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‘न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए’

एक समय था जब बशीर बद्र मुशायरों की जान हुआ करते थे और शे'रो-सुखन में इतने मशगूल रहते थे कि घर के लिए वक्त कम ही होता था, आज वे तन्हा हैं और खुद की भी याद नहीं
बदमिजाज-सी शामः हमसफर राहत बद्र के साथ बशीर साहब

“मैं गजल का आदमी हूं, गजल से मेरा जन्म-जन्म का साथ है,

गजल का फन मेरा फन है और मेरा तजुर्बा गजल का तजुर्बा है।”

-बशीर बद्र

उनकी शख्सियत सरापा गजल लगती है और उनके यह लफ्ज सौ फीसदी सच लगते हैं। पर, आज यह गजल कुछ खामोश नजर आती है। उनकी खामोशी में खलल तभी पड़ता है, जब कोई उनकी गजल छेड़ दे। वक्त का इससे बड़ा सितम क्या होगा कि अल्फाज के जादूगर की जबान से आज लफ्ज नहीं निकलते और कभी चाहने वालों के हुजूम में घिरे रहने वाला शायर आज तन्हा है। यह हाल है आज मुहब्बतों के शायर बशीर बद्र का। एक समय था कि बशीर बद्र मुशायरों की जान हुआ करते थे और शे’रो-सुखन की महफिलों में इतने मशगूल रहते थे कि घर पर कम ही समय दे पाते थे, आज वह उन महफिलों से दूर तन्हा हैं और उन्हें खुद की भी याद नहीं। याददाश्त के धागे कमजोर पड़ गए हैं और यादें धुंधली। ऐसे में साये की तरह उनके साथ हैं उनकी हमसफर डॉ. राहत बद्र। वे कहती हैं, “वे जब अपने चाहने वालों के बीच थे, हम तब भी उनके साथ थे और आज जब वे तन्हा हैं, हम तब भी उनका साथ निभा रहे हैं। एक हमसफर, शरीके-हयात को ऐसा ही होना चाहिए।” यूं तो बशीर साहब ज्यादातर खामोश ही रहते हैं, लेकिन जब कोई उनकी कोई गजल छेड़ देता है, तो तरन्नुम उनके होठों पर भी इतराने लगता है। उनके जेहन पर जमी धूल साफ होती जाती है और कुछ अशआर उनकी जबां पर भी आ जाते हैं।

बशीर बद्र की पैदाइश अयोध्या में हुई, बचपन कानपुर में बीता तो तालीम अलीगढ़ में मुकम्मल हुई। उनका गहरा ताल्लुक मेरठ से भी रहा है, लेकिन 1987 के सांप्रदायिक दंगों में उनका न सिर्फ आशियाना ही खाक हुआ, बल्कि उन दंगों की आग ने उनके सुखनवर दिल को भी झुलसा कर रख दिया। तब उनके दिल से आवाज निकली थी, ‘लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।’ इन हालात से वे इतना हताश हुए कि मेरठ में अपने ढाई कमरों के मकान को छोड़ कर भोपाल के ईदगाह हिल्स में बस गए। अपने शहर से जुदाई ने उनके जज्बातों को गजल में ढाला और वे कह उठे, ‘कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, यह नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो।’

गालिब की तरह बशीर साहब के भी किसी उस्ताद का नाम सामने नहीं आया, मगर दंगों के माहौल में उठी आहें तो कभी मुल्क के बंटवारे में फैले दर्द भरे शोर ने उनके एहसासों, जज्बातों को गजल के रूप में उड़ेल कर रख दिया। हादसों में गुजरी जिंदगी के बावजूद ‘दुश्मनी जम के करो लेकिन यह गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों’, कहते हुए उनकी गजल अमन का पैगाम लिए मुहब्बत को गुनगुनाती रही। बाद में उनका यही शे’र इतना मशहूर हुआ कि 1972 में हुए शिमला समझौते के वक्त पाकिस्तान के वजीरे-आजम जुल्फिकार अली भुट्टो ने इंदिरा गांधी से मुखातिब होकर यही शे’र दोहराया था। कभी पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने भी अपने आखिरी भाषण में बशीर साहब का ही शे’र, ‘उजाले अपनी यादों को हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए’, कहकर अपनी बात पूरी की थी।

आज भी सियासत के मंदिर संसद में बशीर साहब के शे’र दोहराए जाते हैं। कभी विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे उन्हीं के शे’र से अपनी बात की शुरुआत करते हैं, तो उसी शायराना लहजे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उन्हीं के कलाम से अपने शब्दों को रवानी देते नजर आते हैं।

आज गजल इस मुकाम तक पहुंची है तो इसको आज के माहौल के मुताबिक ढालने में बशीर साहब की अहम भूमिका रही है। हालांकि, शुरुआत में उन्होंने भी उर्दू, फारसी के बोझिल अल्फाज को अपनी शायरी में जगह दी। उनके गजल संग्रह ‘इकाई’ में गजल का यही रंग नजर आता है। मगर बाद में आसान लफ्जों की चाशनी उनके कलाम में बिखरी मिलती है और कहीं-कहीं अकबर इलाहाबादी की तर्ज पर अंग्रेजी के कुछ लफ्ज भी उनकी शायरी को संवारते नजर आते हैं।

