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लोकतंत्र और समता को समर्पित

हिंदी पत्रकारिता को बिना झुके निरंतर नई शैली और नजरिया दे गए राजकिशोर
राजकिशोर (1947-2018)

बमुश्किल डेढ़ महीने पहले 22 अप्रैल को अपने युवा बेटे विवेक की अर्थी उठने के वक्त राजकिशोर की ऊंची आवाज गरजी थी, कोई राम नाम नहीं कहेगा। उसके पहले वे बता चुके थे कि यह नास्तिकों की परीक्षा की घड़ी है। चार मई को उन्होंने अपनी प्रिय पुस्तकों सुनंदा की डायरी (उपन्यास), एक अहिंदू का घोषणापत्र, हरिजन से दलित, मुस्लिम ः मिथक और यथार्थ और आंबेडकर विचार कोश के साथ अंतिम विदाई ली। उनकी संगिनी विमला जी और बेटी अस्मिता ने उनके हर कहे का ध्यान रखा और तनिक भी विचलित नहीं हुईं।

हमेशा अपनी मान्यताओं पर अडिग रहने वाले राजकिशोर की पत्रकारिता और लेखन समाज को गहरे मथने वाले मुद्दों पर ही केंद्रित रहा। उन्होंने जिस दौर में पत्रकारिता शुरू की थी, वह इमरजेंसी का दौर चेतना को गहरे चुनौती दे रहा था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उभरे मूल्यों और संवेदनाओं को झकझोर रहा था। दो जनवरी 1947 (हालांकि यह उनकी औपचारिक जन्मतिथि ही थी, जैसी हाल तक स्कूल में दर्ज हमारी जन्मतिथियां ही स्वीकार्य होती थीं) को जन्मे राजकिशोर को इन मूल्यों और संवेदनाओं ने जैसे काट खाया था। लेकिन इमरजेंसी हटी और चुनाव में नई संभावनाएं उभरीं तो पत्रकारिता और लेखन में नई ऊर्जा पूरे देश में देखने को मिली। देश, समाज और राजनीति में बदलावकारी भूमिका निभाने के लिए पत्रकारिता में नए-नए प्रयोग शुरू हुए। भाषायी और खासकर हिंदी पत्रकारिता को भी यह ऊर्जा नई गति दे रही थी। ऐसे दौर में कलकत्ता (अब कोलकाता) से निकली पत्रिका रविवार में राजकिशोर ने एक तरह से नियमित पत्रकारिता शुरू की और अपनी लेखनी को समाज में हाशिए पर पड़े समाजों के हक-हुकूक के मुद्दों को धारदार करने का औजार बनाया। उनके प्रिय विषय स्‍त्री, दलित, आदिवासी और पिछड़ांे की पीड़ा और संघर्ष थे। हालांकि, देश, समाज और दुनिया की हर हलचल पर उनकी पैनी नजर रहती थी और लेखन के अलावा सामान्य बातचीत में भी वे तमाम मुद्दों पर जिरह करते रहते थे।

रविवार के बाद वे कुछ समय कोलकाता से ही परिवर्तन नामक पत्रिका का संपादन करते रहे। फिर 1990 में वे नवभारत टाइम्स, दिल्ली में आ गए। यह वही दौर था जब देश की राजनीति फिर एक नए मोड़ पर थी। मंडल और मंदिर के मुद्दे पूरे समाज को मथ रहे थे। दिल्ली और खासकर उत्तर भारत के कुछ शहरों में आरक्षण विरोधी आग जल उठी तो राजकिशोर ने न सिर्फ संपादकीय ‘कृपया यह न करें’ लिखा, बल्कि दिल्ली में एक मौन जुलूस की अगुआई भी की। यही वह दौर भी था जब आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण की राहें भी खुलीं और बाजार पत्रकारिता पर हावी होने लगा। टाइम्स समूह की पत्रकारिता में बाजारीकरण की आंच सबसे पहले महसूस की गई। नतीजतन, संपादक नाम की संस्‍था का ह्रास होने लगा। ऐसी पत्रकारिता राजकिशोर के अनुकूल नहीं थी। सो, उन्होंने विदा ले लिया।

लेकिन इस दौर में भी जो मुद्दे पत्रकारिता से छूट रहे थे, उन पर विस्तृत चर्चा के लिए उन्होंने ‘आज के प्रश्न’ शृंखला की शुरुआत की, जिसकी पुस्तकें वाणी प्रकाशन से छपीं। इसी शृंखला की पुस्तकें हरिजन से दलित और मुस्लिम मिथक और यथार्थ हैं, जो उन्हें सबसे प्रिय थीं। नवभारत टाइम्स से हटने के बाद राजकिशोर ने अपनी पत्रिका दूसरा शनिवार निकाला, लेकिन आर्थिक दिक्कतों से बहुत आगे नहीं बढ़ पाई। फिर उन्होंने इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट की पंचायती राज पर अंग्रेजी और हिंदी पत्रिका का कई साल संपादन किया। इस दौरान उनके स्तंभ लगभग हर हफ्ते हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। जनसत्ता, सहारा, दैनिक जागरण जैसे तमाम हिंदी प्रकाशनों में उनके स्तंभ पाठकों को निरंतर हर मुद्दे पर नए नजरिए से सोचने-समझने को मजबूर करते रहे।

कुछ समय वे वर्धा के अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में रहे और हिंदी समय नामक वेबसाइट का संपादन किया। यह हिंदी समाज के लिए उनका एक अनोखा योगदान है। कुछ वक्त उन्होंने एपीएन चैनल के प्रकाशन में भी गुजारे और कुछ महीनों पहले तक इंदौर से निकलने वाले रविवार डाइजेस्ट का भी संपादन किया।

लेकिन हाल के दौर में देश के माहौल से वे बुरी तरह व्यथित थे और अवसाद के झटके भी झेल रहे थे। इधर कुछ समय से वे करीबी लोगों से कहने लगे थे कि अब लिखने का मन नहीं होता क्योंकि लिखने का असर नहीं होता है। असल में राजकिशोर को समतामूलक जाति और वर्गविहीन समाज निर्माण की दिशा में पहल करने की प्रेरणा ही लेखन के लिए प्रवृत्त करती रही है। उन्हें यह प्रेरणा लोहियावादी राजनीति की उस धारा से मिली थी, जिसमें किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा, अशोक सेकसरिया जैसे विचारक रहे हैं। राजकिशोर आज भी इसी धारा के संगठन ‘समाजवादी जन परिषद’ से जुड़े थे। हाल की इसकी बैठकों में और अपने करीबी लोगों से भी राजनैतिक सक्रियता बढ़ाने पर जोर देने लगे थे। उन्हें यह एहसास गहरे झकझोरने लगा था कि राजनैतिक सक्रियता ही देश को मौजूदा दशा से बाहर निकाल सकती है। यानी बिना किसी तरह का समझौता किए निरंतर बदलावकारी भूमिका निभाना ही राजकिशोर के जीवन का मर्म है। 

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