व्यवस्‍था (स्वायत्तता, प्रधानमंत्री जैसे पद को स्वीकार्यता वगैरह) लागू की जाए, जिसमें केंद्र के पास सिर्फ मुद्रा, संचार और रक्षा के मामले रहें। तीन परिवारों- मुफ्ती, लोन और अब्दुल्ला के दायरे से बाहर निकलकर नई दिल्ली को उनको बढ़ावा देना बंद करना चाहिए। हिंदुत्व, धर्मनिरपेक्षता या भारत जैसे विचारों की प्रयोगशाला के तौर पर कश्मीर का इस्तेमाल बंद होना चाहिए। नई दिल्ली को मानना चाहिए कि यहां समस्या है और यहां के लोग मसले का राजनीतिक समाधान चाहते हैं।

बशारत अली, बुद्धिजीवी

केंद्र की दशकों से चली आ रही धनबल, बाहुबल और मुख्यधारा की प्रिय रणनीतियां बुरी तरह नाकाम हुई हैं। आप रकम बहाकर सियासी टकराव से पैदा उग्रवाद को मिटा नहीं सकते। आत्म-निर्णय के अधिकार को मान्यता देनी होगी। केंद्र चुनाव कराता है मगर समाधान के लिए जरूरी रायशुमारी नहीं। सबसे पहले नई दिल्‍ली को कश्मीर में तथाकथित मुख्यधारा की भूमिका पहचाननी होगी। अगर मुख्यधारा की पार्टियां समस्या के लिए सेना और केंद्र को जिम्मेदार ठहरा रही हैं तो आपको समझना होगा कि वे ऐसा क्यों कह रही हैं। राजनीतिक दायरे का विस्तार करना होगा। ‘कश्मीरियत’ जैसा कुछ भी नहीं है। यह केवल एक शब्द है, जिसके मायने कांग्रेस के लिए कुछ और भाजपा के लिए कुछ और है।

नईमा मेहजूर, पीडीपी नेता

शहरों में सुरक्षकर्मियों की तैनाती घटाई जाए, आफ्सपा हटाया जाए, बातचीत के जरिए धीरे-धीरे एक माहौल तैयार किया जाए और बातचीत जब शुरू हो जाए तो उसमें पाकिस्तान को भी जोड़ा जाए। केंद्र सरकार के लगातार प्रयोग ने जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा की राजनीति को अस्वीकार्य बना दिया है। जो विश्वसनीय थे और लोगों को एक प्रक्रिया में लाने में भूमिका निभा सकते थे उनकी आवाज दब गई, क्योंकि नई दिल्ली की नीतियों के कारण वे अपने लोगों से संवाद नहीं कर पाए थे। यूनाइटेड गवर्नमेंट के विचार में मैं यकीन नहीं रखती। चुनावों या सरकार से पहले सेना से घिरे लोगों को खुलकर सांस लेने की आजादी देनी चाहिए।

प्रो. पी. स्टोबडन, रणनीतिक विशेषज्ञ

किसी भी तरह के समाधान की पूर्व शर्त यह है कि जमीनी स्तर पर धारणाएं बदलनी चाहिए। बातचीत की प्रक्रिया शुरू हो, भले बाद में वह आगे तेजी से बढ़े। फिर, आर्थिक विकास होना चाहिए लेकिन भ्रष्टाचार मिटना चाहिए। असल में, हम समस्या का समाधान करने की तरफ नहीं देख रहे। कश्मीर की समस्या का समाधान करने के लिए एक नीति की आवश्यकता है और मुझे नहीं लगता कि यह देश में है। शायद पिछली पीढ़ी के पास इस समस्या से निपटने की समझ ज्यादा बेहतर थी। लद्दाख से होने के नाते मैं कह सकता हूं कि मैं यह जमीन नहीं छोड़ सकता। आजादी कश्मीर की समस्या है, लद्दाख की नहीं। हम न तो उनकी इस मांग से इत्तेफाक रखते हैं और न ही इसके विरोध में हैं। 

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