Advertisement

खुदा खैर करे! आपका लाल बीमार न पड़े

बच्चों के इलाज की दशा-दिशा की गोरखपुर के अस्पताल की घटना तो छोटी-सी मिसाल भर, हालात भयावह
भगवान भरोसेः लखनऊ हॉस्पिटल का वार्ड

रात के नौ बजे हैं और गोरखपुर को दिनभर लगने वाले जाम से मुक्ति मिल चुकी है। शहर का कुलीन वर्ग लकदक गाड़ियों में घर से निकल चुका है और 150 साल पुराना क्लब उत्साह से लबरेज है। यहीं हमारी मुलाकात एक डॉक्टर, एक बिल्डर और एक खनिक से होती है। आप सोच रहे होंगे कि ये खुद को नसीब वाला मानते होंगे, पर ऐसा नहीं है। पिछले साल अगस्त के उन दो दिनों को याद करके आज भी उनके चेहरे गुम हो जाते हैं और नथुने फूलने लगते हैं, जब शहर के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में 52 लोगों की मौत हो गई थी, जिनमें 34 बच्चे थे। दरअसल, यह गोरखपुर के लोगों के साझा दर्द और गुस्से का प्रतीक है।

इसी वजह से 2017 में 9-10 अगस्त को अचानक गोरखुपर राष्ट्रीय सुर्खियों में छा गया था। ये दो दिन उस हालत के भयावह पल थे, जो लगातार लाइलाज बनी हुई है। लोग बताते हैं कि इस एक साल में बाबा राघवदास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज में कुछ नहीं बदला है। गोरखपुर और आसपास के इलाकों में आज भी स्वास्थ्य की विकट चुनौतियां बनी हुई हैं। इसलिए, ताज्जुब नहीं होता कि अमीर विदेश में जाकर बस जाना तो गरीब किसी बड़े शहर की ट्रेन में सवार हो जाना चाहते हैं।

बदतर तो यह है कि गोरखपुर अकेला नहीं है। बीआरडी जैसे रूह कंपा देने वाले हालात हर जगह हैं। नासिक के जिला अस्पताल में पिछले साल 187 शिशुओं की मौत हो गई थी। कोलकाता ‌िस्‍थत पूर्वी भारत के सबसे बड़े बाल चिकित्सा अस्पताल में सितंबर 2013 में पांच दिनों के भीतर 35 बच्चों की मौत हो गई थी। 2012 में श्रीनगर का जीबी पंत बाल चिकित्सा अस्पताल मौतों को लेकर सुर्खियों में था। हकीकत में ये ‘घटनाएं’ कोई इत्तेफाक नहीं, बल्कि उस सिलसिले का हिस्सा हैं जो लंबे समय से जारी है। और यह सामान्य भी लगने लगा है। जैसा कि उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने पिछले साल कहा था, “अगस्त में हर साल बच्चों की मौत होती है।”

सबसे दुखद यह है कि इनमें से कई मौतें इलाज मुहैया कराके रोकी जा सकती थीं। टायफाइड और मलेरिया के लिए बदनाम गोरखपुर में जापानी एन्सेफलाइटिस (जेई) की स्थिति भयावह है, जिसे आम बोलचाल में जापानी बुखार भी कहते हैं। यह एक वायरल इन्‍फेक्शन है जो मच्छर के काटने से होता है। जापानी बुखार से 25 फीसदी लोगों की मौत हो जाती है और दूसरे 25 फीसदी स्थायी रूप से अशक्त हो जाते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में जापानी बुखार से ग्रस्त दो करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं। यह बीमारी ज्यादातर बच्चों को होती है, क्योंकि वे अधिक संवेदनशील और शारीरिक रूप से दुर्बल होते हैं।

जापानी बुखार उन बीमारियों में है जो एक्यूट एन्सेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के तहत आती हैं। बीआरडी के प्रिंसिपल गणेश कुमार ने बताया, ‘‘पिछले साल हमारे यहां एईएस के जितने मामले आए उनमें 10-15 फीसदी जेई के थे।’’ एईएस पीड़ित को तत्काल इलाज की दरकार होती है। बीआरडी में बीते साल अगस्त में एक चौथाई नवजातों की मौत एन्सेफलाइटिस से ही हुई थी।

