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जिन्ना, एएमयू और हिंदू सांप्रदायिकता

जिन्ना की तस्वीर को लेकर हंगामा तो बहाना है, असली मकसद है ‌हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक विचारों का प्रसार
ध्रुवीकरण की कोशिशेंः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रदर्शन

जबसे केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार का युग्म बना है, तभी से उत्तर प्रदेश में उग्र हिंदू सांप्रदायिकता की लहर तेज हो गई है क्योंकि राज्य सरकार समर्थन में खड़ी दिखाई देती है। जब राज्य का मुख्यमंत्री अपने और अपने समर्थकों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों को सरकारी आदेश जारी करके वापस ले लेगा, तो इससे अपराधी तत्वों और पुलिस-प्रशासन को जो संदेश जाएगा, उसे उन्होंने सहर्ष ग्रहण कर लिया है। नतीजतन हर जगह पुलिस-प्रशासन गड़बड़ी फैलाने वाले तत्वों को संरक्षण दे रहा है और इन तत्वों का विरोध करने वालों पर जबर्दस्त बलप्रयोग कर रहा है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों पर हाल में हुआ दमन इसका ताजातरीन प्रमाण है।

संघ परिवार के अनेक आनुषंगिक हिंदुत्ववादी संगठनों और भारतीय जनता पार्टी के पास हिंदू मतदाताओं को गोलबंद करने का एक ही तरीका है और वह पिछली लगभग एक शताब्दी के दौरान बार-बार आजमाया जाकर समय की कसौटी पर हमेशा खरा उतरा है। संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर की पुस्तक विचार नवनीत में भारत की सुरक्षा के लिए तीन आतंरिक खतरे गिनाए गए हैंः मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट। इसीलिए बार-बार मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल उठाकर उनके खिलाफ हिंदुओं को गोलबंद करने के अभियान छेड़े जाते हैं। दुर्भाग्य यह है कि अक्सर वे सफल भी हो जाते हैं।

दशकों से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय संघ परिवार के निशाने पर रहा है और उसके बारे में उसके कार्यकर्ताओं और अखबारों द्वारा हर किस्म की अशोभनीय अफवाहें फैलाई गई हैं। उस पर निशाना साधा गया और उसे बर्बाद करने की ठान ली गई क्योंकि दशकों की मेहनत से वहां वामपंथी-उदारवादी माहौल तैयार किया गया था। शिक्षकों और विद्यार्थियों के रहन-सहन, सामाजिक व्यवहार और बौद्धिक कर्म, सभी स्तरों पर मानवीय, लोकतांत्रिक और उदारवादी मूल्यों को स्थापित करने और उन्हें मजबूत करने की कोशिशें की गई थीं और वे काफी हद तक सफल भी रही थीं। लेकिन वामपंथ तो देश की सुरक्षा के लिए “आंतरिक खतरा” है, इसलिए इस विश्वविद्यालय को और उसकी गौरवशाली उदारवादी सांस्कृतिक, सामाजिक और बौद्धिक परंपराओं को तो नष्ट करना ही होगा। और, यह काम बाकायदा केंद्र सरकार की देखरेख में व्यवस्थित तरीके से किया भी जा रहा है।

जिस विश्वविद्यालय के नाम में ही 'मुस्लिम' लगा हो, उस अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के माहौल को बिगाड़ने और हिंदू-मुस्लिम तनाव पैदा करने की कोशिशें क्यों नहीं की जाएंगी? और अब तो इन कोशिशों को राज्य का संरक्षण भी मिल गया है। एक कोशिश चार साल पहले भी की गई थी जब अचानक संघ परिवार के दिल में राजा महेंद्र प्रताप के प्रति प्रेम जाग गया था। यह प्रेम काफी कुछ वैसा ही था जैसा नकली प्रेम इन दिनों भीमराव आंबेडकर के प्रति जागा हुआ है। मुद्दा यह बनाया गया था कि विश्वविद्यालय उनका जन्मदिन क्यों नहीं मनाता और हिंदू सांप्रदायिक तत्वों ने दुष्प्रचार करके वैसा ही हंगामा खड़ा किया था, जैसा इन दिनों मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर पर किया जा रहा है, जो 1938 से छात्र संघ भवन में लटक रही है।

