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“महिलाओं के बारे में लिखने से डरता हूं”

काशी यानी बनारस और बनारस के काशीनाथ सिंह उन साठोत्तरी साहित्यकारों में शुमार हैं, जिनकी रचनाओं में गांव सांस लेता है, तो आम जीवन के पात्र जिंदगी की वास्तविकता के साथ नजर आते हैं। आम जन-जीवन से प्रेरित उनके पात्र गरियाते, बेबाक, गप्पी और हंसोड़ हैं। कहानियों, संस्मरण के अलावा ‘काशी का अस्सी’, ‘रेहन पर रग्घू’ और ‘उपसंहार’ उनके चर्चित उपन्यास हैं। काशीनाथ सिंह से नाज़ ख़ान की बातचीत के अंशः
काशीनाथ सिंह

उपसंहार में आपने कृष्ण के चमत्कारित जीवन से अलग उनके आम जीवन को दर्शाया है। आपके कथा-संसार में पात्र आम जन-जीवन के होते हैं। अपने उपन्यासों में इनका चयन आप कैसे करते हैं?

काशी का अस्सी में इस तरह की कोई समस्या नहीं आई थी। एक मुहल्ले के लोग हैं। वही इसके पात्र भी हैं और उनके जीवन को मैं जानता हूं। उनका रहन-सहन, खान-पान, उनकी दिनचर्या से मैं परिचित रहा हूं, तो उसके लिए तो कोई समस्या सामने नहीं थी। जहां तक कृष्ण की बात है, उनसे पौराणिक कथाएं जुड़ी हैं, वे धार्मिक पात्र हैं, लेकिन सभी अवतारों में अकेले कृष्ण ही हैं, जो लोकनायक हैं, लोक-जीवन से आते हैं। एक गांव के रहने वाले उनके पिता राम के पिता की तरह कोई राजा नहीं थे। मात्र एक संपन्न ग्वाले थे। गोकुल में एक ग्वाले का लड़का अपने कर्मों से महान बनता है। अब इस तरह का जीवन मैं खुद जी चुका हूं अपने गांव में। ऐसे में उनका जीवन अपने आप लोक-जीवन से जुड़ जाता है। इसलिए उनके जीवन को मैंने कहीं से गढ़ा नहीं है, अंतःप्रेरणा से लिखा।

गालियों के पीछे का मनोविज्ञान समझते ही पात्रों की गालियां अश्लील नहीं लगतीं। इनसे पात्रों की मनःस्थिति को समझने में आसानी होती है। आप इससे कहां तक सहमत हैं?

देखिए, गालियां अचानक आज नहीं बन गई हैं। सैकड़ों साल लगे हैं इन गालियों को बनने में और गालियां बकते-बकते उनका अर्थ इतना घिस गया है कि इनमें अर्थ गायब हो गया है, ये केवल ध्वनियां रह गई हैं। मैं कहूंगा कि गालियों में अर्थ ढूंढ़ना ही व्यर्थ है। गालियां केवल निरर्थक शब्द हैं। वहीं, जो बनारस का जीवन देख चुके हैं, वे जानते हैं कि बहुत-से ऐसे पात्र हैं, जो गाली के बिना एक शब्द भी बोल ही नहीं सकते, गालियां अपने आप उनकी जबान से निकलती ही हैं। वे हर किसी को नहीं बोलते, जिनसे उनका लगाव है, उन्हीं से गालियां बोलते हैं। यहां ये आम जीवन का अभिन्न हिस्सा हो गई हैं। यहां ये गालियां मानी ही नहीं जातीं और गालियों के रूप में इन्हें कोई लेता भी नहीं है।

काशी का अस्सी और इसकी पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म मुहल्ला अस्सी, भी विवादित रही। इनका विरोध कितना सही है?

मैंने तो उपन्यास लिखा है, फिल्म मेरी नहीं है। उन्होंने गालियों का प्रयोग अपनी फिल्म में इसलिए किया है, क्योंकि वे पात्र बनारस के हैं। यहां ये चीजें आम बोलचाल की हैं। हाइकोर्ट ने भी अपने फैसले में गालियों को फिल्म से काटने से मना किया है। मैंने गालियों को लिखने के पहले हजार बार सोचा कि लोग क्या कहेंगे। साहित्यकार इसके बारे में क्या सोचेंगे। फिर यह हुआ कि जिंदगी बड़ी चीज है भई। यह कागज का पन्ना बड़ी चीज नहीं है। जिस जिंदगी को लिख रहे हैं, वह जिंदगी अपने पूरे उल्लास और जीवंतता के साथ इसमें आनी चाहिए। जीवन की वास्तविकता का आना महत्वपूर्ण है। लोग भला कहें, बुरा कहें, चाहे जो कहें कहते रहें, इससे हमको कोई मतलब नहीं। हम जो कहना चाहते हैं, वह कह पा रहे हैं या नहीं कह पा रहे हैं, यह मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए।

आपका सबसे अधिक पढ़ा गया उपन्यास काशी का अस्सी है। इस पर पुरस्कार न मिलने की आपको क्या वजह लगती है?