जापानी बुखार का टीका है, लेकिन गोरखपुर के स्वास्थ्य अधिकारी बताते हैं कि शहर के सभी बच्चों का टीकाकरण कर दिया जाए (जो वे नहीं कर सकते) तो भी संक्रमण जारी रहेगा। बीआरडी आसपास के छह जिलों में सबसे बड़ा और 350 किलोमीटर के दायरे में एईएस का उपचार करने वाला इकलौता अस्पताल है। गोरखपुर के चीफ मेडिकल ऑफिसर (सीएमओ) उपेंद्र त्रिपाठी ने बताया, “बीआरडी पर से एईएस पीडि़तों के इलाज का बोझ कम करने के लिए हम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) को तैयार कर रहे हैं।” बरसात में एन्सेफलाइटिस चरम पर होता है। ऐसे में मॉनसून शुरू होने से एक महीने पहले त्रिपाठी का यह जवाब बताता है कि चीजें कैसे अब तक नहीं बदली हैं।

रोजाना करीब तीन हजार मरीज बीआरडी पहुंचते हैं। इनमें से ज्यादातर यहां आने से पहले ‘झोलाछाप’ डॉक्टरों से इलाज करा चुके होते हैं। यह बताता है कि गांवों में या तो इलाज की सुविधाएं नहीं हैं या अपर्याप्त हैं। यह स्थिति देश के हर कोने में दिखती है। महाराष्ट्र के नासिक और उसके आसपास के इलाकों में आउटलुक ने पाया कि पीएचसी में कर्मचारियों की कमी है और इतनी सुविधाएं नहीं हैं कि डॉक्टर मरीजों का ठीक तरीके से उपचार कर सकें।

लेकिन, पहले बात गोरखपुर की। जून के शुरुआत में आउटलुक ने कई बार बीआरडी का दौरा किया और पाया कि अस्पताल किसी आपात स्थिति से निपटने को तैयार नहीं है। सामान्य लापरवाही तो हर जगह दिख रही थी : नंगे तारों से बिजली के बल्ब लटक रहे थे। प्रिंसिपल कार्यालय के बगल में लगे पीने के पानी के नल की स्थिति ऐसी थी कि हट्टा-कट्टा शख्स भी बीमार हो जाए। फरवरी में बीआरडी आग से तबाह हो गया था। इसलिए, प्रिंसिपल आश्वस्त नहीं है कि इस बार हालात दुरुस्त नहीं तो कम से कम पिछली बार की तरह चरमराई हुई सी नहीं दिखेगी।

प्रिंसिपल के कमरे से निकलने के बाद जो कुछ दिखा वह कंपा देने वाला था। बच्चों के वार्ड में कोई डॉक्टर नजर नहीं आ रहा था। अस्पताल में 950 बेड हैं, जिनमें से 500 बच्चों के लिए हैं। इसके बावजूद अस्पताल में छह बाल चिकित्सक ही हैं। डॉक्टरों के 163 पद में से 27 इस जून तक खाली थे। ऑक्सीजन आपूर्ति बाधित होने की घटना के बाद गिरफ्तार हुए नौ डॉक्टर, जिनमें से सात अभी भी जेल में हैं, की ओर इशारा करते हुए कुमार ने बताया, “मैंने हाल में बारह डॉक्टर नियुक्त किए थे, लेकिन उनमें से केवल दो ही आए। निलंबित होने के डर से डॉक्टर नहीं आते।”

यह अजीबोगरीब विरोधाभास है कि देश में मेडिकल कॉलेज बढ़ रहे हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के महत्वपूर्ण नोडल अस्पतालों में डॉक्टर नहीं मिलते। यह यूपी की तरह कर्नाटक के लिए भी हकीकत है, जहां तत्काल 7,000 डॉक्टरों की जरूरत है। आइआइटी कानपुर में समाजशास्‍त्र के प्रोफेसर ए.के. शर्मा ने बताया, “इस विरोधाभास से हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा बुरी तरह प्रभावित है। बेरोजगारी होने के बावजूद सभी सरकारी महकमों स्वास्थ्य, शिक्षा, साफ-सफाई में कर्मचारियों की कमी है।” यह विरोधाभास क्यों हैं? मांग-आपूर्ति के बीच बढ़ती खाई पर नियंत्रण क्यों नहीं लग पा रहा है? दिल्ली के जेएनयू में पढ़ाने वाले पब्लिक पॉलिसी और प्लानिंग के एक्सपर्ट संतोष मेहरोत्रा का अध्ययन बताता है कि सुनियोजित तरीके से हर जगह कमी पैदा की गई है। 2017 के इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि यूपी के 13 मेडिकल कॉलेज में से केवल तीन में नियमित प्रिसिंपल थे। संयोग से बीआरडी के आखिरी प्रिंसिपल राजीव मिश्रा भी एडहॉक पर थे। वे फिलहाल जेल में हैं और बच्चों की मौत के मामले में सुनवाई का सामना कर रहे हैं।

