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शहरी सच्चाइयों का धड़कता दस्तावेज

शहर और गांव का द्वंद्व न केवल किस्सागोई में परवान चढ़ा है बल्कि कविता में भी नगरबोध, शहरातीबोध के साथ-साथ महानगरीयता हावी रही है
कविता का शहर, एक कवि की नोटबुक

जब अशोक वाजपेयी का पहला संग्रह आया था : शहर अब भी संभावना है तो यह प्रेम की प्रतीति उपजाता एक ऐसा संग्रह था जिसके आमुख में भले ही शहर हो पर जिससे प्रेम की संभावना को अपूर्व बल मिलता दिखता था। शहर और गांव का द्वंद्व न केवल किस्सागोई में परवान चढ़ा है बल्कि कविता में भी नगरबोध, शहरातीबोध के साथ-साथ महानगरीयता हावी रही है तथा आधुनिकता के उत्तरोत्तर प्रबल होते हुए दशकों में शहर में होना भर आधुनिकता की छत्रछाया में होना माना जाने लगा। पर जैसे-जैसे गांवों से पलायन होता गया, शहर उच्च तालीम और कामकाज के केंद्र बनते गए, लोगों की उन्मुखता शहरों की ओर बढ़ी। ‘रेलिया न बैरी जहजिया न बैरी’ की हांक लगाने वाले लोकगीतों के पीछे भी सच्चाई यही थी कि इस बैरी पैसे के लिए लोग कोलकाता और मुंबई जाते थे और वहीं के होकर रह जाते थे।

कविता में नगरीय बोध को कोसने की भी खूब परंपरा रही है जैसे कि शहरी संपर्कों ने कविता की प्राणवायु खींच ली हो। अव्वल हुआ यह है कि आज गांव भी सियासत के चलते रहने योग्य नहीं रहे और शहरों का हाल तो यही है कि यहां बड़ी पूंजी का व्यक्ति या नौकरशाह ही सर्वाइव कर सकता है। पर कहते हैं आबोदाना जहां न ले जाए। लिहाजा बड़ी संख्या में कवियों के यहां शहरी अनुभवों की एक दुनिया मिलती है। भले उमाकांत मालवीय ने अपने एक गीत में कहा हो कि ‘खोली दर खोली में घर गए उघर। रहने लायक नहीं रहे महानगर।’ पर कुछ साल पहले ही आया विजय कुमार का पूरा संग्रह ‘रात पाली’ केवल मुंबई की विपुल जीवनचर्या का एक ऐसा संवेदनशील उदाहरण है जिससे हिंदी कविता में नगरबोध पर उपेक्षाभरी निगाह डालने वाले आलोचकों को भी लगा कि शहर कविता में नए अनुभव आयुत करने का स्रोत बन रहे हैं तो यह कविता के गुणसूत्र में इजाफा है।

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला की फेलोशिप के तहत राजेश जोशी ने अपनी नई नोटबुक कविता का शहर में शहर केंद्रित अध्ययन पर फोकस किया है और एक विशद विवेचन हमारे सामने रखा है। कहते हैं नगरीकरण की प्रक्रिया कोई पांच हजार सालों से होती आई है, इसलिए कविता में नगर-छवियों की स्मृतियों की भी भूमिका रही है। राजेश जोशी ने सत्तर के दशक से 21वीं सदी के पहले दशक तक की हिंदी कविता और शहर के साथ बनते-बदलते संबंधों का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है जो उनकी शुद्ध कविता की आलोचना जैसी ही चमकीली और तत्वान्वेषी है। इसमें कविता का नगर, नगर एक वृत्ति, एक प्रवृत्ति, देखी तुम्हरी काशी, कविता में नगरों के बसने और उजड़ने की स्मृतियां, स्वाधीन भारत का नगरबोध: नई नागरिकता और शहर बनाम गांव की विशद पड़ताल की है। वे ध्रुव शुक्ल की कविता के दो वाक्य उद्धृत करते हैं: ‘उसी शहर में नाल गड़ी है मेरी/ उसी शहर में खाल खिंची है मेरी।’ शहर के साथ ऐसे यंत्रणाप्रद संबंधों और स्मृतियों का भी राजेश जोशी ने पूरा ख्याल रखा है।

