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जीएसटी के हाइवे

संविधान में 101वें संशोधन से राजमार्गों पर माल की आवाजाही कितनी आसान हुई? जीएसटी लागू होने के साल भर बाद यह जानने के लिए आउटलुक संवाददाताओं ने की ट्रकों की सवारी
दिख रहा बदलाव

रात सड़कों पर बिलकुल अलग तरह से उतरती है और दो-टूक बंटवारा कर देती है। वह सभ्यता और सुकून की सुविधा वाले लोगों को घरों में कैद कर देती है और इससे वंचित लोगों को सड़क पर उतार देती है। मौसम के अत्याचारों को सहने को मजबूर बेघर, कॉलर पर रूमाल लपेटे रोबदार अफसर और मातहत पुलिसवालों, बड़े गेट वाली सोसाइटियों की रखवाली करते दरबान, चुंगी नाकों पर गाड़ियों की टोह में भागते-दौड़ते कर्मचारी, रात घनी होने के साथ धूसर होती उनकी पोशाक...और हां, ड्राइवर सड़कों को कुछ अपना-सा मानकर उतर आते हैं। कारों, बसों और उन सरपट दौड़ती लॉरियों के ड्राइवर नींद की हर झपकी को भगाने के लिए चीखते, चिल्लाते, धुंआ उड़ाते रहते हैं। ये निशाचर हैं, अचानक रात होते ही सड़कों पर उतर आते हैं, कुछ तो समाज में ऊपर उठने का भ्रम भी पालते हैं, मगर ज्यादातर की रातें बिना किसी सपने के कटती हैं।

बिंदेश्वर यादव (30 वर्ष) हरियाणा के हाइवे पर अंधेरे को चीरते हुए अपने ट्रक से आगे बढ़ते जाते हैं। वह बाद वाली कैटेगरी में आते हैं। बिहार के दरभंगा में अपनी पत्नी और दो बच्चों के लिए लगभग चार हजार रुपये भेजने के बाद आखिर उनके पास कितना बचता होगा। वह साल में सिर्फ एक महीने अपने परिवार के साथ रहते हैं। साल के बाकी महीने ट्रक के ड्राइवर वाली सीट ही उनका घर होता है।

आमतौर पर चिपचिपी हवा ट्रक के केबिन को और गंदा बना देती है। शरीर की गंध, इंजन के तेल और डैशबोर्ड पर रखी छोटी मूर्तियों पर पड़ने वाली धूप की किरणें एक कॉकटेल बनाती हैं, जो आसानी से दूर नहीं जाती हैं। इन पर घंटों ताकते रहने के बाद लाल और नीले रंग की चमकीली सजावटी रोशनी भी गंध का हिस्सा लगती हैं। गर्मी से इंजन के नीचे से निकलने वाली आवाज एक नाराज किरायेदार की तरह लगती है, जो कभी जाना नहीं चाहता। ड्राइवर के तीन जोड़ी कपड़े, कुछ बर्तन और राशन इस जगह के हिस्से हैं।

भारत में एक मतदाता के रूप में ट्रक चालकों की भूमिका कौतूहल का विषय है। घर पर रहना पसंद करने वालों से अलग वह चारों ओर घूमता है। वह चीजों को देखता है। बिंदेश्वर बहुत कम ही अपना वोट दे पाता है, लेकिन वह बिहार में लालू प्रसाद यादव और केंद्र में नरेंद्र मोदी की वापसी पर जोर देता है, जबकि दोनों के बारे में खास नहीं जानता। वह यादवों को सशक्त बनाने के लिए लालू को श्रेय देते हैं। बिंदेश्वर कहते हैं, “ये सब शहर जो घूम रहे हैं हम, ये सब लालूजी की वजह से है। पहले तो अगड़ी जाति वालों के लिए काम करते थे, कभी मजदूरी मिली, तो कभी नहीं मिली।” वह धीरे से कहते हैं, “ट्रक पर माल लोड करने वाले ने ठीक से लोड नहीं किया है जिससे ट्रक अधिक उछल रहा है।” वह कहते हैं, “जैसे यह उछल रहा है, उससे मेरी रीढ़ की हड्डी अगले दस साल में जवाब दे जाएगी।”