प्राथमिकता की कमी हर जगह दिखती है। अपने हालिया बजट में उत्तर प्रदेश सरकार ने सड़क और बिजली के लिए सबसे ज्यादा आवंटन बढ़ाया है। लेकिन, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में नेशनल ट्रेंड का अनुकरण करते हुए आवंटन में सबसे कम इजाफा किया गया है। लखनऊ के गिरी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के पूर्व निदेशक अजीत कुमार सिंह ने बताया, “यह स्थिति तब है जब अन्य राज्यों की तुलना में सामाजिक सेवाओं पर खर्च पहले से ही बहुत कम है।” सिंह ने बताया, “पीएचसी को स्वास्थ्य सेवाओं का सहायक नहीं प्राथमिक केंद्र बनाना चाहिए। पीएचसी टीकाकरण से लेकर कुपोषण तक सब कुछ से लड़ने की कोशिश करता है और कहीं नहीं पहुंच पाता है।”

दुर्भाग्यवश, ग्रामीण स्वास्थ्य सरकारों की प्राथमिकता में नहीं है। इसके बजाय हालिया बजट की तरह छह सुपर स्पेशिलिटी अस्पतालों का ऐलान सरकार को ज्यादा सुहाता है। यह बताता है कि व्यवस्था में निश्चित तौर पर खामियां हैं और भ्रष्टाचार इसका कोई अनूठा कारण नहीं है। राज्यों को प्राइमरी हेल्थ फंड केंद्र से मिलता है और यूपी में नेशनल रूरल हेल्थ मिशन (एनआरएचएम) का घोटाला 2010 में हम देख चुके हैं।

गोरखपुर से एक घंटे की दूरी पर स्थित बेलीपार के रमेश कुमार उनलोगों में से एक हैं जिनके बच्चे की मौत बीते साल हुई थी। अपनी 12 साल की बेटी वंदना को तेज बुखार के बाद वे 10 अगस्त को एक निजी अस्पताल में लेकर गए। एईएस संदिग्ध होने के कारण उसे बीआरडी रेफर कर दिया गया। ऐसी स्थिति में कई मामलों में वेंटिलेटर की जरूरत होती है जिनका निजी अस्पताल में खर्च प्रतिदिन पंद्रह हजार रुपये आता है जिसे वहन करना पेशे से ड्राइवर रमेश जैसे लोगों के लिए मुश्किल है। नौ बजे रात में वंदना का इलाज शुरू हुआ। देर रात सांस लेने की तकलीफ के बाद उसे दूसरे वार्ड में शिफ्ट किया गया। वेंटिलेटर नहीं होने के कारण रमेश को एक अंबू बैग पकड़ा दिया गया। अंबू बैग को हाथ से दबाकर मरीज को ऑक्सीजन दी जाती है। रमेश ने बताया, “अस्पताल में ऑक्सीजन नहीं था। मैं पूरी रात अंबू बैग दबाता रहा।”

सबुह के पांच बजे डॉक्टर के कहने पर रमेश अंबू बैग एक नर्स को थमा ब्लड बैंक चला गया। एक घंटे बाद जब वह लौटा वंदना अकेले लेटी थी। उसकी नाक में नोजल लगा था और अंबू बैग बगल में पड़ा था। उसने बताया, “नर्स ने उसे छोड़ दिया था। कई बच्चे मर चुके थे इसलिए अस्पताल के कर्मचारियों ने जल्द ही हमें और अन्य लोगों को बच्चों के वार्ड से निकाल दिया।” कुछ मिनट बाद उसने डॉक्टर कफील को दौड़ते देखा। रमेश ने बताया, “डॉ. कफील पसीने से तरबतर थे। उनके आने के तुरंत बाद डॉक्टर फिर से मरीजों को पाइप लगाने में व्यस्त हो गए।” आपूर्ति बाधित होने के बाद डॉ. कफील ने ही नौ, दस और ग्यारह अगस्त को ऑक्सीजन सिलेंडरों का प्रबंध किया था। हालांकि, बिना किसी स्पष्ट कारण के इस घटना के बाद जेल जाने वाले बीआरडी के नौ कर्मचारियों में वे भी थे। फिलहाल वे जमानत पर बाहर हैं।

