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विपक्षी राजनीति की संभावनाएं

मोदी को चुनौती देने के लिए कांग्रेस को अतीत के मोह से निकलकर वैकल्पिक रणनीति तैयार करनी होगी
अखिलेश और मायवती ने संकीर्णता छोड़ पकड़ी नई राह

कर्नाटक के विधानसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश के कैराना तथा नूरपूर में हुए उपचुनावों के बाद विपक्षी राजनीति के भावी विकास की संभावनाएं निखर ही रही थीं कि पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च और सर्वाधिकारसंपन्न नेता मोहन भागवत के निमंत्रण पर नागपुर में आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में जाकर भाषण दे आए। उन्होंने वहां आशा के अनुरूप ही भाषण दिया और संविधान, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता की नेहरूवादी समझ ही सामने रखी लेकिन साथ ही संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के जन्मस्थान जाकर उन्हें भारत का “महान सपूत” भी बता आए। उनके भाषण के अविकल प्रसारण के बहाने देश के इतिहास में पहली बार जनता के पैसे से चलने वाले चैनल राज्यसभा टीवी ने लगभग दो घंटे उन्नीस मिनट तक संघ के कार्यक्रम को शुरू से लेकर अंत तक दिखाया और संघ का खुल्लमखुल्ला विज्ञापन किया। संघ ने स्वयं भी मुखर्जी के भाषण और हेडगेवार को दी गई श्रद्धांजलि का अपनी छवि को चमकाने के लिए भरपूर इस्तेमाल किया। इस सबसे देश में बन रहे भाजपा-विरोधी माहौल को एक जबरदस्त झटका लगा।

आधी सदी के राजनीतिक अनुभव वाले प्रणब मुखर्जी ने नागपुर जाने का फैसला क्यों लिया, इस बारे में अटकलें लगाना निरर्थक है। महत्वपूर्ण यह है कि उनकी नागपुर यात्रा से देश भर में क्या संदेश गया। एक ऐसे समय जब विपक्षी दलों के बीच एकता के नए प्रयोग हो रहे हैं, जब मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी जैसे एक-दूसरे के कट्टर विरोधी समय की नजाकत भांपकर एक-दूसरे से हाथ मिला रहे हैं, जब चार साल के बाद जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा से यह सवाल करने लगी है कि इन चार साल में कौन-सा चुनावी वादा पूरा हुआ, और जब मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद एक साल के भीतर लोकसभा चुनाव होने वाले हैं, प्रणब मुखर्जी ने ऐसा कदम उठाया है जिसके निहितार्थ बहुत गहरे और दूरगामी हैं। लेकिन इससे विपक्षी दलों को एक बहुत बड़ी सीख भी मिलती है।

सबसे बड़ी सीख तो स्वयं कांग्रेस के लिए ही है, लेकिन वह इसे ग्रहण करेगी, इसमें संदेह है। प्रणब मुखर्जी के आचरण से एक बार फिर यह सच्चाई उजागर हो गई है कि कांग्रेस जिस धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलती आई है वह अंधी गली में जाकर खत्म होती है। लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को इसका एहसास नहीं है और इसका प्रमाण सोनिया गांधी का इस वर्ष मार्च में दिया गया वह बयान है जिसमें उन्होंने इस बात पर अफसोस प्रकट किया कि वे, उनका परिवार और अन्य पार्टी नेता हमेशा मंदिर जाते रहे और फिर भी भाजपा लोगों को यह विश्वास दिलाकर कि कांग्रेस एक मुस्लिम पार्टी है, उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में हराने में सफल हो गई। तो क्या धर्मनिरपेक्षता कांग्रेस के लिए एक बोझ है, या वह धर्मनिरपेक्षता बोझ है जिस पर वह पिछले अनेक दशकों से अमल करती आ रही है? इसका स्पष्ट उत्तर यही है कि धर्मनिरपेक्षता कांग्रेस की वैचारिक विरासत है लेकिन जिस तरह से वह इस पर अमल करती आई है, वह उसके गले में बंधा पत्थर हो गई है।

कांग्रेस ने मुस्लिम अभिजात वर्ग के लोगों को सत्ता में कुछ हिस्सा दिया और समझा कि इस प्रतीकात्मक कदम से पूरा मुस्लिम समुदाय खुश रहेगा। कुछ वर्षों तक वह रहा भी, लेकिन उसकी रोजी-रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की समस्याएं लगातार विकराल होती गईं। उधर भाजपा के उग्र हिंदुत्व के जवाब में उसने नरम हिंदुत्व का इस्तेमाल करने की कोशिश की। नतीजा वही हुआ जो होना था। “न खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे।” इसलिए कांग्रेस का सबसे पहला काम हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, आदिवासियों-सभी को यह विश्वास दिलाना है कि वह किसी एक तबके के हित के बारे में नहीं बल्कि सभी तबकों यानी सभी देशवासियों के हितों के बारे में सोचती है। यही असली देशप्रेम और राष्ट्रवाद है। लेकिन इसके लिए उसे तिकड़मों की राजनीति से उठकर विचारों की राजनीति करनी होगी। जब तक भाजपा को वैचारिक शिकस्त नहीं मिलती, उसे वास्तविक अर्थों में राजनीतिक शिकस्त भी नहीं दी जा सकती।

इसके साथ ही कांग्रेस को उसी तरह संकीर्णता छोड़नी होगी जिस तरह मायावती और अखिलेश यादव ने और सिद्धरमैया तथा एच.डी. देवेगौड़ा ने छोड़ी है। क्या कारण है कि सबसे पहले नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोककर उसके अश्वों की गर्दन मरोड़ने वाली आम आदमी पार्टी का वह दिल्ली में भाजपा से भी अधिक विरोध करती है, जबकि दिल्ली की जनता कह रही है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में केजरीवाल सरकार ने उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। कांग्रेस को अपने अतीत के मोहजाल से बाहर निकल कर प्रमुख विपक्षी पार्टी की भूमिका निभानी होगी और विपक्षी राजनीति के लिए वैकल्पिक रणनीति तैयार करने की पहल करनी होगी। जिस राज्य में जो दल ताकतवर है, उसकी नेतृत्वकारी भूमिका को स्वीकार करना इस दिशा में पहला कदम होगा। कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों को जनता में यह भरोसा भी पैदा करना होगा कि अनेक दल मिलकर भी स्थिर सरकार बना सकते हैं। वरना इस समय भाजपा और उसके नेतृत्व में चल रही केंद्र एवं राज्य सरकारें जिस तरह के मनमाने और निरंकुश ढंग से काम कर रही हैं, वह देश को तानाशाही की ओर ही ले जा सकता है। भले ही उस तानाशाही का बाहरी खोल लोकतंत्र का ही क्यों न हो।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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