लेकिन फिर वह मोदी का समर्थन क्यों करते हैं? उनका तुरंत जवाब आता है, “मोदीजी काम कर रहे हैं।” और फिर अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए जल्द ही जीएसटी का हवाला देते हैं। टैक्स सुधार से ट्रांसपोर्टरों को बहुत राहत मिली है। इसकी वजह से राज्य सरकारों ने चुंगी नाके खत्म कर दिए हैं। यहां तक कि ट्रांजिट पास की जरूरत को भी खत्म कर दिया, जो वाहनों के रूट के बारे में जानकारी देता था। बिंदेश्वर कहते हैं, “इससे पहले हमें हर राज्य की सीमा पर तीन से चार घंटे और कभी-कभी तो पूरा दिन ही खर्च करना पड़ता था। अब हम बिना रुके सीमा पार कर जाते हैं।” हालांकि, यह राहत उस वक्त दूर हो जाती है, जब क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय (आरटीओ) के अधिकारी सीमा पर गश्त कर रहे होते हैं और ट्रकों को जांच के लिए 20 मिनट से एक घंटे तक रुकना पड़ता है। लेकिन, इसका जीएसटी से कुछ लेना देना नहीं है।

बिंदेश्वर हरियाणा के गुड़गांव स्थित औद्योगिक केंद्र मानेसर से पंजाब के लुधियाना के लिए माल ले जा रहे हैं। माल लदा दूसरा ट्रक मानेसर से रुड़की जा रहा है। यह ट्रक बड़ी तेजी से बिना रुके हरियाणा-यूपी सीमा से गुजरता है। आठ टन माल से लदे और छह पहिए वाले इस ट्रक के 24 वर्षीय ड्राइवर राजिंदर पाल कहते हैं कि टैक्स की बाधाओं का खत्म होना और फिर ई-वे बिल (इसे पूरे भारत में इस साल जून में अनिवार्य बना दिया गया) ट्रक ड्राइवरों के लिए वरदान है। वे कभी न खत्म होने वाले घंटे अब कम हो गए हैं। ई-वे बिल को जीएसटी के तहत ही लाया गया था। यह एक ऐसा दस्तावेज है, जिसे 50 हजार रुपये अधिक का माल ढोने वाले ट्रांसपोर्टरों को अपने पास रखना जरूरी है। यह विशिष्ट संख्या के साथ ऑनलाइन ही बनता है। इस बिल का अधिकांश हिस्सा आपूर्तिकर्ता ही भरता है। इससे आमतौर पर ट्रांसपोर्टर खुश हैं।

मुजफ्फरनगर और रुड़की के बीच यूपी-उत्तराखंड सीमा पर पाल को लंबी कतार मिलती है। मानेसर से चलने के बाद ट्रकों की यह पहली लंबी कतार है (आठ घंटे के सफर के बाद और दो राज्यों की सीमाओं के बीच)। सड़क के किनारे खड़े आरटीओ की गाड़ी सारी कहानी बयां कर देती है। एक वरिष्ठ अधिकारी गाड़ी के अंदर बैठा है और एक के बाद एक ट्रक ड्राइवर उसके पास जाता है और उसका जूनियर सभी के कागजात की जांच करता है। आधे घंटे के इंतजार के बाद पाल की बारी आती है। उसके कागजात की जांच करने के बाद अधिकारी पाल को जाने देता है। वह कहते हैं, “हमेशा इतना आसान नहीं होता है। आमतौर पर हमें छोड़ने के लिए वे 200 से 1000 रुपये तक ले लेते हैं।”

टैक्स अधिकारियों के साथ भागमभाग और समय की बचत हर जगह हुई है। ट्रक ड्राइवरों के लिए यह बिजनेस क्लास में अपग्रेड होने जैसा है यानी वाकई जीवन की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। हालांकि, अभी भी उनकी कुछ शिकायतें हैं। घूस देने की रकम में मामूली कमी आई है। मानेसर की लॉजिस्टिक फर्म में काम करने वाले 27 वर्षीय ड्राइवर सोनू भाटी नाराजगी में कहते हैं, “सारे कागजात सही होने पर भी पुलिस और आरटीओ के अधिकारी हमें परेशान करते हैं। अब जब रस्सी को सांप बनाने की आदत है, तो ड्राइवर लाख नियम का पालन करे, पैसे तो देने ही पड़ेंगे।” बाकी ड्राइवर भी भाटी की बातों का समर्थन करते हैं। ड्राइवरों को छह हजार रुपये मासिक वेतन और यात्रा के लिए निश्चित भत्ता मिलता है, जो लगभग 500 किमी के लिए चार हजार रुपये तक होता है। उन्हें खाना से लेकर टोल टैक्स और रिश्वत तक सभी खर्च उन्हीं रुपये में से पूरा करना होता है।