राजा महेंद्र प्रताप पक्के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ समाजवादी क्रांतिकारी भी थे और उनका समतामूलक समाज की स्थापना में गहरा विश्वास था। वे उस पीढ़ी और समय के थे जब लोग घर फूंक कर देशसेवा किया करते थे। हाथरस जिले में एक छोटी-सी रियासत के जाट राजा घनश्याम सिंह के वे तीसरे पुत्र थे जिन्हें तीन साल की उम्र में ही हाथरस के राजा हरनारायण सिंह ने गोद ले लिया था। सैयद अहमद खान के द्वारा अलीगढ़ में स्थापित मुहम्मडन एंग्लो-ओरियंटल कॉलेज में उनकी स्कूली शिक्षा हुई, जहां उन्हें अंग्रेज और मुस्लिम अध्यापकों ने पढ़ाया। संभवतः अधिक लोगों को यह जानकारी न हो कि जब इस कॉलेज की स्थापना 1875 में हुई थी, तब इसमें सिर्फ एंट्रेंस परीक्षा तक की पढ़ाई ही होती थी। यानी कॉलेज कहलाते हुए भी हकीकत में यह एक स्कूल ही था। 1878 में एफए कक्षा की पढ़ाई शुरू हुई और 1881 में बीए की कक्षाएं खुलीं।

हालांकि, इसे मुख्यतः मुसलमानों के बीच धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ नवीन यानी पश्चिमी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए खोला गया था, लेकिन उसमें प्रवेश केवल मुस्लिम छात्रों तक ही सीमित नहीं था। इसके लिए धन भी केवल मुस्लिम समुदाय के लोगों से ही इकट्ठा नहीं किया गया था। अकेले पटियाला के महाराजा ने 58,000 रुपये दिए थे। बनारस और विजयनगरम के महाराजाओं, मुरादाबाद के राजा जयकिशन दास और कासिमबाजार की महारानी स्वर्णमयी, चौधरी शेर सिंह, कुंवर लेखराज सिंह, राजा शिवनारायण सिंह, राजा उदयप्रताप सिंह, लाला फूलचंद और लाला वासुदेव सहाय जैसे अनेक हिंदुओं ने उसके लिए धन दिया था। इनमें राजा महेंद्र प्रताप के पिता राजा घनश्याम सिंह भी शामिल थे जिन्होंने इस संस्था को धन के साथ-साथ जमीन भी दी थी।

राजा महेंद्र प्रताप ने 1915 में काबुल में निर्वासन के दौरान भारत की पहली स्वाधीन सरकार की स्थापना की थी जिसमें वे राष्ट्रपति थे और मौलवी बरकतुल्लाह प्रधानमंत्री और मौलवी अबैदुल्लाह सिंधी गृह मंत्री थे। 1919 में राजा महेंद्र प्रताप ने रूस जाकर वोल्शेविक क्रांति के नेता और महान मार्क्सवादी चिंतक व्लादिमीर लेनिन से भी मुलाकात की थी। उनमें कभी हिंदूवादी, कट्टरपंथी या सांप्रदायिक विचलन नहीं आया। 1957 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने भारतीय जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को मथुरा में धूल चटाई। इसके बावजूद हिंदुत्ववादियों को सांप्रदायिक राजनीति चमकाने के लिए उनके इस्तेमाल में कोई गुरेज नहीं हुआ। 

लेकिन, इतिहास बदलना जिनके वैचारिक-राजनैतिक अभियान का अभिन्न अंग है, जो हल्दीघाटी की लड़ाई में महाराणा प्रताप को विजयी बना सकते हैं और सिकंदर को पाटलिपुत्र तक ला सकते हैं, उनके लिए इस बात का क्या महत्व कि जिन्ना जो भी रहे हों, वे 1947 तक की भारतीय राजनीति में अग्रणी पंक्ति के नेता थे। उनकी भूमिका का मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन तो किया जा सकता है, और किया भी जाना चाहिए। पर, उसे उस तरह मिटाया नहीं जा सकता जैसे पेंसिल से लिखे हुए को रबड़ से मिटाया जाता है। लेकिन, जिनकी राजनीति की बुनियाद ही हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर टिकी हो, वे जिन्ना का इस्तेमाल करके अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के खिलाफ दुर्भावना प्रेरित हिंसक अभियान क्यों न चलाएं?