वंदना की जान नहीं बच सकी। दुख में डूबे रमेश से एक डॉक्टर ने ज्यादातर मेडिकल रिकॉर्ड ले लिए और बाद में कोशिश करने पर भी वे उसे वापस नहीं मिले। आउटलुक ने वे रिकॉर्ड देखे जिसमें बताया गया है कि वंदना की मौत अक्यूट मेनिंगो एन्सेफलोपैथी से हुई जो एईएस के विभिन्न रूपों में से एक है। प्रिंसिपल कुमार ने बताया, “मीडिया ने सभी मौतों को एकसाथ जोड़कर ऑक्सीजन की कमी को इसका कारण बता दिया, जबकि यह केवल एक रात की बात थी। बीते पांच साल के आंकड़े बताते हैं कि मारे गए लोगों की संख्या में वास्तव में कोई बदलाव नहीं आया है।”

यह सच है कि कई साल से काफी मौतें हो रही हैं, लेकिन बीते साल के वे घंटे जानलेवा थे। अस्पताल के रिकॉर्ड भी इसकी तस्दीक करते हैं। सात, आठ और नौ अगस्त को क्रमश: नौ, बारह और नौ मौतें हुई थीं। लेकिन 10 अगस्त को अचानक 23 बच्चों की मौत हो गई। 11 अगस्त को जब ऑक्सीजन आपूर्ति सामान्य हुई तो यह घटकर 11 हो गई। लेकिन कुमार के शब्दों में उन आधिकारिक रिपोर्टों और अदालत में दाखिल रिपोर्ट की गूंज सुनाई पड़ती है जिसमें कहा गया है कि ऑक्सीजन की कमी से मौतें नहीं हुईं।

यदि यह सच है तो फिर यह यह स्पष्ट नहीं है कि बीआरडी ने बाद में ऑक्सीजन की खरीद को क्यों रोक दिया? बिचौलियों को हटाते हुए सीधे निर्माता से इसे खरीदने के लिए कदम क्यों उठाए? बीआरडी में पिछले साल अगस्त में स्टोर में 52 सिलिंडर थे जिसे अब बढ़ाकर 300-400 कर दिया गया है। पूर्व प्राचार्य मिश्रा के बेटे पुरक ने बताया, “यदि ऑक्सीजन की कमी नहीं थी तो मेरे पिता सहित सात लोग बीते आठ महीनों से हत्या के प्रयास के आरोप में जेल में क्यों हैं।”

गोरखपुर के ग्रामीण इलाकों का भ्रमण करने के बाद एहसास होता है कि 2018 का मानसून भी भारी पड़ने वाला है। शहर से दो घंटे की दूरी पर खजनी के पास स्थित रसूलवापुर गांव में मच्छर और मक्खी का आंतक है। बीमारी का गंभीर खतरा दिखता है, क्योंकि स्वच्छ भारत अभियान के तहत करीब-करीब कोई शौचालय नहीं बना है। ट्रांसफार्मर पांच साल पहले जला जो आज तक बदला नहीं गया है। रसूलवापुर में सरकारी महकमे के लोग भी कभी-कभार ही पहुंचते हैं।

गोरखपुर के प्रतिष्ठित बाल चिकित्सक डॉ. आर.एन. सिंह ने बताया, “एन्सेफलाइटिस और अन्य मच्छरों का प्रजनन शत-प्रतिशत रोका जा सकता है। मच्छर काटने से एन्सेफलाइटिस होने की बात अब पुरानी हो चुकी है। माना जाता है कि ऐसे आधे मामले स्क्रब टाइफस के कारण होते हैं जिसका एंटीबॉयोटिक्स से उपचार किया जा सकता है। हालांकि, जेई का इलाज अब भी टीकाकरण या दर्दनिवारक उपचार ही है।” सिंह ने बताया,“जब एंटीबॉयोटिक्स से टाइफस ठीक हो सकता है तो एन्सेफलाइटिस से होने वाली मौतों में कमी आनी चाहिए थी, जो नहीं हो रहा है।” 2005 में गोरखपुर और आसपास के इलाकों में 90 फीसदी एन्सेफलाइटिस के मामले जेई के थे। उस साल वेंटिलेटर का इस्‍तेमाल शुरू किए जाने के बाद मृतकों की संख्या 1400 से घटकर 500 हो गई। डॉ. सिंह के मुताबिक उसके बाद से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है।