आज उनकी शायरी में मुहब्बत के रंग भी हैं, जवानी की उमंगें और जोश भी, और यही वजह है कि उनका कलाम खासो-आम हर तबके में मशहूर है। उनकी तबीयत जितनी खुशमिजाज है उनके शे’र उतने ही संजीदा और आसान जबान में, मगर सोचने पर मजबूर करने वाले। गजल के बारे में उनका अक्सर यही कहना रहा है कि “गजल में अगर सारी दुनिया के गमों को साथ लेकर चलने की सलाहियत नहीं है, तो मैं पहला आदमी हूं, जो इन्हें गजल मानने से इनकार करता हूं।” यह उनकी शायरी की खासियत है कि कहीं सियासत के रंग में रंगे उनके शे’र गूंजते हैं, तो कहीं युवाओं की जुबानों पर उनकी मुहब्बत भरी गजल सवार होती है। उनकी बेहद सादा शख्सियत के बावजूद उनके बारे में मशहूर रहा है कि वे अपनी तारीफ खुद ही करते रहते हैं। इस पर उनका जवाब भी सामने वाले को लाजवाब कर देता है, “सच यह है कि मैं अपने बारे में कम बोलता हूं। देश के हर पांचवें आदमी को मेरे शे’र याद हैं, ऐसे में मुझे बोलने की क्या जरूरत है, लेकिन दूसरा सच यह भी है कि 19वीं शताब्दी की जो गजल रवां-दवां है, उसकी शुरुआत मेरे ही चरागों से हुई है।”

कलम यूं ही नहीं संवरती। कितने ही गम दिल की जमीं पर खिलते हैं तब कोई गजल आबाद होती है। बशीर साहब की जिंदगी का सफर भी दुश्वारियों भरा रहा और इन्हीं दुश्वारियों ने उन्हें अल्फाज का जादूगर बना दिया, जिसका जादू सब पर छाया। कवि-पत्रकार और उनके दोस्त कन्हैयालाल नंदन उनकी आसान और सरल शब्दों की शायरी के दीवाने थे, तो गीतकार गुलजार उनके कद्रदान। वहीं उनकी कई गजलों को अपनी आवाज दे चुके मखमली आवाज के गायक जगजीत सिंह ने उनके कलाम के बारे में कहा था, “डॉ. बद्र सीधे शब्दों में लिखते हैं, सरल और सादा जुबान इस्तेमाल करते हैं, इसलिए उनके शे’रों को धुनों में बांधना और डूबकर गाना अच्छा लगता है।” बशीर बद्र को 1999 में पद्मश्री और उर्दू के साहित्य अकादेमी सम्मान से नवाजा गया।

अपनी जिंदगी के अहम पहलू पर बात करते हुए बशीर बद्र साहब की शरीके-हयात डॉ. राहत बद्र कहती हैं, “हमारे बीच प्यार की एक वजह बशीर साहब की शायरी भी है। मैं उनकी शायरी को शादी से पहले से पसंद करती रही हूं और यही वजह है कि शादी के बाद उनसे अजनबियत नहीं लगी।” आज बशीर साहब के चाहने वालों में आला दर्जे के लोगों से लेकर आम लोग तक शामिल हैं। इसी पर एक वाकया याद करते हुए राहत बद्र बताती हैं, “एक बार बशीर साहब और मैं आइसक्रीम खाने गए थे। वहीं कुछ दूरी पर एक आदमी जूता सिल रहा था। मैंने बशीर साहब से कहा कि आप इनसे जूता पॉलिश करवा लें, इस बहाने उस आदमी को कुछ रुपए मिल जाएंगे। जैसे ही हम उसके पास गए, वह आदमी उनको पहचान गया और उठ कर खड़ा हो गया।” बशीर बद्र तालीम के मामले में भी अव्वल रहे और उन्हें सर मॉरेस विलियम स्कॉलरशिप, डॉ. राधाकृष्णन जैसी स्कॉलरशिप भी मिलीं। इसी से जुड़ी एक अहम बात का जिक्र करते हुए राहत बद्र कहती हैं, “जब बशीर साहब ग्रेजुएशन करने अलीगढ़ गए, तो वहां वे पहले ही पढ़ाए जा रहे थे, यानी वहां के सिलेबस में उनकी गजल शामिल थी।”

खुद बशीर साहब का कहना है, “आज के नौजवान शायर आसान जबान में गजल कहते हैं। यह कोई आसान काम नहीं है, लेकिन जरूरी काम है, क्योंकि पूरे हिंदुस्तान में, जिनमें हिंदी वाले भी शामिल हैं, उनके लिए यह अल्फाज अजनबी नहीं हैं और यही आज की गजल की खूबी है।” शहरों की जिंदगी के बारे में उनका एक शे’र मशहूर है, ‘है अजीब शहर की जिंदगी न सफर रहा न कयाम है, कहीं कारोबार-सी दोपहर कहीं बदमिजाज-सी शाम है।’ आज इसी बदमिजाज शाम में कोई खुशनुमा रंग घुला हुआ है तो वह उनकी शायरी ही है। उम्र के इस पड़ाव पर वे कुछ खामोश जरूर नजर आते हैं, मगर उनके चाहने वालों की तरह हजारों लफ्जों का कारवां उनके साथ है। वे कहते हैं कि पूरी जिंदगी ख्याल है पर उसे गजल बनके आना पड़ेगा। मुझे यकीन हो गया है कि जिंदगी एक वाहिमा (तसव्वुर) है और जिंदगी कपड़े बदलती है।

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