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मामले में इस प्रकार का अभियान चलाना अपेक्षाकृत आसान भी है क्योंकि 1947 से पहले मुस्लिम पृथकतावाद के पनपने और पाकिस्तान आंदोलन के मजबूत होने में विश्वविद्यालय के संस्थापक सैयद अहमद खान की वैचारिक विरासत और विद्यार्थियों के एक तबके की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सैयद अहमद खान, जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के समय अंग्रेजों की बहुत अधिक सहायता की थी और जिसकी एवज में उन्हें 'सर' के ऊंचे खिताब समेत कई अन्य सम्मान और जमीन वगैरह तो मिले ही, उनके लिए आजीवन 200 रुपये महीना पेंशन भी बांध दी गई, विद्रोह के समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे। उनके परिवार का मुगल बादशाहों के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध रहा था और उनके नाना को दरबार में ऊंचा ओहदा मिला हुआ था।

इस सामंती पृष्ठभूमि के कारण उनमें अंग्रेजों द्वारा स्थापित की जा रही संस्थाओं के प्रति अविश्वास और संदेह था जिनमें भले ही सीमित, लेकिन लोकतंत्र के आधार पर शासन का कामकाज होना था। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि पवित्र पुस्तक कुरआन के अनुसार मुसलमान और ईसाई स्वाभाविक मित्र हैं, इसलिए मुसलमानों को हरचंद कोशिश करनी चाहिए कि अंग्रेजी साम्राज्य भारत में चिरस्थायी रहे क्योंकि मुसलमान हिंदुओं की प्रजा बनना कभी गवारा नहीं कर सकते। उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना के समय से ही उसका लगातार विरोध किया। मुस्लिम पृथकतावाद के जन्म और विकास की कहानी मूलतः उनसे ही शुरू होती है। इसे जिन्ना ने तार्किक परिणति तक पहुंचाया और पाकिस्तान बनवा कर ही दम लिया।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पाकिस्तान आंदोलन का वैचारिक किला था। वहां के माहौल में भी सर सैयद की विचारधारा का वर्चस्व था लेकिन वहां अनेक राष्ट्रवादी, मार्क्सवादी और प्रगतिशील लोग भी पढ़ते और पढ़ाते थे। आजादी के बाद का विश्वविद्यालय वही नहीं है जो आजादी के पहले था। जब जिन्ना जिन्दा थे, तब संघ ने उनके खिलाफ कोई अभियान नहीं चलाया, बल्कि “वीर” कहे जाने वाले विनायक दामोदर सावरकर की हिंदू महासभा के प्रमुख नेता और भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी 1942 के “भारत छोड़ो” आंदोलन के समय बंगाल में जिन्ना की मुस्लिम लीग की सरकार में मंत्री थे। आज संघ को जिन्ना की तस्वीर तक से तकलीफ हो रही है। यदि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रसंघ भवन में जिन्ना की तस्वीर टंगी है, तो अनेक हिंदू नेताओं की तस्वीरें भी वहां टंगी हुई हैं। उसके लगे रहने या न रहने का क्या महत्व है? क्या आज विश्वविद्यालय में जिन्ना के मुस्लिम पृथकतावाद को रत्ती भर भी समर्थन प्राप्त है? क्या वहां सुचारु रूप से पढ़ाई नहीं होती और क्या वहां सभी धर्मों, समुदायों और क्षेत्रों के विद्यार्थी नहीं पढ़ते?

और, अनेक लोग एक जायज सवाल यह भी कर रहे हैं जब जिन्ना से भी तीन साल पहले हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अधिवेशन में दिए गए अपने अध्यक्षीय भाषण में, और उससे भी 14 साल पहले लिखी पुस्तक “हिंदुत्व” में, सावरकर द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन कर चुके थे और हिंदुओं और मुसलमानों को दो अलग राष्ट्रीयता बता चुके थे, तो फिर जिन्ना से ऐसा क्या परहेज है? और अगर है, तो फिर सावरकर की प्रतिमाएं और चित्र भी क्यों न हटाए जाएं?

लेकिन तस्वीर तो बस बहाना है, असली मकसद तो हिंदू को मुसलमान से लड़ाना है। 

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)   

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