इसमें कहीं न कहीं शायद अश्लीलता दिखाई पड़ी होगी या लगा होगा कि यह साहित्य नहीं है, क्योंकि साहित्य अकादेमी के अपने मानक हैं। हालांकि, बहुत पुराने हैं, लेकिन उसके अपने सिद्धांत, नियम होंगे। इनके आधार पर पुरस्कार नहीं दिया होगा।

काशी का अस्सी की रचना भूमि कैसे तैयार हुई? इसकी रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं?

पहले तो मैं बता दूं कि जो लेखक चलते-चलते रुक जाए और फिर रुका ही रह जाए, वह जड़ होता है। वही लेखक गतिशील रहता है, जो समय के साथ चलता रहता है। मेरे समय के ही बहुत सारे लेखक अपनी जगह पर रहे और वे आगे नहीं आए। इसी तरह समय की पहचान किसी भी लेखक की जान है। 90 के आस-पास देश बदला। भूमंडलीकरण, उदारीकरण आया, समाजवाद का विघटन हुआ, बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ, सांप्रदायिक समस्याएं खड़ी हुईं, आरक्षण लागू हुआ। 2-3 वर्षों में ये कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने पूरे देश की चेतना को बदल दिया।

इस पूरे बदलाव को मैंने अपने नगर के एक मुहल्ले में देखा। एक चाय की दुकान पर मैंने देखा कि इनके बारे में लोग केवल बात ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि भूमंडलीकरण, उदारीकरण के संदर्भ में, अमेरिका, इराक और रूस सहित पूरी दुनिया के बारे में बातें कर रहे हैं। ये बातें करने वाले प्रायः हर विचारधारा के नेता, छात्र नेता, युवक थे।  रिक्शा वाले, ठेले, खोंमचे वाले, दूध बेचने वाले भी इसमें श्‍ामिल थे। सब उन चर्चाओं में भाग लेते थे। पूरा माहौल ही लोकतांत्रिक था। मुझे लगा पूरा हिंदुस्तान चाय की इस एक दुकान में झुक आया है। मैं कहानियों से मुक्त हो चुका था और कुछ और लिखने के बारे में सोच रहा था। ऐसी स्थिति में मुझे वह चाय की दुकान दिखाई पड़ गई। मेरे किस्सागो को एक ऐसा विषय मिला, जिसकी मुझे तलाश थी और फिर जब मैंने लिखना शुरू किया तो एक बार में ही खत्म नहीं किया। यानी इस उपन्यास को लिखने में 10-12 साल लगे।

आपने अपने जीवन में कई कहानी आंदोलन देखे हैं। नई कहानी आंदोलन, सचेतन कहानी आंदोलन आदि। क्या आज फिर किसी कहानी आंदोलन की जरूरत है?

आज जब समाज में ही कोई आंदोलन नहीं है, तो कहानी आंदोलन क्या होगा। कोई जरूरत नहीं है आंदोलन की। जो अच्छा लिख रहे हैं, उनका अच्छा लेखन ही आंदोलन है।

शुरुआत की कहानियों में भावुक आदर्शवाद था। आज की कहानियों पर कोरा यथार्थवाद हावी है। दोनों में अतिवाद है। ऐसे में आदर्श और यथार्थ का मिश्रण नहीं किया जाना चाहिए? आपको क्या लगता है?

आदर्श एक ऐसा शब्द है, जिसे मुखौटे के रूप में लिया जाता है। अब तो आदर्श का अर्थ ही हास्यास्पद हो गया है, कहना चाहिए। आदर्श की कोई जरूरत नहीं है। दुनिया भर के आदर्श हमारे सामने हैं, लेकिन एक मुखौटे के रूप में उनका इस्तेमाल हो रहा है, तो आदर्श की पोल तो खुल गई है। जहां तक यथार्थ का सवाल है, जो कहानियां आज लिखी जा रही हैं, उन कहानियों का दुर्भाग्य यह है कि वे यथार्थ पर ही जीवित हैं। यथार्थ के सिवा जो कुछ है उसकी तरफ उनकी नजर नहीं जा रही है। जबकि आज जरूरत है यथार्थ का अतिक्रमण करके आगे जाने की। भले वह कोरा हो, झूठ हो या गलत हो। यथार्थ अपने आप में एक बंधन है। वह लेखक को बांधे रखता है। एक लेखक के लिए इस बंधन को तोड़ना और उसके बाहर निकलना बहुत आवश्यक है।

आपने लेखन की शुरुआत कविता से की थी। फिर कहानियां लिखने लगे। कभी कविता की तरफ लौटने का मन नहीं करता?

मैंने कविताएं थोड़ी ही, यानी 8-10 लिखी होंगी और मैंने छपने के लिए कहीं भेजी भी नहीं। वह बचपना था हमारा और वह सिर्फ देखा-देखी शौकिया लिखी थीं। इस तरह से देखा जाए तो कविताएं मैंने कभी लिखीं ही नहीं, सीधे कहानियों में हाथ आजमाना शुरू किया।

आपके साहित्य में महिला पात्रों का उभार कम नजर आता है, पुरुष पात्र ज्यादा हावी हैं। ऐसा है? और अगर है तो क्यों?

यह मैं भी महसूस करता हूं। महिला पात्र बहुत कम हैं। दरअसल, इनके बारे में लिखने से मैं डरता हूं, क्योंकि मैं पूरी तरह इनको समझ नहीं पाता हूं और जो चीज मेरी समझ में नहीं आती, उसे मैं कम लिखता हूं।

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