राज्य से इतर जीएसटी/ई-वे बिल से पूरे देश में परिवहन में जो आसानी हुई है, वह एक सार्वभौमिक सच है। कर्नाटक के शिमोगा के 40 वर्षीय ड्राइवर प्रकाश राज्यों की सीमा पर चेकपोस्ट की पुरानी डरावनी कहानियों को याद करते हैं। उन्होंने कागजात पर स्टैंप के लिए 36 घंटे तक कतार में खड़े रहने की कहानी सुनी है। वहीं, व्यक्तिगत तौर पर उन्होंने केरल-तमिलनाडु सीमा पर कोयंबतूर और पलक्कड़ के बीच वालायार चेकपोस्ट पर भयानक जाम के बीच एंबुलेंस को फंसा देखा है।

लेकिन पिछले साल से उनके लिए भी राहत भरा रहा है। वह फिलहाल ट्रक में स्कूटर लादकर बेंगलूरू से कोलकाता जा रहे हैं। वह कहते हैं, “अब हम चेकपोस्ट पर नहीं रुकते हैं।” बेंगलूरू से 38 किलोमीटर दूर तमिलनाडु सीमा पर एट्टीबेले पर दशकों पहले बनी राज्य की कॉमर्शियल टैक्स वाली इमारत अब लगभग वीरान पड़ी है। अब इसकी कोई जरूरत नहीं है। हालांकि, विभाग हाइवे पर मोबाइल स्क्वॉयड तैनात करता है।

ड्राइवर राम दयाल सैनी चेन्नै से जयपुर की अपनी लंबी यात्रा में बेंगलूरू से गुजर रहे हैं। उनके पास हुंडई सेडान के सात कार्गो हैं। बाकी ट्रक वाले उनके बारे में कहते हैं, “सैनी का मानना है कि वह तीन दिनों में यात्रा खत्म कर सकता है।” अगर जीएसटी लागू होने के पहले के समय से तुलना करें तो वह पूरा एक दिन बचा लेते हैं। नौ वर्षों से डबल डेकर चलाने वाले सैनी कहते हैं, “हम चेकपोस्ट पर कतार में आगे बढ़ने के लिए अक्सर झगड़े देखा करते थे।” वे आगे कहते हैं कि जो समय बचता है, वह ट्रकिंग कंपनियों के लिए बचाया गया पैसा ही है।

शिमोगा के प्रकाश पहले बेंगलूरू से छत्तीसगढ़ की 1400 किलोमीटर लंबी यात्रा के लिए अपने ड्राइवर को 10 हजार रुपये की अग्रिम राशि देते थे। उसमें से वह केवल 500 रुपये बचा पाता था। वह कहते हैं,   “अब मैं सिर्फ पांच हजार रुपये लेता हूं और उसमें से 1500 रुपये बचाता हूं।” मुझे पता है कि लोग कीमतों पर जीएसटी के प्रभाव के बारे में शिकायत कर रहे हैं। लेकिन आपको इसे व्यापक संदर्भ में देखने की जरूरत है। अगर दूरगामी असर के रूप में यह सभी के लिए मददगार साबित हो रहा है, तो यह अच्छी बात है। राज्यों की सीमाओं पर आरटीओ चेकपोस्ट के खिलाफ सामूहिक गुस्से में सैनी भी शामिल हो जाते हैं। वह सुझाव देते हैं कि जीएसटी की ही तरह आरटीओ चेकपोस्ट खत्म करने के लिए कुछ किया जा सकता है... बाकी के ड्राइवर कहते हैं कि ईंधन की बढ़ती कीमतों ने हतोत्साहित किया है और बिजनेस को प्रभावित किया है। इससे वे काफी समय से खाली बैठे हैं।

सीमाओं पर चेकपोस्ट खत्म होने का असर देश के लगभग सभी हिस्सों में देखा जा सकता है। ओडिशा-बंगाल सीमा पर जलेश्वर में भीड़-भाड़ काफी कुख्यात थी। इस व्यस्त और अहम रास्ते से सफर करने वाले लोगों को हाइवे पर दोनों ओर ट्रकों की अंतहीन कतार का सामना करना पड़ता था। यहां भी वही दस्तावेजों की जांच, वही घूस और यातना से गुजरना पड़ता था।

आंध्र प्रदेश के 24 वर्षीय ट्रक ड्राइवर दिनेश टी कहते हैं, “हमें इस सीमा पर दिन-रात लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता था और इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि किसी निश्चित समयसीमा के भीतर मंजूरी मिल जाएगी। इसके बाद रिश्वत देना होता था वह अलग। माल के हिसाब से हमें इस सीमा पर 800 रुपये से दो हजार रुपये हर ट्रिप के लिए देने पड़ते थे।” दिनेश जलेश्वर से पिछले सात साल से आ-जा रहे हैं। वह ग्रेजुएशन के बाद मुख्य ड्राइवर बनने से पहले हेल्पर के रूप में इस मार्ग से गुजरते थे।