40 साल से सरकारें एन्सेफलाइटिस से रुक-रुक कर लड़ रही हैं। इस साल दस्तक योजना के तहत गोरखपुर में एन्सेफलाइटिस के खिलाफ 15 दिन का अभियान चलाया गया। जुलाई में 15 दिन का एक और अभियान चलाया जाएगा। सीएमओ त्रिपाठी ने बताया कि 14 विभाग इससे निपटने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं। हालांकि, रसूलवापुर से सटे हरपुर बुधाट में इसका कोई निशान नहीं दिखता। पास के तामा और हरनाही के स्वास्थ्य केंद्रों में आउटलुक को ताला लटका मिला। आशा वर्कर कृष्णा ने बताया, “तामा केंद्र बंद होने के कारण मैं गांव में घूमती हूं। मैं टीका दे सकती हूं लेकिन बुखार और दर्द की शिकायत होने पर दवाएं नहीं दे सकती।” त्रिपाठी ने माना कि कुछ उप केंद्र आधे-अधूरे हैं। उन्होंने शहजावां स्थित उप स्वास्थ्य केंद्र जाने का सुझाव दिया जहां एन्सेफलाइटिस उपचार का नया केंद्र बन रहा है। लेकिन, वहां जिस डॉक्टर की ड्यूटी थी वह वातानुकूलित कमरे में सोता मिला। 12 बेड वाले वार्ड में मौजूद एक मरीज के परिजन ने बताया कि कर्मचारी उगाही करते हैं। चाय विक्रेता 22 वर्षीय सतीश मौर्या जिनकी पत्नी ने यहां बच्चे को जन्म दिया बताया, “उपचार मुफ्त होना चाहिए। लेकिन, हम कोई परेशानी नहीं चाहते इसलिए उन्हें पैसा दे देते हैं।”

आधारभूत संरचना के अभाव में किस तरह मौत होती है यह जानना है तो कमला और उसकी बहू कंचन से पूछिए। गर्भवती कंचन को पहले प्राइमरी फिर सेकेंडरी हेल्थकेयर सेंटर ले जाया गया जहां डॉक्टर और विशेषज्ञ नहीं थे। आखिरकार उसे गोरखपुर के एक निजी अस्पताल में ले जाना पड़ा। मेहरोत्रा के अध्ययन के मुताबिक यूपी में पांच फीसदी से भी कम पीएचसी काम कर रहे हैं। यूपी में 3,467 लोगों पर एक एलोपैथिक डॉक्टर है जबकि एक हजार पर एक डॉक्टर होना चाहिए। पैदा होने के बाद कमला के पोते के पैर नीले पड़ गए। सामान्य तौर पर ठीक से रक्त प्रवाह नहीं होने पर ऐसी स्थिति पैदा होती है। ऐसे में ऑक्सीजन की जरूरत होती है, लेकिन कमला का परिवार निजी अस्पताल में इसका खर्च नहीं उठा सकता था। उसे बीआरडी रेफर कर दिया गया। रिकॉर्ड बताते हैं कि बच्चा प्री मेच्योर और कम वजन का था। आठ अगस्त को डॉक्टरों ने कमला को बताया कि अगले दिन से बच्चा स्तनपान कर सकता है। नौ अगस्त को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दौरा था। उनकी अगवानी की तैयारियों में अस्पताल के गेट बंद कर दिए गए। कमला ने बताया, “हमें अंदर नहीं जाने दिया गया। सभी सड़क पर थे। शाम के साढ़े चार बजे परिवार के लोगों को अंदर जाने की इजाजत दी गई। इसी रात बच्चों की मौत होनी शुरू हो गई। आठ साल कर्ज लेकर बहू का इलाज कराया और तब यह बच्चा पैदा हुआ था। मोदी-योगी ने हमसे यह भी ले लिया।” रोते हुए कमला और उनकी बेटी रीना उस पल को याद करने लगती हैं जब नर्स ने उनसे कहा था, “तुम्हारा बाबू मर गया।”

देश की बदहाल स्वास्थ्य सेवा और निजी अस्पतालों द्वारा इसे धंधा बनाने का गोरखपुर एक उदाहरण है। समृद्ध लोगों का यह शहर इलाज का असीमित विकल्प मुहैया कराता है। अमीर इलाज के लिए शहर के 100 निजी अस्पतालों में से किसी में भी जा सकते हैं। लेकिन कमजोर तबकों के लिए या तो झोलाछाप डॉक्टर हैं या बीआडी, जहां हर साल लगभग 7000 मरीजों की मौत होती है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement