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टिंडर डायरी

लोगों से इस तरह मिलना बड़ा अजीब भी है और अच्छा भी
दिलचस्प मुलाकातों का जरिया

मेरा एक दोस्त बना फेसबुक पर। दोस्त क्या था वह आइआइटी दिल्ली का एक स्टुपिड सा लड़का था जो मेरी प्रोफाइल पर हिंदी में कुछ कुछ पढ़ लेता था। पर दिल का साफ था। हम कई बार बात कर लेते थे। वह मुझे अक्सर बताता था कि डेटिंग ऐप टिंडर पर लड़कियों को खोज रहा है। और कई लड़कियों से मिल रहा है। मुझे उस पर तरस आता था। एक हड़बड़ाया-सा बच्चा जो किसी के साथ बैठने, बात करने को मरा जा रहा है, जैसे वह तसल्ली का एक कोना खोज रहा है।

मुझे लगा कि शायद मैं उसे थोड़ा सहज करने के लिए बात कर सकूं। मैं उससे कभी मिली नहीं। फोन पर दो बार बातचीत हुई। पर मुझे लगा कि जितनी बात उसने मुझसे की है, उसमें झूठ नहीं है। बनावट नहीं है। बस इसी तरह बातचीत शुरू हुई। फिलहाल वह जर्मनी में है।

एक दिन मैंने उससे कहा कि तुम टिंडर जैसे ऐप पर लोगों को कैसे खोजते हो? मुझे हैरत हुई कि हमारे आसपास इतने अकेले लोग हैं और ऐप पर लोगों को खोज रहे हैं! हालांकि, मैंने उससे कुछ कहा नहीं। वह फिर किसी लड़की से मिलने जा रहा है और मैंने बस इतना ही कहा, बेस्ट ऑफ लक।

उससे बात करने के बाद मुझे लगा कि क्यों न देखा जाए कि टिंडर जैसे ऐप पर कैसे लोग हैं। वो कौन लोग हैं जो ऐप पर लॉग इन किए होते हैं।

मैंने ऐप पर लॉग इन किया। लोगों से बातचीत की। व्हाट्स ऐप पर नंबर बदले।

मुझे हैरानी हुई। दिलचस्प लोग मिले।

ऐप पर कई दिन बाद जो पहला दोस्त बना वो कन्नड़ फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर था। क्रिएटिव पर्सन। उससे फिल्मों पर बात कर लो। किताबों पर बात कर लो। म्यूजिक पर। कल्चर पर। एक्टिंग पर। लोगों पर। प्रेम पर।

हम चैट पर बात करते रहे। फिर मुझे लगा दफ्तर के पास एक सिगरेट के लिए मिलना बुरा नहीं है। तो हम मिले। हमने जेएनयू के बारे में लंबी बातें कीं। मैं हैरान हुई जब वो अपनी बातों में काफ्का, मार्खेज, शेक्सपियर, अर्नेस्ट हेमिंग्वे की बात करता रहा। वह उनकी किताबों के कुछ हिस्से बताता रहा। उसने गांधी पर बात की। उसने कुछ किताबों और नाटकों के बारे में बताया। उसने कहा कि तुम्हें कन्नड़ आती तो मैं तुम्हें बहुत-सा साहित्य पढ़वाता।

मैंने उसे बता दिया कि मैं कोई पार्टनर नहीं खोज रही हूं।

वो खुश है कि उसे एक नया दोस्त मिला।

और मैं भी।

थोड़ा अजीब है नहीं?

मैं कितने लोगों को बता सकती हूं कि टिंडर से मिले एक लड़के के साथ बैठकर एक अजनबी शहर में मैं काफ्का और गांधी पर बात कर रही थी।

इस टिंडर वाले दोस्त के दो और दोस्त हैं।

तो .. हम चारों मिले।

कभी-कभी थोड़ा डर भी लगता है इस तरह अजनबी लोगों से मिलने में। लेकिन अब हम दोस्त से बन गए हैं। हालांकि मैं अब भी मिलने से पहले ऐसी ही जगह के बारे में सोचती हूं जहां शाम होने से पहले थोड़ी देर के लिए मिला भर जा सके। कोई कितना ही भला हो न। हम जहां जी रहे हैं मुझे ये कहने में अजीब नहीं लग रहा कि डर हमेशा लगता ही है।

और शायद ज्यादातर लोग बिना कहे इसे महसूस करते भी हैं। मैं खुद भी।

लेकिन फिर भी। लोगों से इस तरह मिलना बड़ा अजीब भी है और अच्छा भी। कुछ दोस्त बन गए हैं यहां। जिनसे कम से कम बात की जा सकती है। पहले कभी-कभी एकदम से अकेला लगता था। अब लगता है चलो किसी को तो जानते हो। फिर जब टिंडर याद आता है तो अजीब सा लगता है। यकीन सा नहीं होता। खैर कभी-कभी वो आइआइटी वाला दोस्त मजाक में पूछ लेता, 'कोई मिला क्या टिंडर पर ?'

मैंने उसे ज्यादा बताया नहीं। समझ नहीं आया क्या बताऊं।

मैंने कहा न! एक शहर जहां आपको कोई न जानता हो, यह सबसे बड़े सुखों में से एक है।

हालांकि टिंडर पर दोस्त खोजने की बात कितनी बेवकूफी भरी है मुझे नहीं पता। पर मेरे लिए उतनी तो है कि मैं किसी को इस बारे में बता नहीं पाई। जबकि मैं लॉग इन अब भी हूं... टिंडर पर! 

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