जीएसटी के बारे में बात करते हुए उनकी खुशी साफ झलकती है-कतार में खड़े होकर समय बर्बाद होने से हताशा होती है। यह उसके जैसे युवा के लिए एक बोझ की तरह है। वह कहते हैं, “देखिए, सच तो यह है कि अंतरराज्यीय टैक्स लेने के नाम पर सिर्फ उगाही चल रही थी। भ्रमित करने वाले इतने टैक्स और हम लोग जटिल अकाउंटिंग को समझते नहीं हैं। इसलिए मजबूरन हमें पैसा देना पड़ता था। अब यह अतीत की बात है।”

पिछले 16 साल से ट्रक चला रहे 34 वर्षीय लईक अहमद भी जीएसटी को लेकर उत्साहित हैं। वह कहते हैं, “मुझे लगता है कि मोदी दोबारा सत्ता में आएंगे। लोग शिकायत कर रहे हैं कि सब कुछ महंगा और जटिल हो गया है, लेकिन मुझे लगता है कि चीजें आसान हो गई हैं। अब ड्यूटी अधिकारी के रूप में खड़े ठग वैध रूप से लोगों को नहीं रोक सकते हैं।

मध्य यूपी के निवासी लईक अपने नियमित रूट से बरेली से पुदुच्चेरी जाते हैं। वहां से वे जलेश्वर होते हुए बंगाल में सिलीगुड़ी के लिए निकलते हैं और फिर बिहार होते हुए बरेली लौटते हैं। उनकी यह यात्रा लगभग दो सप्ताह की होती है। वह बताते हैं कि जीएसटी लागू होने के बाद उन्हें लगभग दो हजार से पांच हजार रुपये के बीच बचत होती है। पहले जो रास्ते जाम और भीड़-भाड़ वाले होते थे, आज उनकी स्थिति कुछ अलग ही है। ओडिशा सीमा से बंगाल जाना पहले से काफी आसान हो गया है। वह कहते हैं, “जब एक साल पहले चेकपोस्ट खत्म हुए, तो हमें इस पर यकीन ही नहीं हुआ। हमें लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है। लेकिन साल भर बाद हम जानते हैं कि यह खराब व्यवस्था नहीं है।”

जाहिर है अगर सिर्फ ट्रक ड्राइवरों वाला कोई लोकसभा क्षेत्र होता तो इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुमत वोट किसे मिलता। लेकिन ट्रांसपोर्टरों का इसमें अधिक हित छिपा है। वे सीमा पर निर्बाध परिवहन के फायदों को मानते हैं, लेकिन नई सरकार में पैदा होने वाली समस्याओं का जिक्र करते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण ई-वे बिल की वैधता है।

यह अभी तक का एक मुश्किल मुद्दा है और इसका हल निकाल लिया जाना चहिए था। लॉजिस्टिक्स फर्मों का कहना है कि ई-वे बिल ने उनका क्लर्की का काम आधा कर दिया है-अधिकांश मामलों में सप्लायर को ही ई-वे बिल बनाना पड़ता है। ओम लॉजिस्टिक्स के सीनियर मैनेजर (ऑपरेशन) अरुण शर्मा कहते हैं, “हमें बिल में बस गाड़ी का नंबर लिखना होता है और जब माल को दूसरे वाहन में रखा जाता है तो उसका नंबर बदलना होता है।” हर चेकपोस्ट पर कागजात की बार-बार जांच और टैक्स अधिकारियों का उत्पीड़न बंद हो गया है। अगर उनकी टीम हमारे वाहन को रोकती है, तो वे ड्राइवर को परेशान नहीं कर सकते हैं। अगर वे वाहन को दो घंटे से अधिक समय तक रोकते हैं, तो मैं उनके खिलाफ शिकायत दर्ज कर सकता हूं। अगर हमारे दस्तावेज पूरे होते हैं, तो उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।