हमारी सभ्यताओं का इतिहास नगरों के बसने और उजड़ने का ही इतिहास रहा है। पुरातात्विक उत्खननों से हमें पता चलता है कि पहले की हमारी नगरीय सभ्यता कैसी रही है, कैसा स्थापत्य रहा है आदि आदि। आज शहरीकरण के साथ स्लमीकरण भी बढ़ा है। शहरों का भूगोल बेडौल होता गया है। कविता में इन सारी स्थितियों को कवियों ने समय-समय पर अपनी-अपनी तरह से देखा है। कविता में नगर का भूगोल तो नहीं पर उसके बसाव में जीवन की गतियों को कवियों ने एक नई रोशनी में देखा है। इतिहास में षोडष जनपदों से लेकर प्राचीन नगरियों, पुरियों से होती हुई मानवीय सभ्यता जिन नागर प्रवृत्तियों में ढलती और पलती है उसका बहुत बारीक अक्स और कभी-कभी बहुत ठोस यथार्थ कविता में उतरता है।

हिंदी कविता में कोलकाता, बनारस, प्रयाग, उज्जयिनी, अयोध्या, दिल्ली, लखनऊ, भोपाल आदि शहरों पर काफी कुछ लिखा गया है। कुछ बरस पहले दिल्ली पर भगवत रावत ने सीरीज ही लिखी थी। ‘कोलकाता ओ कोलकाता’ लिख कर स्वदेश भारती ने कविता में कोलकाता का एक असंबद्ध लेकिन औपन्यासिक खाका खींचा था। श्रीकांत वर्मा और केदारनाथ सिंह की बनारस पर लिखी कविताएं आज भी याद की जाती हैं। ज्ञानेंद्रपति ने ‘गंगातट’ में बनारस की वैविध्यपूर्ण छवियां उकेरी हैं तो कभी कैलाश वाजपेयी ने मुंबई में रहते हुए लिखा था ‘यह अधनंगी-सी शाम और यह भटका हुआ अकेलापन/ मैने फिर घबरा कर अपना शीशा तोड़ दिया।’

कविता में शहर आते ही जैसे उसकी लकदक काया मैली होने लगती है, ऐसी धारणा हमारी आज की आलोचना ने बना रखी है। शहर के प्रति हमारा रवैया बहुत अच्छा नहीं रहा। जैसे हम रूढ़ियों से, परंपराओं से चिढ़ते आए हैं वही भाव हमने शहरों के साथ बना रखा है, पर बिना शहर के हमारा काम भी नहीं चलता। करोड़ाें विस्थापितों को आश्रय देने वाले शहर ही हैं जिनके अपार्टमेंट्स और झोपड़पट्टियों में जीवन की कितनी परतदार सच्चाइयां छिपी हैं। कविता इन सच्चाइयों का एक धड़कता हुआ दस्तावेज है। ‘कौन जाए जौक अब दिल्ली की गलियां छोड़ कर’ या ‘हम फिदाए लखनऊ’ का नारा देने वाली कविता अपने अंत:करण में मनुष्यता के लिए अंतत: एक जगह बरकरार रखती है।

कितनी तरह की बसावट शहरों में होती है, कितनी तरह की दुश्वारियां सांस लेती हैं, किस-किस रूप में हमारी कविता शहरों और नगरों को, नगरीय सभ्यता तथा संस्कृति को अवलोकती है, इसका एक संतोषजनक आकलन राजेश जोशी ने कविता का शहर में संभव किया है। यद्यपि पढ़ते हुए लगा कि बहुत कुछ आकलित व्यवहृत करने से छूटा भी है उनसे। कुछ जाने-पहचाने कवि ही यहां हैं, कविता की नगरीयता का यह विपुल अध्ययन नहीं है तो भी एक बेहतर शुभारंभ है यह कविता में शहरातीबोध को चीन्हने-पहचानने का।

राजेश जोशी मूलत: कवि हैं, शोधक नहीं, लेकिन उन्होंने बहुत ही सलीके से एक शोधकर्ता की तरह कविता में शहर की शिनाख्त की है जो कि हिंदी कविता में शहरी प्रवृत्तियों पर काम करने वाले शोधकर्ताओं के लिए एक बुनियादी काम की तरह है। इसे निश्चय ही एक बेहतरीन डॉक्यूमेंटेशन और आकलन माना जाना चाहिए।

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