Advertisement

ऊंट किस करवट, जनाब!

दूरदर्शन के चैनल से लेकर नुक्कड़िया चाय दुकान तक हर तरफ बस वाह-वाह
आया मौसम वादों का

मन की बात चालू थी। विकास की चौतरफा बात करने को मन उत्सुक था। चार साल जो पूरे हो गए थे, जनाब। मन की बात सुनने के लिए अबकी बार विपक्ष के मन में भी लड्डू फूट रहे थे। ऐसे मौके कम ही आते हैं जब पक्ष-विपक्ष साथ-साथ मुस्कुराते दिख जाएं। सरकार का चार साल बीतना तो केवल बहाना था, वह तो बीतने ही थे आज नहीं तो कल। फिर कल पांच भी पूरे हो जाएंगे। इसलिए ऐसे मौकों पर विकास की लंबी चर्चा न हो तो सरकार के सरकार होने का फायदा ही नहीं।

अपनी सरकार है, दूरदर्शन के किसान चैनल से लेकर उर्दू चैनल हों या नुक्कड़िया चाय की दुकान, हर तरफ बस वाह-वाह ही हो तो तुर्रा सिर चढ़कर बोले है। कहीं नए नोटों की सफलता की चर्चा तो कहीं विदेश यात्राओं पर बतरस। सरकार का चर्चेआम होना भी एक पोर्टफोलियो होना चाहिए। चर्चेआम करने में आगे आए हुए प्रधानमंत्री को मन की बात कहने का पूरा अधिकार था तो समस्त मंत्रालयों के मंत्रियों को भी बोलने का खुला हुक्म। ऐसे में वस्‍त्र मंत्रालय अपनी समस्त भारतीय सीमाएं जानता था इसलिए चुप था। उसे पता था अपने देश में अब पाश्चात्य संस्कृति के फटे-पुराने कपड़ों का बोलबाला है। नई जेनरेशन फटा पहनना और मैदा खाना बहुत पसंद कर रही है। फैशनपरस्ती में वह अच्छे-बुरे का फर्क नहीं समझ पा रही।

सरकार के चार साल पूरे होने पर सरकार कुचिपुड़ी तो विपक्ष भरतनाट्यम करने को आमादा है। देश भर में पानी की भी ब्लैकमेलिंग शुरू हो चुकी है। पेट्रोल के दाम तो फिर भी कभी एक पैसा कम तो कभी एक पैसा ऊपर होता ही रहता है। बटुए में छुट्टे पैसों की जेब तो अकसर फटी ही रहती है। इसलिए उनका कोई हिसाब नहीं रखता। ऐसे में पेट्रोलियम मंत्रालय की जमकर चांदी हो जाती है। समझदार कंपनियां भी इसीलिए अपनी वस्तुओं का मूल्य 999, 899 रुपये टाइप ही रखती हैं। भारत में मुनाफाखोरों की नजर सामने वाले की जेब के एक रुपये पर रहती है, जिसे जेबधारी खुद कुछ नहीं समझता।

ऐसे में विपक्ष को जब पता चल चुका है कि सरकार के अब 12 महीने ही बचे हैं तो मुस्तैदी से उसने अपनी कार्यप्रणाली बढ़ा दी है। इस बार ‘साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर, आना ही है फिर सरकार बनकर’ का नारा जोरों पर होगा। चाय तो जब सरकार नहीं थे तब बेचते थे, अब शर्बत घर-घर बांटेंगे। इस बार मीठी सरकार बनाएंगे। चीनी घुला मीठा शरबत न गली-गली बंटवा दिया तो मीठी सरकार नहीं। विपक्ष मनलुभावन वादों के पुलिंदे बना रहा है। समय कम है और काम ज्यादा। इसलिए इस बार अपनी सफलता की सारी गांठें खोलने के नायाब तरीकों की प्रैक्टिस कर रहा है। पीठ पीछे रीफ गांठें खोलने की तो उसे पुरानी आदत है और अभ्यस्त भी है, इसलिए संतुष्ट हो रहा है कि इस बार विजय पक्की। वह सोच-विचार कर, या फिर हड़बड़ी में हुंकार भर, कह रहा है कि हम मकान नहीं महल देंगे। दुकानें नहीं गोदाम देंगे। उम्मीद है तो सरकार है। इस बार भी आएगी जरूर। चाहें पक्ष की हो या विपक्ष की।

कुल मिलाकर देश में पक्ष-विपक्ष अपनी ढपली, अपना राग अपनाने की जुगत में लगा पड़ा है। वैसे भी भारतीय परंपरा किसी को नाखुश नहीं देखना चाहती। पानी कितना भी गंदा हो आग बुझाने के काम तो आता ही है। विपक्ष भले ही इस बार आग लगाने पर आमादा हो, मगर पक्ष समुद्र बन सबकुछ समाना जानता है। यकीनन इस बार तापमान कितना भी बढ़े पर नियंत्रित कर लिया जाएगा। कई नायाब गुर सरकार ने अपने अनेक विदेशी दौरों के अंतर्गत सीख लिए हैं। फिर भी देखना है कि आखिर ऊंट किस करवट बैठेगा, जनाब!

Advertisement
Advertisement
Advertisement