लेकिन ई-वे बिल की वैधता माल पहुंचाने के लिए तय की गई दूरी पर निर्भर करती है और ट्रांसपोर्टर को तय समय के भीतर ही माल को ढोना और पहुंचाना होता है। ऑल इंडिया ट्रांसपोर्टर्स वेलफेयर एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रदीप सिंघल कहते हैं, “एक ट्रक कई लोगों का माल लेकर जाएगा और माल को इकट्ठा करने, भंडारण, वितरण, वाहनों को बदलने और रास्ते में रूकने...इन सब में समय लगता है। ऐसे में ई-वे बिल के तहत हमें दिया गया समय पर्याप्त नहीं है।” वह शिकायती लहजे में कहते हैं कि अब उन्हें अपने गोदामों में माल रखने के लिए ई-वे बिल की जरूरत है। सिंघल कहते हैं, “सरकार इसे मांगती है और उन्होंने गोदामों पर छापा मारना शुरू कर दिया है...यह असुविधाजनक स्थिति है। इसके अलावा, अगर बिल में एक छोटी-सी भी त्रुटि है, तो भारी जुर्माना लगाया जाता है।” मुंबई स्थित जीएसटी विशेषज्ञ मोनीश भल्ला इसे भ्रष्टाचार के लिए बना हथकंडा बताते हैं। भल्ला कहते हैं कि पूरे भारत में हर रोज 17 लाख ई-वे बिल बनाए जा रहे हैं और उनमें से लगभग दो प्रतिशत में त्रुटियां हैं-उनमें सुधार की बहुत कम गुंजाइश है और सौ फीसदी जुर्माने का खतरा है।

इसके अलावा, जैसा सिंघल बताते हैं कि जीएसटी के तहत पंजीकरण कार्यालयों के विकेंद्रीकरण से प्रक्रियागत परेशानी बढ़ी है। वह कहते हैं, “अगर एक फर्म की दस अलग-अलग राज्यों में दस शाखाएं हैं, तो उन सभी को अलग-अलग खाता रखना होगा। इससे कागजी कार्रवाई में बढ़ोतरी हुई है और इसने प्रक्रिया को अधिक जटिल बना दिया है। यह जीएसटी की मूल भावना ‘एक राष्ट्र एक कर’ के भी खिलाफ है। ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के चेयरमैन मलकित सिंह बल का कहना है कि जीएसटी के बाद भी सामान के निर्बाध परिवहन का लक्ष्य हासिल नहीं हुआ है। बल की बात महाराष्ट्र से गुजरात और राजस्थान होते हुए दिल्ली 25 टन राजमा लेकर आने वाले उनके ट्रक से समझ में आती है। 29 साल से ट्रक चला रहे 47 वर्षीय रामफत यादव कहते हैं कि अब भी आरटीओ वाले रास्ते में दिक्कतें पैदा करते हैं। वह कहते हैं, “आरटीओ चेकपोस्ट और दस्तावेजों की मैन्युअल जांच में अब भी बहुत समय लग जाता है। जब जीएसटी आया, तो ट्रांसपोर्टरों को लगा कि अब वे प्रतिदिन 250-260 किमी की जगह 350-400 किमी वाहन चला सकेंगे। लेकिन, जीएसटी के बाद यह औसतन 270-280 किमी ही हुआ। दिल्ली पहुंचने में उन्हें पांच दिन लग जाते हैं।

इस बीच, लुधियाना के लिए निकले बिंदेश्वर रास्ते में ट्रक को खड़ा देख अपना वाहन भी सड़क के किनारे लगाते हैं और ड्राइवर से बातचीत करने के लिए नीचे उतरते हैं। फिर वह लौटकर काउबॉय के अंदाज में अपनी सीट पर वापस बैठ जाते हैं। वह बीड़ी जलाते हुए बताते हैं, “बेचारा...उसका वाहन टूट गया। अब उसका मालिक सुबह दूसरी गाड़ी भेजेगा। उसे माल की रक्षा करनी होगी, इसलिए वह सो भी नहीं सकता।” वह कहते हैं, “वैसे भी हम शायद ही कभी रात में सोते हैं...माल की ढुलाई ज्यादातर रात में ही होती है। हम दिन में इधर-उधर थोड़ी देर सो लेते हैं, कभी पेड़ की छांव या कभी केबिन में।” जल्द ही सुबह होने में महज एक घंटा बचा है और उनींदापन चरम पर है। वह एक कप चाय के लिए एक ढाबे पर रुकते हैं। 15 साल से कम उम्र का एक युवा लडक़ा अंदर से दौड़ते हुए आता है और यहां से जाने के लिए कहता है। वह चिल्लाते हुए कहता है, “यह एक फैमिली ढाबा है। ट्रक वालों के लिए नहीं है! ट्रक को ढाबे के पास देखकर फैमिली वाले नहीं आते हैं।” रात का भाईचारा और सुविधा वहीं थम गई।

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